मिथिलेश श्रीवास्तव
मिसाल के तौर पर अज्ञेय की हत्या करने की कोशिश बरसों से की जा रही है । उनके विपुल साहित्य को एक सिरे से खारिज़ करने की कवायद की तुलना आतंकवादी हमले से की जा सकती है । लेकिन अज्ञेय के लेखन की शक्ति है कि हमलों के बीच से वे फिर खड़े हो उठते हैं, बैसाखी के बगैर । हत्या की इस कोशिश के विरुद्ध कुछ कारगर आवाजें हमेंसा उठती हैं लेकिन इसकी कोई जांच नहीं होती । रघुवीर सहाय की हत्या की कोशिश और पुरजोर ढंग से होती है । पहले पूछा जता है रघुवीर सहाय मार्क्सवादी हैं । हत्या की कोशिश के पहले रघुवीर सहाय को पढो तो सही । रघुवीर सहाय कहा करते थे कि वे आवाक हैं कि रघुवीर सहाय काम तो मार्क्सवादियों वाले करते हैं, लेकिन अपने आप को मार्क्सवादी नहीं कहते । अब रघुवीर सहाय से बढ़ कर जन कवि कौन हो सकता है जो मर तमाम लोगों को आगाह करते रहे कि हत्या होगी । जिस दिन दिनमान के संपादन से उन्हें विमुक्त कर दिया गया था उस दिन हमने कहाँ पूछा था कि एक नया मनुष्य बनाने के अभियान पर निकले एक कवि को दिनमान से क्यों विमुक्त कर दिया गया । यह वही समय था जनता पार्टी की सरकार बिखर गयी थी, जय प्रकाश नारायण के संचालन में चले आन्दोलन अपने पराभव पर था और इंदिरा गाँधी की वापसी हो चुकी थी । समाज ने मान लिया कि वैचारिक विमर्श का समय ख़त्म हो गया और दिनमान को अस्त हो जाने दिया । दिनमान के पतन, दिनमान से रघुवीर सहाय का निष्कासन भी हमारे लिए आन्दोलन की वजह होना चाहिय था जो कि नहीं हुआ । क्या हमारी आखों के सामने हत्या होने के सदृश्य नहीं है यह ? अज्ञेय भी खूब पढ़े जा रहे हैं और रघुवीर सहाय भी । रघुवीर रचनावली अब उपलब्ध नहीं है, ऐसा बताते है। निर्मल वर्मा की भी हत्या की कोशिश हुई है जब उन्हें संघी कहा गया ।
रविन्द्र नाथ ठाकुर की हत्या की नई कोशिश शुरू हो चुकी है । शुरुआत कन्नड़ लेखक गिरीश कर्नाड ने यह कह के किया कि ठाकुर के नाटक दोयम दरजे के हैं । अब विष्णु खरे ने कहा है कि रविन्द्र नाथ ठाकुर को पढ़ता कोई नहीं है और उनका लेखन अंग्रेजी अनुवाद में दोयम दर्जे का लगता है । यह तो हद हो गई । विष्णु खरे से पूछा जाना चाहिए कि आखिरकार कौन से लेखक सच्चे मायने में पढ़े जाते हैं या पढ़े जा रहे हैं । किसी किताब की पांच सौ प्रतियां सरकारी खरीद के जरिय बेंच कर प्रकाशक हो रहे है मालामाल और लेखक वैसे के वैसे । विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, लीलाधर जगूड़ी के मन में कहीं न कहीं यह कशक होगी ही कि उनके लिए भी सुपारी दी गयी है तभी तो उनके साहित्यिक अवदान को तवव्जो जो मिलनी चाहिय मिल नहीं रही है। उदय प्रकाश तो घायल मन पड़े ही है। शिल्पायन सानिध्य में शामिल कविओं को तो भुन डालने की ही कोशिश की गयी थी ।
वार दोनों तरफ से हो रहे हैं । शीतयुद्ध के बाद वार का रूप आक्रामक हो गया है । सहनशीलता, सहिष्णुता, विराटता, उदारता तिरोहित हो रहे हैं । ऐसा क्यों हो रहा है शायद इसलिय कि दुनिया एकध्रुवीय हो गयी है और साहित्य इस एकध्रुवीयता के संकट को तो देख रहा है लेकिन इसकी ऐतिहासिक अनिवार्यता को स्वीकार करने से बच रहा है। एकध्रुवीयता ने हमें स्वदेशी की परिभाषा को जानने समझने का एक अच्छा मौक़ा दिया है जिसको हम अपनी निरंतरता से जोड़ कर देख सकते हैं । रविन्द्र नाथ टैगोर ने इंसानियत की इसी निरंतरता के सौंदर्य को देखा और संगीतमय कविता में अभिव्यक्त किया जिसे सारे संसार में माना गया । वे ठाकुर थे, राजघराने से थे, रसूखदार लोगों का अंग्रेजी हुकुमत के साथ दोस्ती भी निभती थी । वे इतने संपन्न थे कि वे अपनी रचना रसूखदारों के बीच ले कर जा सकते थे ।