कहने का हौसला मरा नहीं है
दिसंबर के महीने में रघुवीर सहाय की याद स्मृति में ताजा होने लगती है | नौ दिसंबर, 1990 को हमने उनका साठवां जन्मदिन मनाया था| मुझे अच्छी तरह याद है कि दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के पहली मंज़िल पर स्थित सभागार साहित्यकारों और पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था | उमड़े जनसैलाब को देखकर नामवर सिंह इतने उत्साहित हुए कि मेरे हाथ से माइक लगभग छीनते हुए कहा कि 'इस जन्मदिन समारोह का संचालन वे खुद करेंगे और संचालन किया भी| एक बड़े कवि के जन्मदिन समारोहiचालन एक बड़े आलोचक ने किया | नामवर सिंह के दिल में रघुवीर सहाय के प्रति उमड़े सम्मान-भाव को लोगों ने बड़े चाव और स्नेह से देखा | रघुवीर सहाय वामपंथी नहीं थे, नामवर सिंह वामपंथी थे फिर भी उस दिन दोनों के परस्पर आदर-भाव को देख कर अधिकांश लोग प्रफुल्लित थे | मैंने रघुवीर सहाय से एक निजी बातचीत में इस बारे में पूछा था कि आपके वामपंथी न होने के बावजूद नामवर सिंह आपके जन्मदिन महोत्सव में आये और अपनी मर्जी से संचालन भी किया और आपकी विचार धारा को लेकर कोई सवाल भी नहीं किया | रघुवीर सहाय का उत्तर एकदम साफ़ था, कहा, " वे लोग (नामवर सिंह और केदार नाथ सिंह ) कहते हैं कि रघुवीर सहाय वामपंथी तो नहीं हैं लेकिन काम वामपंथियों की तरह ही करते हैं|' मुझे याद आ रहा है कि यह घटना तो 1990 की है जबकि नामवर सिंह रघुवीर सहाय के बारे में अपनी प्रसिद्ध आलोचना पुस्तक 'कविता के नए प्रतिमान ' में लिख चुके थे | 'कविता के नये प्रतिमान' का प्रथम संस्करण 1968 में छप कर आया था| 1968 और 1990 के बीच रघुवीर सहाय के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके थे और उनको साहित्य अकादमी का सम्मान भी मिल चुका था और भारतीय कविता के परिदृश्य पर रघुवीर सहाय कवि के रूप में नायकत्व प्राप्त कर चुके थे| कहते हैं कि 'कविता के नये प्रतिमान ' के लिखने के नामवर सिंह की प्रेरणा-स्रोतों में से एक स्रोत रघुवीर सहाय और उनकी कविताएं भी थीं | इस पुस्तक के अनेकानेक पृष्ठ रघुवीर सहाय के सन्दर्भों से भरे पड़े हैं |इस पुस्तक से एक उद्धरण काफी प्रासंगिक होगा | "आत्महत्या के विरुद्ध की अंतिम कविता 'एक अधेड़ भारतीय आत्मा' को ही लें | कविता का मुख्य स्वर है: कल फिर मैं /एक बात कहकर बैठ जाऊँगा | / कविता से स्थिति के बारे में स्पष्ट है कि "टुटते-टुटते /जिस जगह आकर विशवास हो जाएगा कि /बीस साल/धोखा दिया गया/वहीँ मुझे फिर कहा जाएगा विश्वास करने को | " इसलिए असलियत के बारे में कोई धोखा नहीं है | कोई सुने या नहीं सुने लेकिन 'एक बात कहने ' का हौसला मरा नहीं है; भले ही कहकर बैठ जाना पड़े | कदाचित यह स्थिति परिवेश के प्रति कुछ अधिक गहरे और तीखे तनाव को सूचित करती है |' रघुवीर सहाय ने इस कविता- संग्रह के आरंभिक वक्तव्य में लिखा है, "उस दुनिया को देखें जिसमें हमें पहले से ज्यादा रहना पड़ रहा है , लेकि जिससे हम न लगाव साध पा रहे हैं न अलगाव | " नामवर सिंह आगे लिखते है, "इस प्रकार अपने परिवेश से इन कविताओं का सम्बन्ध नकली उदासीनता और सतही दिलचस्पी से कहीं ज्यादा गहरा है | लगाव और अलगाव के तनाव में ही कवि कविता के रूप में "अपनी एक मूर्ति बनाता है और ढहाता है " जो उसके सर्जनात्मक तनाव का प्रतीक है | " यहाँ यह देखना होगा कि वामपंथी होने से ही किसी कवि के सरोकार विश्वसनीय होंगे यह सच नहीं है, रघुवीर सहाय की कविता यह साबित करती है| अपने समकालीन वामपंथी कवियों से सर्वाधिक स्वीकृत और विश्वनीय कवि रघुवीर सहाय थे, और रहेंगे | वे खुद कहते थे कि उनके पांचों कविता संग्रह (उनके जीवित रहते हुए छपे) पांच छलांगे हैं| रघुवीर सहाय एक कवि के रूप, एक पत्रकार के रूप में और एक व्यक्ति के रूप एक सशक्त प्रतिपक्ष रहे | रघुवीर सहाय हमारे लिए महानायक की तरह रहे | अपने महानायक को देखने, छूने, मिलने, बतियाने की ललक मेरे मन में बराबर रही | संयोग से मेरा घर और उनका घर लगभग पास-पड़ोस में था इसलिए उनसे मुलाकातें बार-बार हुआ करती थीं |
नौ दिसंबर के दिन उनके जन्मदिन मनाने के बाद, मुझे याद आ रहा है ,उनसे मुलाकात अट्ठाइस दिसंबर की शाम को ही हो पायी थी, उस दिन शुक्रवार था और अगले दो दिन छुट्टी के थे | मेरा कार्यालय कनॉट प्लेस में था, मैं रहता था दिल्ली के साकेत के पुष्पविहार के सरकारी फ्लैट में | मेरे ऑफिस और घर के बीच में प्रेस एन्क्लेव पड़ता है जहाँ रघुवीर सहाय का फ्लैट पड़ता था | कार्यालय से निकल कर मैं चला घर के लिए लेकिन उनसे मिलने के लिए रास्ते में ही उतर गया | फोन पर बात हो चुकी थी इसलिए कोई औपचारिक होने की बात नहीं थी | दरअसल उनसे मिलने की एक और बड़ी वजह थी | रघुवीर सहाय का मैंने एक लंबा इंटरव्यू किया तहत दिल्ली की हिंदी अकादमी की पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती के लिए | 'इंद्रप्रस्थ भारती ' का अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर, 1990 अंक में छप गया था और अंक बाज़ार में आ गया था | हिंदी अकादमी के तत्तकालीन सचिव स्वर्गीय नारायणदत्त पालीवाल ने उस अंक की एक प्रति और एक चेक रघुवीर सहाय को देने के लिए मुझे दिया था | मेरे अंदर बहस ख़ुशी थी क्योंकि कई बैठकियों के पश्चात यह इंटरव्यू पूरा हुआ था और मैं यह ख़ुशी उनके साथ साझा करना चाहता था | रघुवीर सहाय एक कुर्सी मैं बैठे हुए मिले | उस दिन घर का मुख्य दरवाज़ा उन्होंने नहीं खोला था जबकि उससे पहले जब भी मैं उनके घर गया हर वक्त दरवाज़ा उन्होंने ने ही खोला था | मुझे यह थोड़ा अटपटा लगा लेकिन चूँकि यह पूछने वाली बात नहीं थी इसलिए उस बात को वहीँ छोड़ा और पत्रिका और चेक उनको दिया | दोनों चीजें उन्होंने ले ली, उलट-पलट के देखा और बगल की मेज़ पर रख दिया | अचानक रघुवीर सहाय पूछ बैठे, "आपके कविता-संग्रह का क्या हुआ ?" दरअसल मैंने अपने पहले कविता-संग्रह की पाण्डुलिपि देखने के लिए उनको दिया था जिसको देखने के बाद कुछ सुझावों के साथ मुझे लौटा दिया था | मुझे उनके सुझावों पर काम करना था| मैंने उनको बताया कि आपके सुझाव पर सोच-विचार कर रहा हूँ और जल्दी ही आपको दूंगा | इतना कहना था कि वे एकबारगी बोल पड़े , " अब समय कहाँ है, आपने देर कर दी | " उनके चहरे पर तनाव था लेकिन 'देर ' कर देने वाली बात समझ में नहीं आयी और मैंने समझने की कोशिश भी नहीं की | शायद वह कोई प्रॉफेटिक बात थी, भविष्यद्रष्टा सरीखी | यह बात 30 दिसंबर, 1990 की शाम को समझ में आयी जब मंगलेश डबराल का फोन आया, रोते हुए मगलेश जी ने कहा ' "रघुवीर जी नहीं रहे | " मैं और मंगलेश डबराल रोते हुए प्रेस एन्क्लेव की और भागे | हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई थी | मुझे 28 दिसंबर की शाम की बात 30 दिसंबर की शाम को याद आयी , ' अब समय कहाँ है , आपने देर कर दी |' शायद, रघुवीर सहाय को 30 दिसंबर की शाम को होने वाली घटना का पूर्वानुमान हो चुका था|
दरअसल उन दिनों वे प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया के मनोनीत सदस्य थे | कौंसिल के कार्यों में एक कार्य अख़बारों में छपी खबरों की सत्यता और विश्वनीयता की जाँच-परख करना भी है | उन्हीं दिनों बिहार और झारखंड में दंगे हुए थे और शिकायतें आ रही थी कि उन राज्यों में हिंदी के अख़बारों की भूमिका भड़काऊ और दंगों को बढ़ावा देने वाली थी | कौंसिल के सदस्यों का दल सच्चाई का पता लगाने के मकसद से उन दोनों राज्यों के दौरे पर गया था | उस दल में रघुवीर सहाय भी थे | रघुवीर सहाय हिंदी अख़बारों की भूमिका से परेशां थे , उत्तेजित थे और समाज को दंगे की आग में झोंकने की भूमिका में हिंदी अखबारों के बारे में जानकार एक संवेदनशील व्यक्ति पर जो बीत सकता है, उन पर बिट रहा था | घर वालों ने बताया उसी परेशान मानसिक स्तिथि में अपना रिपोर्ट लिख रहे थे | रिपोर्ट लिखने के दौरान ही सीने में दर्द हुआ जो घातक साबित हुआ | आज वे होते तो इस साल नौ दिसंबर को अट्ठासी साल के हुए होते | यथार्थ की तलाश कभी कविता में कभी खबरों में करते करते रघुवीर सहाय हमें मानवीय संवेदना के एक ऐसे इलाके में ले गए जो आज भी मनुष्यता के लिए जरुरी है | उस समय भी धोखा दिया गया, और आज भी धोखा दिया जा रहा है | आज अंधेरा और गहरा गया है और मेरे मित्र सुभाष राय कहते हैं कि इस गहराए हुए अँधेरे का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ साहस से किया जा सकता है | रघुवीर सहाय को यह बात बहुत पसंद आती | इसी अँधेरे की ओर वे लगातार हमारा ध्यान खींचते रहे | हर साल दिसंबर का महीना उनका जन्मदिन और उनकी पुण्यतिथि लेकर आता है लेकिन हम उत्तर भारतीय इतने अभागे और दरिद्र हैं कि अपने कवि को याद करने के लिए थोड़ा समय भी नहीं निकाल पाते हैं|
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