कन्नड़ के लेखक (मुख्य रूप से नाटकार ) गिरीश कर्नाड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण टिपण्णी करके भारतीय सांस्कृतिक संसार में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। उन्होंने यह कह दिया कि गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक दोयम दर्जे के हैं। गिरीश कर्नाड केवल नाटककार है, रंग निर्देशक नहीं इसलिए उनके कहे के पीछे रबिन्द्र नाथ टैगोर के नाटकों को मंचित करने के दरमियान आने वाली परेशानियों का जो अनुभव होता है वह अनुभव नहीं है। टैगोर दुनिया भर में एक कवि के रूप में मशहूर हैं। नोबल पुरस्कार उनकी कृति गीतांजलि पर मिली। संगीतकारों और गायकों ने उनकी कविता को रविन्द्र संगीत के रूप में लगभग बंगाल के घर घर में पहुंचाया । अनुवादकों ने उनकी कविता का ही अनुवाद दूसरी भाषाओँ के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया। टैगोरे के कवि रूप ने दूसरी विधा के उनके लेखन को उभरने नहीं दिया। कवि के अलावा उन्हें चित्रकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है। भारतीय कला का इतिहास बिना रबिन्द्र नाथ टैगोर के सन्दर्भ के पूरा नहीं होता। प्रसिद्धि के तीसरे पायदान पर उनकी कहानियाँ और उपन्यास हैं। उनके नाटकों का जिक्र बहुत कम होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके नाटक दोयम दर्जे के हैं। किसी भी नाटक को कुशल रंग निर्देशक और अनुभवी रंग कलाकारों की जरुरत होती है।
गिरीश कर्नाड के नाटकों के बारे में ही देखें। कन्नड़ में लिखे उनके नाटक तुगलक का हिंदी में अनुवाद ब ब कारंत ने किया था और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंग मंडल के रंगकर्मियों ने ओम शिवपुरी के रंग निर्देशन में 1966 में प्रस्तुत किया था । ओम शिवपुरी खुद तुगलक की भूमिका में थे। मंच निर्माण इ अल्काजी ने किया था। 1973 में इ अल्काजी के रंग निर्देशन में तुगलक का फिर मंचन हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका मनोहर सिंह ने की थी । 1982 में प्रसन्ना के निर्देशन में तुगलक खेला गया जिसमें तुगलक की भूमिका फिर मनोहर सिंह ने निभाई थी। हालहि में तुगलक का मंचन भानु भारती के रंग निर्देशन में दिल्ली में हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका में अभिनेता यशपाल शर्मा थे। भानु भारती की यह प्रस्तुति इतनी सराहनीय थी कि इसकी गूंज सालों तक सुनाई देती रहेगी। कमजोर हाथों में तुगलक पड़ जाय तो इसे भी दोयम दरजे की श्रेणी में जाना पड़ सकता है क्योंकि तुगलक का किरदार इतना जटिल है कि हर किसी कलाकार के अभिनय क्षमता के सहारे इसे मंच पर दिखाया नहीं जा सकता है। किसी नाटक के लोकप्रिय होने के लिए जरूरी है कि उसे बार बार खेला जाये। यह सौभाग्य गिरीश कर्नाड के तुगलक को मिला है खासकर हिंदी रंगमंच पर। उनका नागमंडल भी अमाल अल्लाना जैसे कुशल और प्रतिभाशाली रंग निर्देशक के द्वारा मंचित किया गया। गिरीश कर्नाड के नाटक हिंदी रंग मंच की दुनिया में लोकप्रिय हैं तो इसकी वजह कुशल रंग निर्देशकों का परिश्रम है। मराठी नाटककार महेश एलकुंचवार कहते हैं कि जब तक कोई नाटक हिंदी में खेला न जाये तब तक उसके लोकप्रिय होने की गारंटी नहीं होती है। हमलोग गिरीश कर्नाड को केवल नाटकार के रूप में ही जानते हैं क्योंकि उनके नाटकार रूप को ही अधिक लोकप्रियता मिली है। हो सकता है दूसरी विधाओं में भी वे लिखते हों जो लोकप्रिय हुआ ही नहीं। भारतीय रंग कर्म के केंद्र में ज्यादातर विदेशी नाटक ही रहें है और उन्हीं के अनुवाद भारतीय रंगमंच पर खेले जाते रहें हैं। रंग निर्देशक अपनी भाषा में नाटकों के आभाव का रोना तो रोते रहे हैं लेकिन प्रयोगधर्मी होने की उनकी कोशिश कम ही रही है। जोर अजमाए हुए नाटकों को ही खेलने पर रहा है।
मोहन राकेश की ख्याति उनके नाटकों की वजह से है बात ऐसी नहीं है लेकिन उनके नाटक खासकर आषाढ का एक दिन और लहरों के राजहंस इतने खेले जाते रहें हैं कि पाठकों के जेहन में सबसे पहले उनके नाटक ही आते हैं। मोहन राकेश की कहानियां और उपन्यास कहीं से भी किसी भी रूप में कम नहीं हैं। जय शंकर प्रसाद के नाटकों के बारे में कहा जाता है कि उनमें रंगमंचीय तत्वों की कमी है लेकिन उन्हें खेलने की कोशिशें भी होती रहती हैं लेकिन किसी ने उनके नाटकों को दोयम दर्जे का कह दिया हो ऐसा भी नहीं है। मोहन राकेश के लहरों के राजहंस के बारे में कहते हैं कि अभ्यास के दौरान उन्होंने उसके कई अंशों को फिर से लिखा। रंग निर्देशकों के बारे में कहा जाता है कि वे नाटकों में मंचन के दौरान फेर बदल कर देते है ताकि उनकी प्रस्तुति संभव हो सके। कहने का मतलब यह कि एक नाटक को कुशल रंग निर्देशक का इन्तजार रहता है। संभव है कि रबिन्द्र नाथ टैगोरे के नाटकों को ऐसा कोई रंग निर्देशक नहीं मिला जो उनके नाटकों को उनकी कविताओं की तरह लोकप्रिय बना सके। इस मामले में अज्ञेय भाग्यशाली रहें हैं कि हर विधा के उनके लेखन को एक समान रूप से प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जितनी उनकी कविता याद आती है उतना ही उनके उपन्यास भी याद आते हैं। रंग निर्देशकों को चाहिय कि वे गिरीश कर्नाड की चुनौती को स्वीकार करें।