गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

धूप में सीढ़ियों पर- मिथिलेश श्रीवास्तव

पांच बरस बहुत बरस होते हैं । हिंदी के सुप्रसिद्ध बहुचर्चित सर्वस्वीकृत कवि रघुवीर सहाय की एक कविता की पंक्ति है और वह भारतीय राजनीति की तस्वीर दिखाने वाले आईने सरीखी है । यह कविता आपातकाल के बाद के किसी समय में कभी लिखी गयी होगी। रघुवीर सहाय अपने समय के आगे के समय की राजनीति और समाज को साफ़ साफ़ देखने वाले कवि हैं। पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में भारतीय राजनीति का एक ऐसा दौर शुरू होता है जहां राजनितिक दलों में पांच बरस और पांच बरस फिर और पांच बरस के लिए सत्ता में बने रहने की होड़ सी लग गयी और सत्ता में बने रहने के दौरान कुछ नहीं करने की प्रवृति भी उनमे में आ गयी। पांच बरस के बाद पांच बरस और जनता से मांगने की कुप्रवृति राजनितिक रणनीति के रूप में देखने में आई। इसका आभास रघुवीर सहाय की कविता में मिलता है। रघुवीर सहाय आज होते तो जरूर कहते अब किसी दल को पांच बरस नहीं मिलने चाहिय ।

रघवीर सहाय सर्वस्वीकृत कवि इसलिय थे कि उनकी स्वीकृति वामपंथियों में उतनी ही थी जितनी दूसरे पंथियों के बीच थी। अपने बाद की पीढ़ी लेकिन समकालीन कवियों के बीच वे काफी लोकप्रिय रहे जबकि उनमें से अधिकांश वामपंथी थे और उन पर उनका प्रभाव भी गहरा था । वर्तमान राजनीतिक हालात और मार तमाम लोगों की दुर्दशा के समय में रघुवीर सहाय अत्यंत प्रासंगिक हैं। उनकी नजर क्रूर होती सत्ता के चरित्र, लोकतंत्र का माखौल बनाते राजनीतिज्ञों, समाज में बिचौलियों के बढ़ते दब-दबे को देख रही थीं। दिक्कत यह है कि यह समाज अपने साहित्य से रचनात्मक संबंध बनाने के लिए उद्धत होता दिखाई नहीं देता। आदमी के बनने की प्रक्रिया को बदल देने की आकांक्षा उनकी कविता में में देख सकते हैं। दुःख को रोज सहने की विवसता उनकी कविता हमें दिखाती है।

9 दिसम्बर, 1929 के रोज उनका लखनऊ में उनका जन्म हुआ था और 30 दिसम्बर, 1960 की शाम दिल्ली के प्रेस एन्क्लेव वाले उनके फ्लैट में उनका देहांत हुआ। उस दिन वे साठ साल इक्कीस दिन के थे दीर्घआयुता के इस जमाने में साठ साल में मरना अल्पायु में ही मरना कहेंगे। सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध , हँसो हँसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं और कुछ पते कुछ चिठियाँ उनके पांच कविता संग्रह हैं जिनके बारे में वे खुद कहा करते थे कि वे पांच छलांगे हैं। अपनी कविता के महत्त्व को वे समझते जानते थे। पत्रकारिता का प्रमाणिक और विश्वसनीय रूप हमारे सामने रखा, भाषा और खबरों दोनों की विश्वसनीयता। उन दिनों उनके संपादन में निकल रहा दिनमान हमारे लिए बौधिक प्रतिष्ठा का प्रतिक था। जो युवा या छात्र दिनमान नहीं पढ़ता उसे बौधिक रूप से पिछड़ा मान लिया जाता । अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से होड़ ले रहा था दिनमान। दिनमान का संपादन रघुबीर सहाय ने लगभग तेरह वर्षों तक लगातार किया । 

रघुवीर सहाय भीतर से लोकतांत्रिक आलोक से आलोकित थे। इस देश में समता और समाजवाद स्थापित हो, हर तबके के लोग खुशहाल हों, लोग लोकतंत्र को महसूस करें, समाज परिवार राजनीति से पाखंड दूर हो यही उनका लोक दर्शन था। वे पूंजीवादी नहीं थे, मार्क्सवादी भी नहीं थे। उनकी विचारधारा को लेकर लोगों में भ्रम रहता है। वे कहते थे, " लोग कहते हैं कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ लेकिन यह भी कहते हैं कि मेरा काम मार्क्सवादियों ज़रा सा भी कम नहीं है।" पुरातनपंथी परिभाषा के तहत कहा जाता है कि मार्क्सवादी वही है जो संगठन के लिए काम करत्ता है । यह परिभाषा अब जड़ हो चुकी है। जो उपेक्षित दबे कुचले हाशिय पर धकेल दिए गए समाज के अंतिम आदमी की आवाज को पहचानता और शब्द देता है वही मार्क्सवादी है।आने वाले संकट को पहचान लेने की अदभूत क्षमता थी। ' हँसों हँसों जल्दी हंसों' संग्रह की कविताओं के बारे में यह भ्रम होने लगत्ता है कि वे आपातकाल के दौरान लिखी गई होगीं। इस संग्रह में 1967 से लेकर 1974 के बीच लिखी गई कविताएँ हैं। आपातकाल का भान कवि को हो चुका था। यह वही समय है जब आदमी को यह सबूत देना पड़ता कि वह शर्म में शामिल है। ' ऐसे हंसों कि बहुत खुश न मालूम हो/ वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं /और मारे जाओगे ।' रघवीर सहाय लिखते हैं कि आपातकाल के दौरान उन्होंने कोई कविता नहीं लिखी।

रघुवीर सहाय कि कविता के बारे में एक विवाद यह भी है कि ' इसमें काव्य नहीं अखबारी कतरनें हैं।' रघुवीर सहाय ने खुद यह कहकर इसका प्रतिवाद किया कि अखबार में लिखना या खबरनवीसी करना अपनी भाषा उतना ही रचनात्मक है जितना कविता करना । अज्ञेय ने रघवीर सहाय के बारे में लिखा है कि वे चट्टानों पर नाटकीय मुद्रा में बैठने का मोह छोड़ साधारण घरों की सीढियों पर धुप में बैठकर प्रसन्न हैं। 

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

आत्महत्या के विरुद्ध - रघुवीर सहाय


भीड़ में मैकू और मैं - रघुवीर सहाय





अधिनायक-रघुवीर सहाय


स्वाधीन व्यक्ति-रघुवीर सहाय



शनिवार, 24 नवंबर 2012

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर पर गिरीश कर्नाड की दुर्भाग्यपूर्ण टिपण्णी

कन्नड़ के लेखक (मुख्य रूप से नाटकार ) गिरीश कर्नाड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण टिपण्णी करके भारतीय सांस्कृतिक संसार में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। उन्होंने यह कह दिया कि गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक दोयम दर्जे के हैं। गिरीश कर्नाड केवल नाटककार है, रंग निर्देशक नहीं इसलिए उनके कहे के पीछे रबिन्द्र नाथ टैगोर के नाटकों को मंचित करने के दरमियान आने वाली परेशानियों का जो अनुभव होता है वह अनुभव नहीं है। टैगोर दुनिया भर में एक कवि के रूप में मशहूर हैं। नोबल पुरस्कार उनकी कृति गीतांजलि पर मिली। संगीतकारों और गायकों ने उनकी कविता को रविन्द्र संगीत के रूप में लगभग बंगाल के घर घर में पहुंचाया । अनुवादकों ने उनकी कविता का ही अनुवाद दूसरी भाषाओँ के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया। टैगोरे के कवि रूप ने दूसरी विधा के उनके लेखन को उभरने नहीं दिया। कवि के अलावा उन्हें चित्रकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है। भारतीय कला का इतिहास बिना रबिन्द्र नाथ टैगोर के सन्दर्भ के पूरा नहीं होता। प्रसिद्धि के तीसरे पायदान पर उनकी कहानियाँ और उपन्यास हैं। उनके नाटकों का जिक्र बहुत कम होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके नाटक दोयम दर्जे के हैं। किसी भी नाटक को कुशल रंग निर्देशक और अनुभवी रंग कलाकारों की जरुरत होती है। 
गिरीश कर्नाड के नाटकों के बारे में ही देखें। कन्नड़ में लिखे उनके नाटक तुगलक का हिंदी में अनुवाद ब ब कारंत ने किया था और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंग मंडल के रंगकर्मियों ने ओम शिवपुरी के रंग निर्देशन में 1966 में प्रस्तुत किया था । ओम शिवपुरी खुद तुगलक की भूमिका में थे। मंच निर्माण इ अल्काजी ने किया था। 1973 में इ अल्काजी के रंग निर्देशन में तुगलक का फिर मंचन हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका मनोहर सिंह ने की थी । 1982 में प्रसन्ना के निर्देशन में तुगलक खेला गया जिसमें तुगलक की भूमिका फिर मनोहर सिंह ने निभाई थी। हालहि में तुगलक का मंचन भानु भारती के रंग निर्देशन में दिल्ली में हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका में अभिनेता यशपाल शर्मा थे। भानु भारती की यह प्रस्तुति इतनी सराहनीय थी कि इसकी गूंज सालों तक सुनाई देती रहेगी। कमजोर हाथों में तुगलक पड़ जाय तो इसे भी दोयम दरजे की श्रेणी में जाना पड़ सकता है क्योंकि तुगलक का किरदार इतना जटिल है कि हर किसी कलाकार के अभिनय क्षमता के सहारे इसे मंच पर दिखाया नहीं जा सकता है। किसी नाटक के लोकप्रिय होने के लिए जरूरी है कि उसे बार बार खेला जाये। यह सौभाग्य गिरीश कर्नाड के तुगलक को मिला है खासकर हिंदी रंगमंच पर। उनका नागमंडल भी अमाल अल्लाना जैसे कुशल और प्रतिभाशाली रंग निर्देशक के द्वारा मंचित किया गया। गिरीश कर्नाड के नाटक हिंदी रंग मंच की दुनिया में लोकप्रिय हैं तो इसकी वजह कुशल रंग निर्देशकों का परिश्रम है। मराठी नाटककार महेश एलकुंचवार कहते हैं कि जब तक कोई नाटक हिंदी में खेला न जाये तब तक उसके लोकप्रिय होने की गारंटी नहीं होती है। हमलोग गिरीश कर्नाड को केवल नाटकार के रूप में ही जानते हैं क्योंकि उनके नाटकार रूप को ही अधिक लोकप्रियता मिली है। हो सकता है दूसरी विधाओं में भी वे लिखते हों जो लोकप्रिय हुआ ही नहीं। भारतीय रंग कर्म के केंद्र में ज्यादातर विदेशी नाटक ही रहें है और उन्हीं के अनुवाद भारतीय रंगमंच पर खेले जाते रहें हैं। रंग निर्देशक अपनी भाषा में नाटकों के आभाव का रोना तो रोते रहे हैं लेकिन प्रयोगधर्मी होने की उनकी कोशिश कम ही रही है। जोर अजमाए हुए नाटकों को ही खेलने पर रहा है। 
मोहन राकेश की ख्याति उनके नाटकों की वजह से है बात ऐसी नहीं है लेकिन उनके नाटक खासकर आषाढ का एक दिन और लहरों के राजहंस इतने खेले जाते रहें हैं कि पाठकों के जेहन में सबसे पहले उनके नाटक ही आते हैं। मोहन राकेश की कहानियां और उपन्यास कहीं से भी किसी भी रूप में कम नहीं हैं। जय शंकर प्रसाद के नाटकों के बारे में कहा जाता है कि उनमें रंगमंचीय तत्वों की कमी है लेकिन उन्हें खेलने की कोशिशें भी होती रहती हैं लेकिन किसी ने उनके नाटकों को दोयम दर्जे का कह दिया हो ऐसा भी नहीं है। मोहन राकेश के लहरों के राजहंस के बारे में कहते हैं कि अभ्यास के दौरान उन्होंने उसके कई अंशों को फिर से लिखा। रंग निर्देशकों के बारे में कहा जाता है कि वे नाटकों में मंचन के दौरान फेर बदल कर देते है ताकि उनकी प्रस्तुति संभव हो सके। कहने का मतलब यह कि एक नाटक को कुशल रंग निर्देशक का इन्तजार रहता है। संभव है कि रबिन्द्र नाथ टैगोरे के नाटकों को ऐसा कोई रंग निर्देशक नहीं मिला जो उनके नाटकों को उनकी कविताओं की तरह लोकप्रिय बना सके। इस मामले में अज्ञेय भाग्यशाली रहें हैं कि हर विधा के उनके लेखन को एक समान रूप से प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जितनी उनकी कविता याद आती है उतना ही उनके उपन्यास भी याद आते हैं। रंग निर्देशकों को चाहिय कि वे गिरीश कर्नाड की चुनौती को स्वीकार करें।

रविवार, 4 नवंबर 2012

समकालीन भारत मध्यकालीन भारत है

मिथिलेश श्रीवास्तव -
भानु भारती के रंग निर्देशन खेले गए नाटक को पहले ही दिन देखा मैंने। गजब है । रंग निर्देशन से भी आगे था राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे यशपाल शर्मा का तुगलक का अभिनय । इस नाटक पर मेरी एक टिपण्णी प्रजा की भलाई की चिंता में मरता एक सुलतान अपनी प्रजा के साथ हो रहे अपने क्रूर व्यवहार और अत्याचार की शक्लो-सूरत देख नहीं पाता है। वह अपेक्षा करता है कि उसकी रियाया उस पर भरोसा करे और उसके जन-कल्याणकारी कामों की सराहना करे। जनता है कि उसकी सदिच्छाओं की क़द्र ही नहीं करती । सुलतान जीता किसके लिए है, जनता के लिए । सुलतान चिंता किसकी करता है जनता की । सुलतान जंग जनता के लिए लड़ता है। सुलतान जनता के लिए हत्याएं करता है और जनता है कि सुलतान पर भरोसा ही नहीं करती । लोगों का भरोसा पाने के लिए सुलतान हलकान है। जनता पर जुल्म ढाता है, सैनिकों से हमला करता है। उसके आमिर उमराँ उसे नई नई तरकीबें बताते हैं कि कैसे जनता का दिल जीता जा सकता है। सुलतान पर मनोवैज्ञानिक दबाव है कि जनता जो सुलतान का भरोसा नहीं कराती मुल्क में बगावत को हवा दे सकती है। सुलतान चालाकियां करता है और अपने विरोधिओं का सफाया समय समय पर करवाता है। वह मानता है कि वह जनता का भला चाहता है और लोगों से इस बात को मनवाता भी है। फिर उसे ऐसा क्यों लगता है कि उसके खिलाफ बगावत हो सकती है। दरअसल मोहम्मद बिन तुगलक के व्यक्तित्व का यह पहलू ही उसका दुश्मन है जो रोज उसे दो कदम अकेलेपन की ओर धकेल रहा था। जितना ही वह जनता की फिक्र करता जनता की नज़रों में उतना ही वह अप्रासंगिक होता चला जाता। एक सुलतान के अकेले होते जाने और अप्रासंगिक हो जाने की कथा गिरीश कर्नाड ने तुगलक में कही है। यह कथा मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य से ली गयी है जो शासकों की आपसी रंजिश से भरी हुई है। और एक दिन वह फैसला करता है कि वह दिल्ली से दूर दौलताबाद अपनी राजधानी बसाएगा और जनता को दौलताबाद कूच करने का फरमान देता है । दौलताबाद में वह और अकेला और घबराया हुआ होता है। एक दिन दौलताबाद से दिल्ली लौट आने का फैसला करता है और जनता को दिल्ली चलने का अपना आदेश देता है। शायद वह दिल्ली नहीं पहुँच पता है। सुलतान की यह दुर्गति हुई तो प्रजा का क्या हुआ होगा हम अनुमान लगा सकते हैं। दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र में प्रजा को क्या क्या तकलीफें सहनी उठानी पड़ी इसका एक दृश्य तुगलक में मंचन से ही ले लेतें हैं । एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिए दौलताबाद जा रही है और उसका बच्चा बीमार पड़ जता है। सुल्तान का आदेश है कि कोई रियाया कारवां से न बाहर जा सकता है और न अलग हो सकता है। औरत सुलतान के एक कारिंदे से अपने बच्चे को पड़ोस के गाँव में हकीम से दिखाने की इजाजत मांगती है लेकिन उसे मना कर दिया जाता है। औरत रिरियाती है तो कारिन्दा कहता है कि अशर्फियाँ दो तो इजाजत देंगे। औरत अशर्फियाँ हकीम के लिए बचाया है। दूसरा कारिन्दा पहले कारिंदे से पूछता है कि औरत को जाने क्यों नहीं देता। पहला कारिन्दा कहत्ता कि बच्चा तो मरने ही वाला है तो अशर्फियाँ हाकिम को क्यों जाएँ । सुलतान के हाकिमों का यह हाल है ।

गिरीश कर्नाड के इस नाटक का मंचन पिछले दिनों भानु भारती के रंग निर्देशन में कोटला फिरोजशाह किले के प्राचीरों के भीतर किया गया। किले के भीतर एक सुविधा यह होती है कि बिना किसी अतिरिक्त परिश्रम के मध्यकालीन परिवेश का निर्माण हो जाता है। किले के मुख्य बाहरी प्रवेशद्वार पर मध्यकालीन मोर्चेबंदी दिखाई देती है। एक संकरे द्वार से प्रवेश करना है , सुरक्षा घेरे से सुरक्षा जाँच कराते हुए, प्रवेश पत्र दिखाते हुए एक ऐसे रस्ते से गुजरना पड़ता है जो अँधेरे में डूबा हुआ होता है। प्रवेश की अनुमति देने वाले अधिकारिओं और सुरक्षा कर्मिओं के चहरे पर वही मध्यकालीन क्रूरताओं के निशान होते हैं, जैसे हम दर्शक नहीं हमलावर हैं। अँधेरे में डूबी हुई किले की खँडहर होती दीवारें जैसे दिल्ली से तुगलक के दौलताबाद चले जाने के बाद दिल्ली उजड़ चुकी हो। चलते चलते दो बुलंद दरवाजों से होकर जाते हुए अचानक रोशनी की फुहारें दिखने लगतीं है जैसे कि किले के भीतर का मीना बाजार आ गया हो। वातावरण की ऐसी यथार्थपरक संरचना रंग सभागार में निर्मित की ही नहीं जा सकती है। पिछले साल भानु भारती ने धर्मवीर भारती का अंधायुग इसी विशाल कैनवास पर इसी जगह मंचित किया था । दूसरी सुविधा यह कि इस मुक्ताकाश सभागार में किले के भीतर उपलब्ध सारी सामग्री रंग प्रस्तुति का हिस्सा बन जाती हैं । आकाश, घास, हवा, हवा की नमी, दीवारें। मंच की विशालता में कई दृश्य बंध बनाए जा सकते हैं। तुगलक में ही तीन दृश्य मंच थे। पहला मंच जहाँ आम जन की गतिविधियों को दिखाने के लिए इस्तेमाल किया गया। उसके बगल में दूसरा मंच जहां सुलतान का खास महल था। उसके बगल में तीसरा मंच जो तुगलकाबाद शहर का प्रतिबिम्ब था। इन तीन उप मंचों में विभक्त कोटला फिरोजशाह गुनाह और बेगुनाही के बीच झुलते तुगलक की बुलंदियों और उसके अवसान की कहानी का गवाह बना।

तुगलक को देखते हुए मन में यही आ रहा था कि उस मध्ययुगीन समय से हमारा समय कितना मेल खाता हुआ है। सुल्तान प्रजा की भलाई के लिए चिंतित था और जनता मर रही थी। लोकतान्त्रिक देश की सरकार भी जनता के लिए चिंतित है और जनता मर रही है। सुल्तान होशियार था ईमानदार था लेकिन उसका अपना कोई ईमान नहीं था। उसका एक ही ईमान था जनता के लिए चिंतित होना और जनता को विनाश के कगार पर ले जाना। घोटालों मनमानियों और भ्रष्ट सर्करून के कारिंदे उन्ही मध्यकालीन सुल्तानों की मानिंद पेश आ रहे हैं।

इतने शब्द कहाँ हैं- रघुवीर सहाय

इतने अथवा ऐसे शब्द कहाँ हैं जिनसे
मैं उन आँखों कानों नाक दाँत मुँह को

पाठकवर
आज आप के सम्मुख रख दूँ
जैसे मैंने देखा था उनकों कल परसों।

वह छवि मुझ में पुनरुज्जीवित कभी नहीं होती है
वह मुझ में है। है वह यह है
मैं भी यह हूँ

मेरे मुख पर अक्सर जो आभा होती है।

दर्द -रघुवीर सहाय

देखो शाम घर जाते बाप के कंधे पर
बच्चे की ऊब देखो
उसको तुम्हारी अंग्रेज़ी कह नहीं सकती
और मेरी हिंदी
कह नहीं पाएगी
अगले साल

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

मिथिलेश श्रीवास्तव -

हम में से हर एक का एक स्थायी पता है
लोग कहते हैं मैं जहाँ रहता नहीं हूँ
जहाँ मेरी चिठियाँ आती नहीं हैं
दादा या पिता के नाम से जहाँ मुझे जानते हैं लोग

अपना ही घर ढूढ़ने के लिए जहाँ लेनी पड़ती है मदद दूसरों की
पुश्तैनी जायदाद बेचने की गरज से ही जहाँ जाना हो पाता है
पिता को दो गज जमीं दिल्ली के बिजली शव दाह-गृह में मिली थी
वह पता मेरा स्थायी पता कैसे हो सकता है

लेकिन हम में से हर एक का एक स्थायी पता है
जहाँ से हम उजड़े थे

एक वर्तमान पता है जहाँ रहकर स्थायी पते को याद करते है
स्थायी पते की तलाश में बदलते रहते हैं वर्तमान पते
इस तरह स्थायी पते का अहसास कहीं गुम हो जाता है
एक दिन मुझे लिखना पड़ा कि मेरा वर्तमान पता ही स्थायी पता है
पुलिस इस बात से सहमत नहीं हुई
वर्तमान पता बदल जाने पर वह मुझे कहाँ खोजेगी
हम अब घोर वर्तमान में जी रहे हैं

तुम से क्या छिपाना तुम कभी लौटो
वर्तमान पतों की इन्ही कड़ियों में मेरे कहीं होने का सुराग मिलेगा
तुम भी कहती थीं जहाँ तुम हो वही मेरा स्थायी पता है
मालूम नहीं तुम किस रोशनी पर सवार हो किस अँधेरे में गुम

लोकतांत्रिक देशों की पुलिस
वर्तमान पते पर रहनेवाले लोगों से स्थायी पते मांगती है
जिसका कोई पता नहीं पुलिस उसे संदिग्ध मानती है

बच्चे से पुलिस उसका पता पूछती है
बच्चा तो अपनी मां की गोद में छुप जाता है
वही उसका स्थायी पता है वर्तमान पता है.

वसुधा में छपी एक कविता

 मिथिलेश श्रीवास्तव -

मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था
मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही
एक मैले कुचैले कम्बल के भीतर दुबक जाने की हिदायत मिल जाती


पागलों को आपस में बात बहस करने की मनाही होती
कोई पागल बुदबुदाने की हिम्मत नहीं कर सकता था
अपनी तकलीफों का तरतीब बयान नहीं कर सकता था
एक औरत जो नर्स के रूप में हमारी तीमारदारी करती
बराबर कड़क आवाज में गरजती
जैसे खामोसी फिल्म से प्रभावित थी
कहने का अंदाज लोरी सुनाने जैसा बिलकुल नहीं होता
वह सिर्फ धमकाया करती
बुदबुदाना नहीं वरना पुलिस बुला लेगी

मैं भाग निकला क्योंकि मेरे घरवाले मुझे छोड़कर शाम को चले जाते
मेरे घरवाले एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आने लगते
मेरे घरवाले कई कई दिनों तक नहीं आते

मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही
मुझे अपने प्रेम के किस्से सुनाने का दिल करने लगता
मैं भाग आया घर
मुझे केवल घर का रास्ता मालूम था
मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था|

सोमवार, 24 सितंबर 2012

कवि और कविता के सामने चुनौतियां हैं

मिथिलेश श्रीवास्तव

भ्रष्टाचार ,मुनाफाखोरी और चुनौतियों से भरे इस समय में शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा का कान्हा राष्ट्रीय अभ्यारण्य के बाहर एक रिसार्ट में हिंदी की अनेक पीढ़ियों के कवियों के शिविर का आयोजन इस मायने में सार्थक और सफल रहा कि आजकल प्रकाशक अपने एक-एक पैसे के पीछे अपना स्वार्थ साधने में लगे रहते है | सरकारी पैसों से चलनेवाली अकादमियां पैसे के दोहन के रास्ते तलाशती हुई फिजूलखर्ची के रास्ते चलने लगती हैं | सबसे काम लागत वाली साहित्यिक विधा कविता है जो सबसे कम आमदनी कवियों को दिलाती है | कवि और कविता दोनों को मुफ्त की चीज मान लिया गया है | ऊपर से यह भ्रम फैलाया जाता है कि कविता के पाठक नहीं है ,कविता कि किताबें बिकती नहीं हैं | शिल्पायन ने लगभग पैतीस हिंदी कवियों को एक जगह तीन दिन तक ठहरने और एक दूसरे के सानिध्य में रहने का अवसर देकर कवियों का मनोबल बढाया है | उन्हें यह एहसास दिलाया है कि इस बाजारोन्मुखी समाज में जहाँ उपभोक्ता और उपभोग ही बढ़ रहे हैं कवियों के लिए भी एक अपनी जगह है | इधर के वर्षों में ऐसा सानिध्य नहीं मिला है | इस सानिध्य कि दूसरी खासियत अल्पज्ञात कमचर्चित हाशिये पर धकेल दिए गए और नए रचनाकारों को भी भरपूर प्रतिनिधित्व मिला | वरिष्ठों के आतंक और प्रभाव से मुक्त सानिध्य का पूरा जोर लोकतांत्रिकता और सहभागिता पर रहा | बोलने की आजादी, अपनी बात कहने की पूरी छूट, कविता पढने का पर्याप्त समय | टाइगर रिसार्ट के सभाकक्ष में बिछे गद्दों पर बैठे कविता का आनंद उठाने का सकून भरा अवसर था | न बस छूट जाने की चिंता, न रात होने की फ़िक्र |

कान्हा पार्क दरअसल विशाल जंगल है, जहाँ बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है | जंगल का संरक्षण भी उसमे शामिल है | दूर -दराज देश विदेश से कान्हा पार्क की ओर लुभाते हुए सैलानी आते हैं | उनके ठहरने के लिए कान्हा पार्क के भीतर और बहार रिसार्ट बने हुए हैं हालाँकि अदालत ने जंगल के भीतर रिसार्ट के व्यवसाय पर रोक लगाने के आदेश दिए हैं, रिसार्ट का व्यवसाय शायद कुछ महीनों में ख़त्म हो जायेगा | कान्हा पार्क मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर से साठ किलोमीटर दूर है | दिल्ली से कान्हा पहुँचने के रस्ते के बीच में कई शहर कई गाँव कई नदियाँ पड़ती हैं | प्रेम के महान प्रतिबिम्ब ताजमहल वाला आगरा, तानसेन का शहर ग्वालियर, चम्बल नदी और उसका बीहड़ इस रस्ते में पड़ता है | खिड़की से बाहर देखते हुए यह एहसास हुआ कि इन बीहड़ों में डाकू नहीं आत्मसम्मानी लोग रहते हैं | अशोक वाजपेयी के प्रयासों और प्रयत्नों से निर्मित भारत भवन वाला शहर भोपाल, इन दिनों उफनती हुई नदी नर्मदा भी इसी रास्ते में है | नर्मदा पार करते हुए अमृतलाल बेगड़, मेघा पाटेकर और उजड़े हुए लोग याद आये | जबलपुर हमारे लिए साहित्यिक तीर्थ है ,जहाँ वर्षों से रहते हुए पहल का संपादन करते हुए ज्ञानरंजन रहते हैं |

ललित शर्मा ने जब कान्हा चलने का प्रस्ताव दिया तो रोमांच का अनुभव हुआ | बाघ देखना होगा, चालीस कवियों के सानिध्य में रहना होगा , संभव हुआ तो जबलपुर में ज्ञानरंजन से मुलाक़ात भी होगी | न बाघ देख पाए , न ही ज्ञानरंजन से मुलाक़ात की सूरत बन पाई | बरसात के मौसम में जंगल में प्रवेश वर्जित होता है | हाँ, यह जरुर हुआ कि उन कवियों से मुलाक़ात हुई जिन्हें पढ़ा तो था मिल नहीं पाया था |

१७ अगस्त को दिल्ली से रेल के रास्ते रवाना होना तय हुआ | दुर्भाग्य से मैं अपने निवास आर के पुरम से एक बजकर चालीस मिनट पर निकला जबकि ट्रेन के छूटने का समय दो बजकर पांच मिनट था | काफी तनाव था |गाड़ी छूट जाती तो ललित शर्मा कहते कि मेरा कान्हा आने का इरादा ही नहीं था | खैर मैंने किसी तरह गाड़ी पकड़ ही ली थी | इस बीच ललित शर्मा का बार-बार फोन आ रहा था कि "आपने गाड़ी पकड़ी या नहीं "| सुमन केसरी जी परेशान होकर फोन कर रही थी कि आप पहुंचे क्यों नहीं | उनका बर्थ मेरे बर्थ के पड़ोस में ही था | मै पहुंचा तो दोनों आश्वस्त हुए उधर गाड़ी खुली इधर हम बहसों में व्यस्त हो गए | सुमन केसरी के पास सूचनाएं पर्याप्त रहती हैं और बहस कौशल भी हैं | बीच-बीच में दूसरे डिब्बों से अंजू शर्मा, वंदना शर्मा , कुमार अनुपम ,प्रांजल धर ,ज्योति चावला ,उमा शंकर चौधरी ,संजय कुंदन ,विवेक मिश्र ,सुरेश यादव ,इत्यादि आते जाते रहे |ग्वालियर के पहले उमा शंकर चौधरी ने अचानक तय कर लिया कि उन्हें दिल्ली में नौकरी के लिए साक्षात्कार देना है , तो उन्हें दिल्ली लौट जाना है | वे ग्वालियर स्टेशन पर उतर गए | लगभग अठारह घंटों की यात्रा के बाद दूसरी सुबह जबलपुर पहुंचे| ललित शर्मा वहां खुद हमारी आगवानी के लिए मौजूद थे | जबलपुर स्टेशन पर और मित्र मिल गए |भोपाल से राजेश जोशी ,पटना से अरुण कमल ,मुंबई से विजय कुमार ,लखनऊ से नरेश सक्सेना ,खंडवा से प्रताप राव कदम ,ग्वालियर से अशोक पाण्डेय ,जयपुर से गिरिराज किराडू ,चंडीगढ़ से मोनिका कुमार ,बनारस से आशीष त्रिपाठी ,नैनीताल से शिरीष मौर्य , इलाहबाद से बद्रीनारायण , संध्या निवोदिता ,हरीश चन्द्र पण्डे | दिल्ली से लीलाधर मंडलोई दूसरे दिन पहुंचे |

बहुत दिनों के बाद ग्रामीण और आदिवासी शिल्प में निर्मित घरों को देखने का सुयोग मिला महुआ टाइगर रिसार्ट में | पिछले दो साल में यह रिसार्ट अपने अस्तित्व में आया है ,लेकिन देखने में सौ साल पुराना लगता है | रंग-रोंगन ,निर्माण सामग्री ,सजावट का सामान ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में निर्माण में प्रयुक्त होने वाले निर्माण वस्तुओं की तरह ही | पुराने ज़माने की हवेलियों सरीखे | खपरैल छप्परें ,खिड़कियाँ ,दरवाजे ,रोशनदान ,सबकुछ | दरवाजों में जंजीरें लगीं हैं | सिंकड़ियाँ ,कुण्डियाँ ,लालटेनें | लालटेनें सजावटी नहीं हैं , उनमे रौशनी है| पारदर्शी शीशे , बत्तियों की जगह बिजली के बल्ब हैं ,जो जलते हैं ,रोशनी देते हैं |

पांच सत्र कविता-पाठ के लिए और एक सत्र समकालीन कविता की चुनौतियों पर केन्द्रित थे | मुझे याद आ रहा कि नरेश सक्सेना ने इस सत्र में कहा था कि कविता हम किताब या डायरी से देख कर पढ़ते थे कवि को कविता याद नहीं रहती है | एक वक्तव्य यह भी आया कि कविता के सामने कोई चुनौती नहीं है |यह समय जिसमे हम साँस ले रहे हैं इतनी सारी चुनौतियाँ दरवेश कर रहा है तो कविता के या कवि के सामने चुनौतियाँ क्यों नहीं हो सकती हैं | एक चुनौती तो यह भी है कि कवि के लिए स्पेस नहीं है | कवि कविता पढ़ना चाहता है कविता का जीवन जीना चाहता है ,लेकिन स्पेस के आभाव में कविता की उसकी साधना अधूरी | स्पेस और टेक्स्ट को देख कर कविता पढ़ने की मज़बूरी का गहरा सम्बन्ध है | कविता छंदों को छोड़ कर गद्य के रास्ते चल पड़ी है ,गद्यात्मक कविता को पढ़ने का अवसर नहीं है ,कवि को फिर कविता कैसे याद रह पायेगी | उत्तर भारतीय इलाकों में पुस्तक संस्कृति का ह्रास इतना हो चुका है कि इसे फिर से पुनर्जीवित करने में वर्षों लग सकते हैं ,यदि बहुत सघन प्रयास किया जाये | जरुरत के सारे सामान औने-पौने दाम पर खरीद लेते हैं ,लेकिन एक किताब नहीं खरीदते | किताब खरीदना उनकी आदत में शुमार नहीं है | मध्यवर्गीय परिवारों के घरों में घरेलू पुस्तकालय बनाने का शौक अब नहीं रहा | नतीजतन कविता की किताब के एक संस्करण में प्रकाशक पांच सौ प्रतियाँ ही छापता है | वह पांच सौ प्रतियाँ सालों में बिकती हैं | कविता की किताब के प्रचार प्रसार की कोई रुपरेखा भी नहीं है | पाठक के पास कविता पहुंचेगी ही नहीं तो उसका मूल्यांकन कैसे होगा | समकालीन आलोचना की दशा - दिशा इतनी अवरुद्ध है कि तमाम कवितायेँ अविस्मरण की शिकार हो रही हैं | रायल्टी ,पारिश्रमिक इत्यादि का सवाल तभी उठता है अगर कविता अपने लक्षित या अलक्षित पाठक तक पहुँचती है | कविता के सामने यह भी चुनौती है कि कवियों को प्रतिस्पर्धात्मक होड़ में शामिल होने से कैसे रोका जाये |कान्हा में ही युवातर्क कवियों की एक जमात दिखी जिनमे उर्जा का अकूत स्त्रोत है लेकिन उनके युवातर्कपन में प्रतिस्पर्धात्मक होड़ की बू भी है | तो इस जमात की उर्जा का उपयोग कविता के पक्ष में हो सके ,यह भी एक चुनौती है ,शायद वे कवि जो कविता के नाम पर इतना कुछ ले चुके हैं ,कि उन्हें कोई चुनौती दिखाई ही नहीं देती है | कवि और कविता के लिए चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं ,इन्हें देखने और इनका समाधान तलाशने कि जरुरत है |

शनिवार, 15 सितंबर 2012

कैम्पस में कविता



लिखावट ने दिल्ली के जानकी देवी मेमोरियल महाविद्यालय ,सत्यवती महाविद्यालय ,कालिंदी महाविद्यालय और मिरांडा हॉउस कालेज में "'कैम्पस में कविता '" के अंतर्गत कविता-पाठ का आयोजन किया | इन कविता पाठों में कविता पढ़ने वालों में मंगलेश डबराल ,मिथिलेश श्रीवास्तव ,इब्बार रब्बी ,अर्चना वर्मा ,गोविन्द प्रसाद ,वजदा खान ,मुकेश मानस ,रंजित वर्मा ,रजनी अनुरागी ,रेनू हुसैन थे |

घर में सफ़ेदी - मिथिलेश श्रीवास्तव


बोंसाई - मिथिलेश श्रीवास्तव


कमीज़ - मिथिलेश श्रीवास्तव


बच्चे चाहिए - मिथिलेश श्रीवास्तव


बाज़ार के ख़िलाफ़ - मिथिलेश श्रीवास्तव


शनिवार, 8 सितंबर 2012

आप की हँसी

निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे

                           - रघुवीर सहाय

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

अनुपस्थिति

यहाँ बचपन में गिरी थी बर्फ़
पहाड़ पेड़ आंगन सीढ़ियों पर
उन पर चलते हुए हम रोज़ एक रास्ता बनाते थे

बाद में जब मैं बड़ा हुआ
देखा बर्फ़ को पिघलते हुए
कुछ देर चमकता रहा पानी
अन्तत: उसे उड़ा दिया धूप ने ।

                         -  मंगलेश डबराल
                         ( रचनाकाल : 1996)

मायूसी

मदनगीर इस शहर में एक जगह है
जहाँ से आने वाले लोगों को देख कर
जाना जा सकता है उन लोगों को जो
रखते हैं जीवित इस शहर को

यह शहर
अपने हाथों अपने सिर पर रखता है ताज
एक मायूस बादशाह की तरह

                                 - मिथिलेश श्रीवास्तव

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

तुम ही तो हो

जीवन के क्षितिज पर
गहरे, स्याह, लाल और पीले रंग में
नयी रोशनी की तरह,दिखाई देते हो
रोशनी, तुम ही तो हो|

जीवन के एकांत और अंधेरी रात में
आकाश में चाँदनी लिए
जो देता है,जीवन को शीतलता
चाँद, तुम ही तो हो|

जीवन के नव-दिवस पर
आगे बढ़ने की प्रेरणा देते
अप्रतिम रोशनी बिखेरते
सूरज, तुम ही तो हो|

                             -ज्ञानेन्द्र नाथ  त्रिपाठी