रविवार, 21 अक्तूबर 2012

वसुधा में छपी एक कविता

 मिथिलेश श्रीवास्तव -

मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था
मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही
एक मैले कुचैले कम्बल के भीतर दुबक जाने की हिदायत मिल जाती


पागलों को आपस में बात बहस करने की मनाही होती
कोई पागल बुदबुदाने की हिम्मत नहीं कर सकता था
अपनी तकलीफों का तरतीब बयान नहीं कर सकता था
एक औरत जो नर्स के रूप में हमारी तीमारदारी करती
बराबर कड़क आवाज में गरजती
जैसे खामोसी फिल्म से प्रभावित थी
कहने का अंदाज लोरी सुनाने जैसा बिलकुल नहीं होता
वह सिर्फ धमकाया करती
बुदबुदाना नहीं वरना पुलिस बुला लेगी

मैं भाग निकला क्योंकि मेरे घरवाले मुझे छोड़कर शाम को चले जाते
मेरे घरवाले एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आने लगते
मेरे घरवाले कई कई दिनों तक नहीं आते

मैं भाग निकला क्योंकि शाम होते ही
मुझे अपने प्रेम के किस्से सुनाने का दिल करने लगता
मैं भाग आया घर
मुझे केवल घर का रास्ता मालूम था
मेरे प्यार के किस्से सुनने वाला यहाँ भी कोई नहीं था|

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