मिथिलेश श्रीवास्तव -
भानु भारती के रंग निर्देशन खेले गए नाटक को पहले ही दिन देखा मैंने। गजब है । रंग निर्देशन से भी आगे था राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे यशपाल शर्मा का तुगलक का अभिनय । इस नाटक पर मेरी एक टिपण्णी प्रजा की भलाई की चिंता में मरता एक सुलतान अपनी प्रजा के साथ हो रहे अपने क्रूर व्यवहार और अत्याचार की शक्लो-सूरत देख नहीं पाता है। वह अपेक्षा करता है कि उसकी रियाया उस पर भरोसा करे और उसके जन-कल्याणकारी कामों की सराहना करे। जनता है कि उसकी सदिच्छाओं की क़द्र ही नहीं करती । सुलतान जीता किसके लिए है, जनता के लिए । सुलतान चिंता किसकी करता है जनता की । सुलतान जंग जनता के लिए लड़ता है। सुलतान जनता के लिए हत्याएं करता है और जनता है कि सुलतान पर भरोसा ही नहीं करती । लोगों का भरोसा पाने के लिए सुलतान हलकान है। जनता पर जुल्म ढाता है, सैनिकों से हमला करता है। उसके आमिर उमराँ उसे नई नई तरकीबें बताते हैं कि कैसे जनता का दिल जीता जा सकता है। सुलतान पर मनोवैज्ञानिक दबाव है कि जनता जो सुलतान का भरोसा नहीं कराती मुल्क में बगावत को हवा दे सकती है। सुलतान चालाकियां करता है और अपने विरोधिओं का सफाया समय समय पर करवाता है। वह मानता है कि वह जनता का भला चाहता है और लोगों से इस बात को मनवाता भी है। फिर उसे ऐसा क्यों लगता है कि उसके खिलाफ बगावत हो सकती है। दरअसल मोहम्मद बिन तुगलक के व्यक्तित्व का यह पहलू ही उसका दुश्मन है जो रोज उसे दो कदम अकेलेपन की ओर धकेल रहा था। जितना ही वह जनता की फिक्र करता जनता की नज़रों में उतना ही वह अप्रासंगिक होता चला जाता। एक सुलतान के अकेले होते जाने और अप्रासंगिक हो जाने की कथा गिरीश कर्नाड ने तुगलक में कही है। यह कथा मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य से ली गयी है जो शासकों की आपसी रंजिश से भरी हुई है। और एक दिन वह फैसला करता है कि वह दिल्ली से दूर दौलताबाद अपनी राजधानी बसाएगा और जनता को दौलताबाद कूच करने का फरमान देता है । दौलताबाद में वह और अकेला और घबराया हुआ होता है। एक दिन दौलताबाद से दिल्ली लौट आने का फैसला करता है और जनता को दिल्ली चलने का अपना आदेश देता है। शायद वह दिल्ली नहीं पहुँच पता है। सुलतान की यह दुर्गति हुई तो प्रजा का क्या हुआ होगा हम अनुमान लगा सकते हैं। दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र में प्रजा को क्या क्या तकलीफें सहनी उठानी पड़ी इसका एक दृश्य तुगलक में मंचन से ही ले लेतें हैं । एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिए दौलताबाद जा रही है और उसका बच्चा बीमार पड़ जता है। सुल्तान का आदेश है कि कोई रियाया कारवां से न बाहर जा सकता है और न अलग हो सकता है। औरत सुलतान के एक कारिंदे से अपने बच्चे को पड़ोस के गाँव में हकीम से दिखाने की इजाजत मांगती है लेकिन उसे मना कर दिया जाता है। औरत रिरियाती है तो कारिन्दा कहता है कि अशर्फियाँ दो तो इजाजत देंगे। औरत अशर्फियाँ हकीम के लिए बचाया है। दूसरा कारिन्दा पहले कारिंदे से पूछता है कि औरत को जाने क्यों नहीं देता। पहला कारिन्दा कहत्ता कि बच्चा तो मरने ही वाला है तो अशर्फियाँ हाकिम को क्यों जाएँ । सुलतान के हाकिमों का यह हाल है ।
भानु भारती के रंग निर्देशन खेले गए नाटक को पहले ही दिन देखा मैंने। गजब है । रंग निर्देशन से भी आगे था राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे यशपाल शर्मा का तुगलक का अभिनय । इस नाटक पर मेरी एक टिपण्णी प्रजा की भलाई की चिंता में मरता एक सुलतान अपनी प्रजा के साथ हो रहे अपने क्रूर व्यवहार और अत्याचार की शक्लो-सूरत देख नहीं पाता है। वह अपेक्षा करता है कि उसकी रियाया उस पर भरोसा करे और उसके जन-कल्याणकारी कामों की सराहना करे। जनता है कि उसकी सदिच्छाओं की क़द्र ही नहीं करती । सुलतान जीता किसके लिए है, जनता के लिए । सुलतान चिंता किसकी करता है जनता की । सुलतान जंग जनता के लिए लड़ता है। सुलतान जनता के लिए हत्याएं करता है और जनता है कि सुलतान पर भरोसा ही नहीं करती । लोगों का भरोसा पाने के लिए सुलतान हलकान है। जनता पर जुल्म ढाता है, सैनिकों से हमला करता है। उसके आमिर उमराँ उसे नई नई तरकीबें बताते हैं कि कैसे जनता का दिल जीता जा सकता है। सुलतान पर मनोवैज्ञानिक दबाव है कि जनता जो सुलतान का भरोसा नहीं कराती मुल्क में बगावत को हवा दे सकती है। सुलतान चालाकियां करता है और अपने विरोधिओं का सफाया समय समय पर करवाता है। वह मानता है कि वह जनता का भला चाहता है और लोगों से इस बात को मनवाता भी है। फिर उसे ऐसा क्यों लगता है कि उसके खिलाफ बगावत हो सकती है। दरअसल मोहम्मद बिन तुगलक के व्यक्तित्व का यह पहलू ही उसका दुश्मन है जो रोज उसे दो कदम अकेलेपन की ओर धकेल रहा था। जितना ही वह जनता की फिक्र करता जनता की नज़रों में उतना ही वह अप्रासंगिक होता चला जाता। एक सुलतान के अकेले होते जाने और अप्रासंगिक हो जाने की कथा गिरीश कर्नाड ने तुगलक में कही है। यह कथा मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य से ली गयी है जो शासकों की आपसी रंजिश से भरी हुई है। और एक दिन वह फैसला करता है कि वह दिल्ली से दूर दौलताबाद अपनी राजधानी बसाएगा और जनता को दौलताबाद कूच करने का फरमान देता है । दौलताबाद में वह और अकेला और घबराया हुआ होता है। एक दिन दौलताबाद से दिल्ली लौट आने का फैसला करता है और जनता को दिल्ली चलने का अपना आदेश देता है। शायद वह दिल्ली नहीं पहुँच पता है। सुलतान की यह दुर्गति हुई तो प्रजा का क्या हुआ होगा हम अनुमान लगा सकते हैं। दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र में प्रजा को क्या क्या तकलीफें सहनी उठानी पड़ी इसका एक दृश्य तुगलक में मंचन से ही ले लेतें हैं । एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिए दौलताबाद जा रही है और उसका बच्चा बीमार पड़ जता है। सुल्तान का आदेश है कि कोई रियाया कारवां से न बाहर जा सकता है और न अलग हो सकता है। औरत सुलतान के एक कारिंदे से अपने बच्चे को पड़ोस के गाँव में हकीम से दिखाने की इजाजत मांगती है लेकिन उसे मना कर दिया जाता है। औरत रिरियाती है तो कारिन्दा कहता है कि अशर्फियाँ दो तो इजाजत देंगे। औरत अशर्फियाँ हकीम के लिए बचाया है। दूसरा कारिन्दा पहले कारिंदे से पूछता है कि औरत को जाने क्यों नहीं देता। पहला कारिन्दा कहत्ता कि बच्चा तो मरने ही वाला है तो अशर्फियाँ हाकिम को क्यों जाएँ । सुलतान के हाकिमों का यह हाल है ।

तुगलक को देखते हुए मन में यही आ रहा था कि उस मध्ययुगीन समय से हमारा समय कितना मेल खाता हुआ है। सुल्तान प्रजा की भलाई के लिए चिंतित था और जनता मर रही थी। लोकतान्त्रिक देश की सरकार भी जनता के लिए चिंतित है और जनता मर रही है। सुल्तान होशियार था ईमानदार था लेकिन उसका अपना कोई ईमान नहीं था। उसका एक ही ईमान था जनता के लिए चिंतित होना और जनता को विनाश के कगार पर ले जाना। घोटालों मनमानियों और भ्रष्ट सर्करून के कारिंदे उन्ही मध्यकालीन सुल्तानों की मानिंद पेश आ रहे हैं।
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