गुरुवार, 10 जनवरी 2013

नारे आवाजें और मोमबत्तियां-मिथिलेश श्रीवास्तव

29 दिसम्बर ,2012 शनिवार था और वह दिन अकादमी आफ फ़ाईन आर्ट्स एंड लिटीरेचर के बहुप्रशंसित मासिक साहित्यिक कार्यक्रम डायलाग का था।रघुवीर सहाय की स्मृति को समर्पित इस स कार्यक्रम में आज के समय में उनकी प्रासंगिकता पर परिचर्चा होनी थी और उनकी कविताओं का वाचन होना था। तबतक देश दामिनी के साथ हुए दर्दनाक हादसे के शोक में डूब चुका था। हम सब उस हादसे को ऐसे महसूस कर रहे थे जैसे दामिनी हमारी बेटी है और वह हादसा हमारे घर में ही घटित हुआ है । न भूख लग रही थी, न नींद आ रही थी, न दिल में नए साल के आगमन का हुलास था। टेलीविजन खोलकर दामिनी के ठीक होने की खबरें जानने के लिए बैठे रहते। उस दिन सुबह से सैकड़ों फोन आ चुके कि क्या डायलाग में रघुवीर सहाय की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम होगा। त्रिनेत्र जोशी का पहला फोन आया। लगभग सिसकते हुए त्रिनेत्र जोशी ने पूछा कि क्या यह कार्यक्रम होना चाहिए। मंगलेश डबराल का फ़ोन आया, क्या आज कार्यक्रम होगा। संजय कुंदन, प्रियदर्शन, उपेन्द्र कुमार, लीलाधर मंडलोई और कई अनेक साहित्यकार मित्रों ने फोने करके यही प्रश्न पूछा। उनके सवाल करने के पीछे भावना यही थी कि जब देश शोक में डूबा हो और दामिनी के ठीक होने के लिए प्रार्थना कर रहा हो ऐसे में इस कार्यक्रम को स्थगित कर देना चाहिय । सब लोग शोक संतप्त से थे। मैंने सबसे कहा कि कार्यक्रम होगा। आप सब आयें। रघुवीर सहाय और उनकी कविता व्यवस्था विरोध का ही दूसरा नाम है। हम उनकी कविताएँ पढ़कर और उनको यादकर अपना आज विरोध प्रकट करेंगे। क्रूर और नृशंस होते जा रहे समाज, सरकार, व्यवस्था, पुलिस, राजनीति और उस आदमी के जो हम बना रहे हैं के प्रति हम अपना विरोध और रोष प्रकट करें। मेरे ऐसा कहने पर कार्यक्रम होने देने के लिए सब तैयार हुए और आखिर में वह कार्यक्रम एक शोक सभा और विरोध प्रदर्शन में बदल गया। कई पीढ़ियों के लगभग सत्तर कवि लेखक थे जिन्होंने अपना रोष प्रकट किया । रघुवीर सहाय की एक कविता पढ़ी जाती और विरोध का प्रदर्शन होता । कविता पढ़ने के पहले हहर कवि-वाचक अपने वक्तव्य में उस घटना की निंदा करता और पुलिस और व्यवस्था के विरोध में बोलता। लेकिन यह व्यवस्था विरोध यहीं नहीं हुआ बल्कि देश का हर घर व्यवस्था विरोध की जगह में बदल चुका था। हर परिवार अपने बैठक में टेलीविजन के चौबीस घंटे वाला समाचार चैनल खोलकर बैठा रहा और पल पल की अपनी प्रतिक्रिया से सरकार और व्यवस्था का विरोध कर रहा था। उनकी दुआओं में दामिनी थी उनकी शुभकामनाएं दामिनी के लिए थीं। वे चाहते थे कि सरकार दामिनी के इलाज और उसे बचाने में कोई कोताही नहीं बरते। डाक्टर कोई ढिलाई नहीं बरतें। साधनों की कमी न हो। दामिनी तो बचायी नहीं जा सकी लेकिन अब लोग आज भी इस बात के लिए प्रार्थनारत हैं कि उसे न्याय मिले, अपराधियों को जल्द से जल्द कड़ी से कड़ी सजा मिले। व्यवस्था, पुलिस, सरकार चेते और अपने दायित्व का सही निर्वाह करे। हम जो आदमी बना रहे हैं उसे और अच्छे से बनायें। 

दरअसल कार्यक्रम का होना या न होना यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह जान लेना शुकून देनेवाला था कि समाज का हर तबका इस दुख में अपने आपको शामिल पा रहा था और परिवर्तन की आकांक्षा से भर गया था। लेखक भी इसी समाज में रहता है और एक साधारण सामाजिक प्राणी की तरह उस दुःख में शामिल था और हर उत्सव का प्रतिकार और वहिष्कार कर रहा था और कर देना चाहता था। यह पहली बार हुआ कि इस घटे को सारे देश ने अपने घर में घटा हुआ महसूस किया। कई परिवारों में तो टेलीविजन इसलिय देखा जा रहा था ताकि पल पल की खबर मिलती रहे। 

राजपथ पर युवाओं जिनमें संतानवे प्रतिशत छात्र थे, को देखकर 1975 का बिहार का छात्र आन्दोलन याद आ रहा था । वह एक आन्दोलन था जिसे छात्रों ने अंजाम दिया था। आज के आन्दोलन में भी हमारे बच्चे हिस्सा ले रहे थे। हमारे युवाओं के प्रति जो यह धारणा बनने लगी थी कि वे बाजार परस्त हो गए हैं, मौजमस्ती में ही रहने वाले हो गए हैं, परिवार, समाज और राजनीति से विमुख होते जा रहे हैं अचानक इस आदोलन की वजह से टूट गई। हमारे बच्चों में विरोध करने की आकांक्षा भी है, ताकत भी है। दुःख को महसूस करने की संवेदना भी है। पानी की बौछारें वे सह सकते हैं, लाठियों की मार से उनकी हड्डियाँ टूटती नहीं। सरकार और पुलिस उनके हौसले तोड़ नहीं सकते। वे अपनी आखों से अपने देश, समाज, परिवार और लोगों को देख रहे हैं। हमारे बच्चों ने हमें यतीम हो जाने के लिए छोड़ नहीं दिया है। यह आन्दोलन एक बच्ची के साथ हुए हादसे के लिए संघर्ष कर रहा था । अगर यह आन्दोलन जोर नहीं पकड़ता तो अस्पताल से लेकर पुलिस प्रसाशन तक उस बच्चे के साथ लापरवाही भरे बर्ताव करता। इतना ही नहीं यह आदोलन सारे प्रशासनों की जड़ और संवेदनाविहीन प्रवृतियों के विरुद्ध भी एक जायज और सार्थक आवाज थी । हम सब इस आन्दोलन में शरीक हैं। हमारे बच्चों के नारे, उनकी मोमबत्तियों से निकली हुई रोशनियाँ, उनके विरोध की आवाजें ही हमें बचाए रखेगीं।

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