मिथिलेश श्रीवास्तव
भ्रष्टाचार ,मुनाफाखोरी और चुनौतियों से भरे इस समय में शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा का कान्हा राष्ट्रीय अभ्यारण्य के बाहर एक रिसार्ट में हिंदी की अनेक पीढ़ियों के कवियों के शिविर का आयोजन इस मायने में सार्थक और सफल रहा कि आजकल प्रकाशक अपने एक-एक पैसे के पीछे अपना स्वार्थ साधने में लगे रहते है | सरकारी पैसों से चलनेवाली अकादमियां पैसे के दोहन के रास्ते तलाशती हुई फिजूलखर्ची के रास्ते चलने लगती हैं | सबसे काम लागत वाली साहित्यिक विधा कविता है जो सबसे कम आमदनी कवियों को दिलाती है | कवि और कविता दोनों को मुफ्त की चीज मान लिया गया है | ऊपर से यह भ्रम फैलाया जाता है कि कविता के पाठक नहीं है ,कविता कि किताबें बिकती नहीं हैं | शिल्पायन ने लगभग पैतीस हिंदी कवियों को एक जगह तीन दिन तक ठहरने और एक दूसरे के सानिध्य में रहने का अवसर देकर कवियों का मनोबल बढाया है | उन्हें यह एहसास दिलाया है कि इस बाजारोन्मुखी समाज में जहाँ उपभोक्ता और उपभोग ही बढ़ रहे हैं कवियों के लिए भी एक अपनी जगह है | इधर के वर्षों में ऐसा सानिध्य नहीं मिला है | इस सानिध्य कि दूसरी खासियत अल्पज्ञात कमचर्चित हाशिये पर धकेल दिए गए और नए रचनाकारों को भी भरपूर प्रतिनिधित्व मिला | वरिष्ठों के आतंक और प्रभाव से मुक्त सानिध्य का पूरा जोर लोकतांत्रिकता और सहभागिता पर रहा | बोलने की आजादी, अपनी बात कहने की पूरी छूट, कविता पढने का पर्याप्त समय | टाइगर रिसार्ट के सभाकक्ष में बिछे गद्दों पर बैठे कविता का आनंद उठाने का सकून भरा अवसर था | न बस छूट जाने की चिंता, न रात होने की फ़िक्र |
कान्हा पार्क दरअसल विशाल जंगल है, जहाँ बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है | जंगल का संरक्षण भी उसमे शामिल है | दूर -दराज देश विदेश से कान्हा पार्क की ओर लुभाते हुए सैलानी आते हैं | उनके ठहरने के लिए कान्हा पार्क के भीतर और बहार रिसार्ट बने हुए हैं हालाँकि अदालत ने जंगल के भीतर रिसार्ट के व्यवसाय पर रोक लगाने के आदेश दिए हैं, रिसार्ट का व्यवसाय शायद कुछ महीनों में ख़त्म हो जायेगा | कान्हा पार्क मध्य प्रदेश के जबलपुर शहर से साठ किलोमीटर दूर है | दिल्ली से कान्हा पहुँचने के रस्ते के बीच में कई शहर कई गाँव कई नदियाँ पड़ती हैं | प्रेम के महान प्रतिबिम्ब ताजमहल वाला आगरा, तानसेन का शहर ग्वालियर, चम्बल नदी और उसका बीहड़ इस रस्ते में पड़ता है | खिड़की से बाहर देखते हुए यह एहसास हुआ कि इन बीहड़ों में डाकू नहीं आत्मसम्मानी लोग रहते हैं | अशोक वाजपेयी के प्रयासों और प्रयत्नों से निर्मित भारत भवन वाला शहर भोपाल, इन दिनों उफनती हुई नदी नर्मदा भी इसी रास्ते में है | नर्मदा पार करते हुए अमृतलाल बेगड़, मेघा पाटेकर और उजड़े हुए लोग याद आये | जबलपुर हमारे लिए साहित्यिक तीर्थ है ,जहाँ वर्षों से रहते हुए पहल का संपादन करते हुए ज्ञानरंजन रहते हैं |
ललित शर्मा ने जब कान्हा चलने का प्रस्ताव दिया तो रोमांच का अनुभव हुआ | बाघ देखना होगा, चालीस कवियों के सानिध्य में रहना होगा , संभव हुआ तो जबलपुर में ज्ञानरंजन से मुलाक़ात भी होगी | न बाघ देख पाए , न ही ज्ञानरंजन से मुलाक़ात की सूरत बन पाई | बरसात के मौसम में जंगल में प्रवेश वर्जित होता है | हाँ, यह जरुर हुआ कि उन कवियों से मुलाक़ात हुई जिन्हें पढ़ा तो था मिल नहीं पाया था |
१७ अगस्त को दिल्ली से रेल के रास्ते रवाना होना तय हुआ | दुर्भाग्य से मैं अपने निवास आर के पुरम से एक बजकर चालीस मिनट पर निकला जबकि ट्रेन के छूटने का समय दो बजकर पांच मिनट था | काफी तनाव था |गाड़ी छूट जाती तो ललित शर्मा कहते कि मेरा कान्हा आने का इरादा ही नहीं था | खैर मैंने किसी तरह गाड़ी पकड़ ही ली थी | इस बीच ललित शर्मा का बार-बार फोन आ रहा था कि "आपने गाड़ी पकड़ी या नहीं "| सुमन केसरी जी परेशान होकर फोन कर रही थी कि आप पहुंचे क्यों नहीं | उनका बर्थ मेरे बर्थ के पड़ोस में ही था | मै पहुंचा तो दोनों आश्वस्त हुए उधर गाड़ी खुली इधर हम बहसों में व्यस्त हो गए | सुमन केसरी के पास सूचनाएं पर्याप्त रहती हैं और बहस कौशल भी हैं | बीच-बीच में दूसरे डिब्बों से अंजू शर्मा, वंदना शर्मा , कुमार अनुपम ,प्रांजल धर ,ज्योति चावला ,उमा शंकर चौधरी ,संजय कुंदन ,विवेक मिश्र ,सुरेश यादव ,इत्यादि आते जाते रहे |ग्वालियर के पहले उमा शंकर चौधरी ने अचानक तय कर लिया कि उन्हें दिल्ली में नौकरी के लिए साक्षात्कार देना है , तो उन्हें दिल्ली लौट जाना है | वे ग्वालियर स्टेशन पर उतर गए | लगभग अठारह घंटों की यात्रा के बाद दूसरी सुबह जबलपुर पहुंचे| ललित शर्मा वहां खुद हमारी आगवानी के लिए मौजूद थे | जबलपुर स्टेशन पर और मित्र मिल गए |भोपाल से राजेश जोशी ,पटना से अरुण कमल ,मुंबई से विजय कुमार ,लखनऊ से नरेश सक्सेना ,खंडवा से प्रताप राव कदम ,ग्वालियर से अशोक पाण्डेय ,जयपुर से गिरिराज किराडू ,चंडीगढ़ से मोनिका कुमार ,बनारस से आशीष त्रिपाठी ,नैनीताल से शिरीष मौर्य , इलाहबाद से बद्रीनारायण , संध्या निवोदिता ,हरीश चन्द्र पण्डे | दिल्ली से लीलाधर मंडलोई दूसरे दिन पहुंचे |
बहुत दिनों के बाद ग्रामीण और आदिवासी शिल्प में निर्मित घरों को देखने का सुयोग मिला महुआ टाइगर रिसार्ट में | पिछले दो साल में यह रिसार्ट अपने अस्तित्व में आया है ,लेकिन देखने में सौ साल पुराना लगता है | रंग-रोंगन ,निर्माण सामग्री ,सजावट का सामान ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में निर्माण में प्रयुक्त होने वाले निर्माण वस्तुओं की तरह ही | पुराने ज़माने की हवेलियों सरीखे | खपरैल छप्परें ,खिड़कियाँ ,दरवाजे ,रोशनदान ,सबकुछ | दरवाजों में जंजीरें लगीं हैं | सिंकड़ियाँ ,कुण्डियाँ ,लालटेनें | लालटेनें सजावटी नहीं हैं , उनमे रौशनी है| पारदर्शी शीशे , बत्तियों की जगह बिजली के बल्ब हैं ,जो जलते हैं ,रोशनी देते हैं |
पांच सत्र कविता-पाठ के लिए और एक सत्र समकालीन कविता की चुनौतियों पर केन्द्रित थे | मुझे याद आ रहा कि नरेश सक्सेना ने इस सत्र में कहा था कि कविता हम किताब या डायरी से देख कर पढ़ते थे कवि को कविता याद नहीं रहती है | एक वक्तव्य यह भी आया कि कविता के सामने कोई चुनौती नहीं है |यह समय जिसमे हम साँस ले रहे हैं इतनी सारी चुनौतियाँ दरवेश कर रहा है तो कविता के या कवि के सामने चुनौतियाँ क्यों नहीं हो सकती हैं | एक चुनौती तो यह भी है कि कवि के लिए स्पेस नहीं है | कवि कविता पढ़ना चाहता है कविता का जीवन जीना चाहता है ,लेकिन स्पेस के आभाव में कविता की उसकी साधना अधूरी | स्पेस और टेक्स्ट को देख कर कविता पढ़ने की मज़बूरी का गहरा सम्बन्ध है | कविता छंदों को छोड़ कर गद्य के रास्ते चल पड़ी है ,गद्यात्मक कविता को पढ़ने का अवसर नहीं है ,कवि को फिर कविता कैसे याद रह पायेगी | उत्तर भारतीय इलाकों में पुस्तक संस्कृति का ह्रास इतना हो चुका है कि इसे फिर से पुनर्जीवित करने में वर्षों लग सकते हैं ,यदि बहुत सघन प्रयास किया जाये | जरुरत के सारे सामान औने-पौने दाम पर खरीद लेते हैं ,लेकिन एक किताब नहीं खरीदते | किताब खरीदना उनकी आदत में शुमार नहीं है | मध्यवर्गीय परिवारों के घरों में घरेलू पुस्तकालय बनाने का शौक अब नहीं रहा | नतीजतन कविता की किताब के एक संस्करण में प्रकाशक पांच सौ प्रतियाँ ही छापता है | वह पांच सौ प्रतियाँ सालों में बिकती हैं | कविता की किताब के प्रचार प्रसार की कोई रुपरेखा भी नहीं है | पाठक के पास कविता पहुंचेगी ही नहीं तो उसका मूल्यांकन कैसे होगा | समकालीन आलोचना की दशा - दिशा इतनी अवरुद्ध है कि तमाम कवितायेँ अविस्मरण की शिकार हो रही हैं | रायल्टी ,पारिश्रमिक इत्यादि का सवाल तभी उठता है अगर कविता अपने लक्षित या अलक्षित पाठक तक पहुँचती है | कविता के सामने यह भी चुनौती है कि कवियों को प्रतिस्पर्धात्मक होड़ में शामिल होने से कैसे रोका जाये |कान्हा में ही युवातर्क कवियों की एक जमात दिखी जिनमे उर्जा का अकूत स्त्रोत है लेकिन उनके युवातर्कपन में प्रतिस्पर्धात्मक होड़ की बू भी है | तो इस जमात की उर्जा का उपयोग कविता के पक्ष में हो सके ,यह भी एक चुनौती है ,शायद वे कवि जो कविता के नाम पर इतना कुछ ले चुके हैं ,कि उन्हें कोई चुनौती दिखाई ही नहीं देती है | कवि और कविता के लिए चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं ,इन्हें देखने और इनका समाधान तलाशने कि जरुरत है |
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