सोमवार, 17 दिसंबर 2018

आग की स्मृति




आग की स्मृति 

आग के महत्त्व को धीरे धीरे लोगों ने भुला दिया है| आग अब कई  रूपों  में बाज़ार में उपलब्ध है | दियासलाई सबसे अधिक बिकने  वाली और  आग उपलब्ध करने वाली वस्तु बाज़ार  में है| गैस-लाइटर में चिंगारी होती है जिससे गैस-चूल्हे में आग पैदा किया जा सकता है और खाना पकाया जा सकता है | लेकिन आग की उपलबद्धता उस स्मृति को धूमिल नहीं कर सकती जो आज से पचास  साल पहले आग की कहानी के रूप में लोगों के जेहन में है | शहरों और कस्बों में पडोसी से कुछ भी माँगने का चलन अब लगभग ख़त्म हो गया है | एक समय था जब पड़ोस से एक कप दूध, एक कप चीनी, थोड़ी-सी चाय पत्ती, थोड़ा नमक मांगने का काफ़ी चलन था | कभी उधार कभी यों ही | उधार ली गयी चीज़ें कभी लौटा दी जातीं, अक्सर लौटायी  नहीं जातीं | मंगौती की वजह से पड़ोसियों के आपसी संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ता और इसी  तरह ज़िन्दगी चलती रहती | उनदिनों लोगों के पास पैसा हमेशा नहीं रहता | बाज़ार भी जीवन में इतना घुसा हुआ नहीं रहता | शहरों में अब तो कोई घरेलू  सामान अचानक घट जाता  है और घर में  पैसा नहीं है तो लोग सबसे पहले एटीएम जाते हैं, पैसा निकालते हैं, सामान ख़रीदते हैं और घर लौटते हैं | पडोसी से कुछ मांगना मानहानि समझते हैं | सच यह यह भी है कि पड़ोसी से संबंध गहराता ही नहीं है, मांग-मंगौल  हो तो कैसे ! आग मांगने का चलन शहरों, कस्बों में नहीं रह है | 

आज के लोगों को सुनकर या जान कर शायद हैरत होगी कि गांवों में आग बचा के रखने की लम्बी परंपरा रही है | वहां आग से आग पैदा की जाती रही है | पड़ोसी, पटिदारियों, और दूसरे घरों से आग मांग के लायी जाती और फिर उस आग से आग पैदा की जाती | औरतें सोने से पहले रात में खाना पकाने के बाद चूल्हे की राख में चिंगारियाँ कुछ इस तरह दबा के रखतीं  कि वह सुबह तक बची रहती और उसी बची हुई आग से चूल्हा जलता और खाना पकता और आग से होने वाली दूसरी गतिविधियां होतीं | अगर वह चिंगारी किसी वजह से बुझ गयी हो, तो बर्तन लेकर घर-घर आग की तलाश में भटकना पड़ता | जबतक आग मिल नहीं जाती, आग की तलाश जारी रहती| आग देने से कोई मना  नहीं करता था | आग पाना एक समस्या थी | आग बचाकर रखने का काफी जतन किया जाता | आग की ज़रूरत केवल खाना पकाने के लिए ही नहीं होती बल्कि नानी और दादियां जो हुक्का पीने की आदी होतीं आग की मांग करतीं, जब भी उनको हुक्का पीने का तलब होता | चिलम में तम्बाकू रखकर घर के बच्चे आग की तलाश में निकल पड़ते बल्कि उनके लिए आग जोगा कर रखा जाता | दियासलाई नहीं होती, पैसा नहीं होता, बाज़ार नहीं होता इसलिए बचाकर रखी हुई आग से आग पैदा की जाती और किसी को बुरा नहीं लगता | सरसो-तेल के दीये  रात भर जलाए रखे जाते ताकि सुबह उसी लौ से चूल्हा जलाया जा सके | किरोसिन तेल से जलने वाले दीयों और लालटेनों की बत्तियों को छोटा करके रखा जाता ताकि उनके लौ सुबह तक जलते रहें |   हर गाँव में एक या दो गोंसारियां होतीं जहाँ सामूहिक रूप से अनाज भुजने का काम होता | औरतें दौरियों में अनाज रख कर गोंसारी में जातीं  और अपना अनाज भुजतीं और अनाज का एक हिस्सा मेहनताना के रुप में गोडिन को दे देतीं | गोडिन गोंसारी के भंसार को जलाने के लिए अपने घर से आग ले आती या गांव में किसी घर से आग ले जाती |  कभी ऐसा हुआ नहीं कि गाँव में आग कहीं न बची हो | बड़े-बुजुर्ग   गाँवों में शाम को घूरे जलाते थे, जाड़ा हो या गर्मी , उससे निकले धुंए से मवेशिओं को मच्छरों से बचाते|   उसके आग को जाड़े  में तापते|  शाम को फिर आग को घूरे में दबा देते | यह आग मौसम-निरपेक्ष होकर सुबह तक बची रहती जिससे चूल्हे जलते, चिलम के तम्बाकू पर रखी जाती | एक बात याद रखने की है कि आग, आग लगाने के लिए नहीं मांगी जाती थी | दंगे फैलाने के लिए आग नहीं मांगी जाती थी |  ग्रामीण समाज में समरसता होती , सहअस्तित्व का जीवन होता | परस्पर-निर्भरता की भावना लोगों के जीवन को संचालित करती  | जाति में बंटे और आर्थिक असमानता के बावजूद गाँव का जीवन लालित्य से भरा रहता और उमंग से भरे जीवन में एक सांगीतिक लय  होता | होली के  रंग और दिवाली के जगमगाते दीए लोगों में उमंग भर देते | गाँव आज भी हैं लेकिन शायद आग बचाने की तरक़ीबें बदल गयी हैं | गाँव के लोग शहरों कीओर विस्थापित होते चले गए हैं  रोज़गार और बेहतर जीवन की खोज में | गाँव  के प्राकृतिक परिवेश से कटकर लोगों का शहरी जीवन उतना खुशहाल है, इस पर संदेह है | प्राकृतिक परिवेश में अभाव का जीवन शहरी जीवन से बेहतर है, खुली हवा, धूप और शारीरिक श्रम से कोई सुविधा बेहतर नहीं हो सकती है | जोगाने और बचाने का आनंद कुछ खास है, ग्रामीण संस्कृति हमें यही सिखाती है | लेकिन शहरी चकाचौंध ने हमें अँधा बना दिया है और हम शहरों की और भागे चले जा रहे हैं | ग्रामीण इलाकों में विकास और समृद्धि लाने के लिए सरकारें अनेकानेक ग्रामीण योजनाएं चला रही हैं लेकिन योजनाएं ठीक से क्रियान्वित नहीं हो रही हैं, भ्रष्टाचार, कदाचार, जानकारीविहीनता, राजनीतिक हस्तक्षेप इत्यादि की वजह से | शहर और गाँव दोनों की गरिमा स्थापित करने के लिए जरुरी है कि गाँव के जीवन को समृद्धशाली बनाया जाए |    

आग आग भड़काने के लिए नहीं होती है | आग की विनम्रता को कई कविओं ने अपनी कविताओं में दर्ज़ किया है | आग हमारा भोजन पकाती है (मंगलेश डबराल की एक कविता की पंक्ति )| आग की एक विनम्र और मनुष्योपयोगी इस्तेमाल है |  लेकिन पिछले कई वर्षों से  राजनीतिक लोग  आग से खेल  रहे हैं  हैं,   दंगे फैलाने की गरज़ से, देश में तबाही का मंज़र लाने के लिए, लोगों को   बांटने और आपस में लड़ाने के लिए | इन लोगों ने आग और ग्रामीण संस्कृति से कुछ नहीं सीखा है | चुनाव जीतना और राजनीति करना ही अपना राजधर्म बना लिया है | आग की पवित्रता से भी कुछ नहीं सीखा है | यह वही आग है जिसके फेरे लगा के और उसको साक्षी मान कर स्त्री और पुरुष  दाम्पत्य जीवन शुरू करते हैं | वही आग है जो मुखाग्नि के रुप में इस्तेमाल की जाती है | ऐसी आग को विध्वंस के लिए कोई कैसे इस्तेमाल कर  सकता है |    आग बची रहे और इसका इस्तेमाल मनुष्य के जीवन से अंधेरा दूर करने और खाना पकाने के लिए हो |     

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

कहने का हौसला मरा नहीं है




कहने  का हौसला मरा नहीं है 


दिसंबर के महीने में रघुवीर सहाय की याद स्मृति में ताजा होने लगती है | नौ दिसंबर, 1990 को हमने उनका साठवां जन्मदिन मनाया था| मुझे अच्छी तरह याद है कि दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के पहली मंज़िल पर स्थित सभागार  साहित्यकारों और पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था | उमड़े जनसैलाब को देखकर नामवर सिंह इतने उत्साहित हुए कि मेरे हाथ से माइक लगभग छीनते हुए कहा कि 'इस जन्मदिन समारोह का संचालन वे खुद करेंगे और संचालन किया भी| एक बड़े कवि के जन्मदिन समारोहiचालन एक बड़े  आलोचक  ने किया | नामवर सिंह के दिल में रघुवीर सहाय के प्रति उमड़े सम्मान-भाव को लोगों ने बड़े चाव और स्नेह से देखा | रघुवीर सहाय वामपंथी नहीं थे, नामवर सिंह वामपंथी थे फिर भी उस दिन दोनों के परस्पर आदर-भाव को देख कर अधिकांश लोग प्रफुल्लित थे | मैंने रघुवीर सहाय से एक निजी बातचीत में  इस बारे में   पूछा था  कि आपके वामपंथी न होने के बावजूद नामवर सिंह आपके जन्मदिन महोत्सव में आये और अपनी मर्जी से संचालन भी किया और आपकी विचार धारा को लेकर कोई सवाल भी नहीं किया   | रघुवीर सहाय का उत्तर एकदम साफ़ था, कहा, " वे लोग (नामवर सिंह और केदार नाथ सिंह ) कहते हैं कि रघुवीर सहाय वामपंथी तो नहीं हैं लेकिन काम वामपंथियों की तरह ही करते हैं|' मुझे याद आ रहा है कि यह घटना तो 1990 की है जबकि नामवर सिंह रघुवीर सहाय के बारे में अपनी प्रसिद्ध आलोचना पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान ' में  लिख चुके थे | 'कविता के नये प्रतिमान' का प्रथम संस्करण 1968 में छप कर आया था| 1968 और 1990 के बीच रघुवीर सहाय के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे और उनको साहित्य अकादमी का सम्मान भी मिल चुका था  और भारतीय कविता के परिदृश्य पर रघुवीर सहाय कवि के रूप में नायकत्व प्राप्त कर चुके थे|  कहते हैं कि 'कविता के नये प्रतिमान ' के   लिखने के नामवर सिंह की प्रेरणा-स्रोतों में से  एक स्रोत रघुवीर सहाय और उनकी कविताएं भी थीं | इस पुस्तक के  अनेकानेक पृष्ठ रघुवीर सहाय के सन्दर्भों से भरे पड़े हैं  |इस पुस्तक से एक उद्धरण काफी प्रासंगिक होगा |  "आत्महत्या के विरुद्ध की अंतिम कविता 'एक अधेड़ भारतीय आत्मा' को ही लें | कविता का मुख्य स्वर है: कल फिर मैं /एक बात कहकर बैठ जाऊँगा | / कविता से स्थिति के बारे में स्पष्ट है कि "टुटते-टुटते /जिस जगह आकर विशवास हो जाएगा कि /बीस साल/धोखा दिया गया/वहीँ  मुझे फिर कहा जाएगा विश्वास करने को | " इसलिए असलियत के बारे में कोई धोखा नहीं है | कोई सुने या नहीं सुने लेकिन 'एक बात कहने ' का हौसला मरा नहीं है; भले ही कहकर बैठ जाना पड़े | कदाचित यह स्थिति परिवेश के प्रति कुछ अधिक गहरे और तीखे तनाव को सूचित करती है |' रघुवीर सहाय ने इस कविता- संग्रह के आरंभिक वक्तव्य में लिखा है, "उस दुनिया को देखें जिसमें हमें पहले से ज्यादा रहना पड़ रहा है , लेकि जिससे हम न लगाव साध पा रहे हैं न अलगाव | " नामवर सिंह आगे  लिखते है, "इस प्रकार अपने परिवेश से इन कविताओं का सम्बन्ध नकली उदासीनता और सतही दिलचस्पी से कहीं ज्यादा गहरा है |  लगाव और अलगाव के तनाव में ही कवि कविता के रूप में "अपनी एक मूर्ति बनाता है और ढहाता है " जो उसके सर्जनात्मक तनाव का प्रतीक है | " यहाँ यह देखना होगा कि  वामपंथी होने से ही किसी कवि के सरोकार विश्वसनीय होंगे यह सच नहीं है, रघुवीर सहाय की कविता यह  साबित करती है| अपने समकालीन वामपंथी कवियों से  सर्वाधिक स्वीकृत और विश्वनीय कवि रघुवीर सहाय थे, और रहेंगे | वे खुद कहते थे कि उनके पांचों कविता संग्रह (उनके जीवित रहते हुए छपे) पांच छलांगे हैं| रघुवीर सहाय एक कवि के रूप, एक पत्रकार के रूप में और एक व्यक्ति के रूप एक सशक्त प्रतिपक्ष रहे | रघुवीर सहाय हमारे लिए महानायक की तरह रहे | अपने महानायक को देखने, छूने, मिलने, बतियाने की ललक  मेरे मन में बराबर रही | संयोग से मेरा घर और उनका घर लगभग पास-पड़ोस में था इसलिए उनसे मुलाकातें बार-बार हुआ करती थीं | 

नौ दिसंबर के दिन उनके जन्मदिन मनाने के बाद, मुझे याद आ रहा है ,उनसे मुलाकात अट्ठाइस दिसंबर की शाम को ही हो पायी थी, उस दिन शुक्रवार था और अगले दो दिन छुट्टी के थे | मेरा कार्यालय कनॉट प्लेस में था, मैं रहता था दिल्ली के साकेत के  पुष्पविहार के सरकारी फ्लैट में | मेरे ऑफिस और घर के बीच में प्रेस एन्क्लेव पड़ता है जहाँ  रघुवीर सहाय का फ्लैट पड़ता था  | कार्यालय से निकल कर मैं चला घर के लिए लेकिन उनसे मिलने के लिए  रास्ते में ही उतर गया | फोन पर बात हो चुकी थी इसलिए कोई औपचारिक होने की बात नहीं थी | दरअसल उनसे मिलने की  एक और बड़ी वजह थी |  रघुवीर सहाय का मैंने एक लंबा इंटरव्यू किया तहत दिल्ली की हिंदी अकादमी की पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती के लिए | 'इंद्रप्रस्थ  भारती ' का अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर, 1990 अंक में छप गया था और अंक बाज़ार में आ गया था | हिंदी अकादमी के तत्तकालीन सचिव स्वर्गीय नारायणदत्त पालीवाल ने उस अंक की एक प्रति और एक चेक रघुवीर सहाय को देने के लिए मुझे दिया था | मेरे अंदर बहस ख़ुशी थी क्योंकि कई बैठकियों के पश्चात यह इंटरव्यू पूरा हुआ था और मैं यह ख़ुशी उनके साथ साझा करना चाहता था | रघुवीर सहाय एक कुर्सी मैं बैठे हुए मिले | उस दिन घर का मुख्य दरवाज़ा उन्होंने नहीं खोला था जबकि उससे पहले जब भी मैं उनके घर गया हर वक्त दरवाज़ा उन्होंने ने ही खोला था | मुझे यह थोड़ा अटपटा लगा  लेकिन चूँकि यह पूछने वाली बात नहीं थी इसलिए उस बात को वहीँ छोड़ा और पत्रिका और चेक उनको दिया | दोनों चीजें उन्होंने ले ली, उलट-पलट के देखा और बगल की मेज़ पर रख दिया | अचानक रघुवीर सहाय पूछ बैठे, "आपके कविता-संग्रह का क्या हुआ ?" दरअसल मैंने अपने पहले कविता-संग्रह की पाण्डुलिपि देखने के लिए उनको दिया था जिसको देखने के बाद  कुछ सुझावों के साथ मुझे लौटा दिया था | मुझे उनके सुझावों पर काम करना था| मैंने उनको बताया कि आपके सुझाव पर सोच-विचार कर रहा हूँ और जल्दी ही आपको दूंगा | इतना कहना था कि वे एकबारगी बोल पड़े , " अब समय कहाँ है, आपने देर कर दी | " उनके चहरे पर तनाव था लेकिन 'देर ' कर देने वाली बात समझ में नहीं आयी और मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की | शायद वह कोई प्रॉफेटिक बात थी, भविष्यद्रष्टा सरीखी | यह बात 30 दिसंबर, 1990 की शाम को समझ में आयी जब मंगलेश डबराल का फोन आया, रोते  हुए मगलेश जी ने कहा ' "रघुवीर जी नहीं रहे | " मैं और मंगलेश डबराल रोते हुए प्रेस एन्क्लेव की और भागे | हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई थी | मुझे 28 दिसंबर की शाम की बात 30 दिसंबर की शाम को याद आयी  , ' अब समय कहाँ है , आपने देर कर दी |' शायद, रघुवीर सहाय को 30 दिसंबर की शाम को होने वाली घटना का पूर्वानुमान हो चुका था|  

दरअसल उन दिनों  वे प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के मनोनीत सदस्य थे | कौंसिल के कार्यों में एक कार्य अख़बारों में छपी  खबरों  की सत्यता और विश्वनीयता की जाँच-परख करना भी है | उन्हीं दिनों बिहार और झारखंड में दंगे हुए थे और शिकायतें आ रही थी कि उन राज्यों में हिंदी के अख़बारों की भूमिका भड़काऊ और दंगों को बढ़ावा देने वाली थी | कौंसिल के सदस्यों का दल सच्चाई का पता लगाने के मकसद से उन दोनों राज्यों के दौरे पर गया था | उस दल में रघुवीर सहाय भी थे | रघुवीर सहाय हिंदी अख़बारों की भूमिका से परेशां थे , उत्तेजित थे और समाज को दंगे की आग में झोंकने की भूमिका में हिंदी अखबारों के बारे में जानकार एक संवेदनशील व्यक्ति पर जो बीत सकता है, उन पर बिट रहा था | घर वालों ने बताया उसी परेशान मानसिक स्तिथि में अपना रिपोर्ट लिख रहे थे | रिपोर्ट लिखने के दौरान ही सीने में दर्द हुआ जो घातक साबित हुआ | आज वे होते तो इस साल नौ दिसंबर को अट्ठासी साल के हुए होते | यथार्थ की तलाश कभी कविता में कभी खबरों में करते करते रघुवीर सहाय हमें मानवीय संवेदना के एक ऐसे इलाके में ले गए जो आज भी मनुष्यता के लिए जरुरी है | उस समय भी धोखा दिया गया, और आज भी धोखा दिया जा रहा है | आज अंधेरा और गहरा गया है और मेरे मित्र सुभाष राय कहते हैं कि इस गहराए हुए अँधेरे का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ साहस से किया जा सकता है | रघुवीर सहाय को यह बात बहुत पसंद आती | इसी अँधेरे की ओर वे लगातार हमारा ध्यान खींचते रहे | हर साल दिसंबर का महीना उनका जन्मदिन और उनकी पुण्यतिथि लेकर आता है लेकिन हम उत्तर भारतीय इतने अभागे और दरिद्र  हैं कि अपने कवि को याद करने के लिए थोड़ा समय भी नहीं निकाल पाते  हैं|  

सोमवार, 3 दिसंबर 2018

मातृभाषा जैसी कोई और दूसरी चीज़ नहीं है जो इंसान के जीवन को सबसे अधिक सवांरती है और प्रभावित भी करती है लेकिन कई मौके  ऐसे आते हैं जहाँ लगता है कि वह  संवाद में अड़चन बन सकती है मगर ऐसा होता नहीं है | अवसर थाकोच्चि में आयोजित क्रिथि   अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक और लेखक महोत्सव , 2018 में कविता पढ़ने के लिए केरल सरकार का  आमंत्रणबहुभाषी कविता-पाठ के सत्र में छह कवि  थे उड़िया से केदार मिश्र , असमिया से कविता कर्माकर , तेलुगु सेकवि याकूब , मलयालम से  के आर टोनीहिंदी-मलयालम से संतोष अलेक्स और हिंदी से अकेले यह लेखक  | मलयालम भाषी के आर टोनी केरल की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले शहर त्रिशुर के रहने वाले हैं | वे मूलतः विज्ञानं के छात्रहैं लेकिन कवि हैं और मलयालम भाषा में एम   किया हैपत्रकारिता की विधिवत पढाई की  है | फिलवक्त वे केरल के एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापन का कार्य कर रहे हैं | उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं और कई पुरस्कारों सेसम्मानित भी हुए हैंप्रमुख समकालीन    मलयाली  कवियों में उनकी गिनती होती है | . उनकी कविताओं का कई भारतीय भाषाओँ में अनुवाद हो चुका  है| केदार मिश्र उडियाभाषी हैं उड़िया में कविता लिखते हैं और संगीत समीक्षक भी हैं | उड़िया साहित्य में उनका नाम प्रमुख युवा लेखकों में शुमार है| कवि याकुब तेलुगु भाषा के जाने-माने कवि हैं और हैदराबाद के अनवारुल उलूम महाविद्यालय के तेलुगु विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं और उस विभाग के विभागाध्यक्ष भी हैं|  उनकी खासियत यह है कि वे आंध्र प्रदेश के एक गांव से आते हैं और हैदराबाद जैसे महानगर में रहते हुए अपना ग्रामीणपन छोड़ा नहीं है| उनकी कविता में प्रतिरोध काफी मुखर रूप से मौजूद है | उनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं कविता कर्माकर असम की है और गुवाहाटी में रहती हैंअच्छी कवयित्री होने के साथ-साथ एक अच्छी गायिका भी  हैं | गायन का उनका एलबम है और कविता की कई किताबें हैं | संतोष अलेक्स कविलेखक और बहुभाषी अनुवादक हैं |मलयालम के मशहूर कवि के सच्चिदानंदन और हिंदी के प्रख्यात कवि केदार नाथ सिंह की कविताओं पर शोध किया है और डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की है |  वे मलयालम और हिंदी में कविता लिखते हैं और कई भारतीय भाषाओँ में अनुवादकरते हैं | इन सब कवियों के साथ 
यह आयोजन केरल की सरकार का था लेकिन इसे आयोजित किया था 'द साहित्य प्रवर्तक  कोऑपरेटिव सोसाइटी' जिसे लोग एस पी सी एस के नाम से भी जानते हैं | एशिया का पहला और एकमात्र पंजीकृत साहित्यिक कोऑपरेटिव सोसाइटी है | इस सोसाइटी के  मुख्य उद्देश्यों में से एक है  साहित्यिक लेखकों के आर्थिक हक़ों की रक्षा करना जिनका शोषण निजी प्रकाशक करते हैं |  करूर नील कांत पिल्लई , एम पी पॉल , केसवा देव  सरीखे मलयाली लेखकों  ने इस सोसाइटी की स्थापना में अहम भूमिका निभाई थी | कहा जाता है कि यह सोसाइटी  अपने मुनाफ़े का तीस प्रतिशत लेखकों को रॉयल्टी के रूप में  देती है | पढ़ कर हैरानी हो सकती है लेकिन यही सच्चाई है | और हमारे लिए शोध का विषय भी है | सोसाइटी के पास  इंडिया प्रेस नाम से अपना प्रिंटिंग प्रेस है जिसकी स्थापना 1953 में हुई थी | सोसाइटी के केरल भर में 11 शाखाएं हैं जिन्हे नेशनल बुक स्टॉल के नाम से जाना जाता है | सुप्रसिद्ध मलयालम कवि  ई रामचंद्रन फ़िलहाल इसके प्रेजिडेंट हैं |  इस बार मैं  अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक और लेखक महोत्सव, 2018 में कविता पढ़ने के लिए केरल सरकार के आमंत्रण पर कोच्चि गया था|  क्रिथि 2018 के नाम से चर्चित यह एक विशाल महोत्सव था जहां साहित्य और  कला के अनेक पहलुओं पर चर्चा और बहसें आयोजित थीं | सुप्रसिद्ध मलयालम लेखक सी राधाकृष्णन , मलयालम में आधुनिक कविता के नींव रखने वाले सुप्रसिद्ध कवि  के सत्चिदानन्दन , एम मुकुंदन , एन   एस  माधवन, राजन गुरुक्कल सरीखे विद्वानों को मुख्य वक्ताओं के रूप में बुलाया गया था | इस महोत्सव का प्रतीक  चिन्ह कौवा था जिसे  केरल में ज्ञान, तर्क और बुद्धत्व का प्रतिक माना  जाता है | इस महोत्सव की  अनेक ख़ासियतें थीं  | पहली खासियत यह थी कि  मलयालम भाषा को दिल से प्रमुखता मिल रही थी | लगभग सारे सभागारों के नब्बे प्रतिशत सत्रों की कार्यवाहियां मलयालम में ही संपन्न हुईं | दस प्रतिशत सत्रों में ही मलयालम की जगह अंग्रेजी का चलन दिखा जहां प्रतिभागी विदेशी थे या दूसरी भारतीय भाषाओँ से आए थे | मलयालम भाषा  का यह गौरव भाव हम सब ने महसूस किया |
 महोत्सव  के आयोजन और प्रबंध में कहीं कोई अव्यवस्था नहीं थी | लेखकों की देखभाल का जिम्मा युवा छात्रों के जिम्मे था और छात्रों ने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभायी | हवाई अड्डे पर उतरने , होटल में ठहरने , सत्रों में शिरकत करने और फिर हवाई अड्डे पर वापसी तक उन युवा छात्रों ने हमारी देखभाल की | वे सब अनुशासित ,विनम्र और लेखकों के प्रति आदर भाव रखने  वाले हैं  |
कोच्चि कई बार जाना हुआ है| केरल राज्य का यह शहर पानियों अर्थात बैकवाटर्स पर बसा हुआ है | जिधर निग़ाह डालिये उधर ही पानी-पानी | पानियों के बीच की धरती पर बसावट है | दरअसल कोच्चि और एर्नाकुलम दो जुड़वां शहर हैं | इनका प्राचीन नाम कोचीन है जहां पुर्तगाल से चलकर समुन्द्र के रास्ते होते हुए वास्को-डी-गामा भारत की धरती पर उतरा था| कोच्चि के जल-संसाधन को देखकर मुझे अक्सर अमेरिका के बे-एरिया की याद आ जाती है | अमेरिका के पूर्वी समुंद्री तट पर प्रशांत महासागर का पानी दो पहाड़ियों के बीच से होकर केलिफ़ोर्निआ प्रान्त में प्रवेश करता है और काफी अंदर तक चला गया है | इन दोनों पहाड़ियों को एक पुल जोड़ता है जो गोल्डन गेट के नाम  विश्वविख्यात है |  इस बे-एरिया के बैकवाटर्स पर केलिफ़ोर्निआ प्रान्त के कई ज़िले बसे  हुए हैं , मसलन, सैन फ्रैंसिस्को , सैन मेटिओ, सैन होज़े   इत्यादि | कोच्चि भी अमेरिका के बे-एरिया के जैसा ही बसा है लेकिन उतना तरतीब यहां नहीं दिखता जितना  सैन फ्रैंसिस्को  में दिखता है | जब भी कोच्चि गया हूं वहां के पानियों  और अरब सागर की ओर मैं खिंचा चला जाता हूं | बैकवाटर्स केरल के दूसरे शहरों में भी है | पानी के कई संस्मरण हैं मसलन लगभग दस फीट चौड़ी और कोसों लम्बी सड़कनुमा द्वीपों पर बसावट है लोगों की जो डोंगियों से पानी को पार करते हैं मुख्य धरती तक आने के लिए | गनीमत है कि इन डोंगियों में डीज़ल से चलने वाले मोटर लगे हुए हैं |   
 कोच्चि कई बार जाना हुआ है| केरल राज्य का यह शहर पानियों अर्थात बैकवाटर्स पर बसा हुआ है | जिधर निग़ाह डालिये उधर ही पानी-पानी | पानियों के बीच की धरती पर बसावट है | दरअसल कोच्चि और एर्नाकुलम दो जुड़वां शहर हैं | इनका प्राचीन नाम कोचीन है जहां पुर्तगाल से चलकर समुन्द्र के रास्ते होते हुए वास्को-डी-गामा भारत की धरती पर उतरा था| कोच्चि के जल-संसाधन को देखकर मुझे अक्सर अमेरिका के बे-एरिया की याद आ जाती है | अमेरिका के पूर्वी समुंद्री तट पर प्रशांत महासागर का पानी दो पहाड़ियों के बीच से होकर केलिफ़ोर्निआ प्रान्त में प्रवेश करता है और काफी अंदर तक चला गया है | इन दोनों पहाड़ियों को एक पुल जोड़ता है जो गोल्डन गेट के नाम  विश्वविख्यात है |  इस बे-एरिया के बैकवाटर्स पर केलिफ़ोर्निआ प्रान्त के कई ज़िले बसे  हुए हैं , मसलन, सैन फ्रैंसिस्को , सैन मेटिओ, सैन होज़े   इत्यादि | कोच्चि भी अमेरिका के बे-एरिया के जैसा ही बसा है लेकिन उतना तरतीब यहां नहीं दिखता जितना  सैन फ्रैंसिस्को  में दिखता है | जब भी कोच्चि गया हूं वहां के पानियों  और अरब सागर की ओर मैं खिंचा चला जाता हूं | बैकवाटर्स केरल के दूसरे शहरों में भी है | पानी के कई संस्मरण हैं मसलन लगभग दस फीट चौड़ी और कोसों लम्बी सड़कनुमा द्वीपों पर बसावट है लोगों की जो डोंगियों से पानी को पार करते हैं मुख्य धरती तक आने के लिए | गनीमत है कि इन डोंगियों में डीज़ल से चलने वाले मोटर लगे हुए हैं |   


मंच पर बैठे  हुए  यह देख कर परेशान  हुआ जा सकता  था कि श्रोताओं में सब के सब मलयाली भाषी हैं  जो शायद  थोड़ी-बहुत भी हिंदी नहीं जानते हैं और हिंदी ही क्यों वे शायद असमियातेलुगुउड़िया भी नहीं जानते होगें   | समस्या यहथी  कि  जिनको कविताएं सुनाने जा रहे  हैं  वो तो   हिंदी जानते नहीं फिर कविता संप्रेषित कैसे होगी  | संतोष अलेक्स ने जो कि मलयालम भाषी हैं लेकिन हिंदी भी जानते हैं और दोनों ही भाषाओँ में कविता करते हैं  और  हिंदी से मलयालमऔर मलयालम से हिंदी में  अनेक अनुवाद  किये हैं,    मेरी कुछ कविताओं का मलयालम में अनुवाद किया है लेकिन अलेक्स ने ऐन वक्त मेरी कविताओं के  मलयालम अनुवाद पढ़ने से मना  कर दिया इस तर्क के साथ कि वे किसी भी कवि कीकविता का मलयालम अनुवाद नहीं पढ़ रहे हैं | मैं सचमुच फंस चुका था | केदारकविता और  याकूब अपनी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद लेकर आये थे | अलेक्स और टोनी मलयालम भाषी हैं |  मन मसोस कर रह गयाफिर मैंने श्रोताओं सेक्षमा मांगी और अंग्रेजी में कहा , "आप लोग भाषा की दिक़्क़त की वज़ह से मेरी कविता का आस्वाद  नहीं ले पाएंगे लेकिन मेरी भाषा हिंदी के शब्दों की ध्वनियों को आप महसूस कर  सकेंगे| "  और मैंने अपनी गद्य कविताओं को छंद  और लयके साथ पढ़ गया | तालियां खूब बजीं | तालिओं के बीच मैंने महसूस किया कि  हम एक हैं और हमारी इस एकता के एहसास को कोई तोड़ नहीं सकता हैभाषा भी नहींमलयालीभाषी श्रोताओं की इस उदारता से मैं निहाल हो गया |   पर     खुदपर मन खिजता रहा  कि हमने दूसरी भाषाएं क्यों नहीं सीखी | कई साल पहले  मित्र पी मुरलीधरन ने मुझे मलयालम भाषा सीखाने की कोशिश की थी लेकिन उनकी कोशिश पर मैंने पानी फेर दिया था | वे अनथक प्रयास करते रहे और मैं बेमनकोशिश करता रहा और अंततः वह भाषा नहीं सीख सका | एक मित्र ने कोशिश की कि मैं तमिळ सिख लूँ लेकिन मैं वह भी नहीं सीख पायाभाषा  सीख पाने के  पीछे का कारण शायद मेरा बिहारी होना रहा होगा जिनमें दूसरों की भाषा सीखने का जज़्बा रहता हैइसमें वे अपना गौरव महसूस करते हैं |    जब हम स्कूल में थे तो वहां त्रिभाषा फार्मूला पर कोई ज़ोर नहीं था | संग में एक भाषा थी संस्कृत जो आगे चलकर पीछे छूट गयी | आज कल त्रिभाषा फार्मूले पर ज़ोर हैखासकर नवोदय विद्यालयों में | मैं तो कहूंगा कि मौका मिले तो भाषाएं ज़रूर सीखनी चाहिए | बल्कि मौका खोज-खोज कर दूसरी भाषा सीखनी चाहिएउत्तर भारत में हिंदी के अलावे कोई और भाषा सीखने की ललक नहीं के बराबर हैग्रामीणइलाकों के लोगों को छोड़ दीजिये शहर और महानगरों के हिन्दीभाषी लोग भी दूसरी भाषाएं सीखने में रूचि नहीं दिखाते | दक्षिण के चारों राज्यों के लोग उधर की सभी प्रमुख मसलन मलयालमतमिलकन्नड़ और   तेलुगु शायद बोल औरसमझ लेते हैं | 

महोत्सव  कोच्चि के एक तीन तरफ़ से पानी से घिरे   द्वीप पर स्थित बोलगट्टी पैलेस में हुआ | पूरे  पैलेस को पांच सभागारों में विभाजित किया गया था और हर  सभागार का नाम मलयालम के  किसी  किसी प्रख्यात कविसाहित्यकार के नाम पर रखा गया था मसलन करूर सभागार करूर नील कांत पिल्लई  के नामपर, , एम् पी पॉल सभागार एम पी पॉल के नाम पर , थाकाझी  सभागार  थाकाझी शिवशंकर पिल्लई  के नाम पर     , पोनकुन्नम और ललिथाम्बिका अनथर्जनम | करूर नीलकंठ पिल्लई लघुकथा लेखक थे और वे साहित्य प्रवर्तक सहकार संघम (लेखक सहकारिता संघ ) के संस्थापकों में से एक हैं | करूर का नाम केरल केघर-घर में लिया जाता है |  एम पी पॉल मलयालम में आधुनिक आलोचना के जनक माने जाते हैं | केरल में मलयालम साहित्य में नवजागरण आंदोलन में जनभावना  के समावेशी बनाने में उनका योगदान हैसाहित्य प्रवर्तक सहकार संघम की  स्थापना में अन्य मलयालम लेखकों में पॉल भी शामिल थे | पॉल इसके पहलेअध्यक्ष थे |थाकाझी शिवशंकर पिल्लई मलयालम उपन्यासकार और लघुकथाकार थे | उन्हें भारत के सर्वोच्य साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया था |  पोनकुन्नम वक्र्की और  ललिथाम्बिका अनथर्जनम बड़े लेखकों में थे|   इस तरह अपने लेखमें के नाम पर सभागारों के नाम रखकर लेखकों का सम्मान बढ़ाया |