आग की स्मृति
आज के लोगों को सुनकर या जान कर शायद हैरत होगी कि गांवों में आग बचा के रखने की लम्बी परंपरा रही है | वहां आग से आग पैदा की जाती रही है | पड़ोसी, पटिदारियों, और दूसरे घरों से आग मांग के लायी जाती और फिर उस आग से आग पैदा की जाती | औरतें सोने से पहले रात में खाना पकाने के बाद चूल्हे की राख में चिंगारियाँ कुछ इस तरह दबा के रखतीं कि वह सुबह तक बची रहती और उसी बची हुई आग से चूल्हा जलता और खाना पकता और आग से होने वाली दूसरी गतिविधियां होतीं | अगर वह चिंगारी किसी वजह से बुझ गयी हो, तो बर्तन लेकर घर-घर आग की तलाश में भटकना पड़ता | जबतक आग मिल नहीं जाती, आग की तलाश जारी रहती| आग देने से कोई मना नहीं करता था | आग पाना एक समस्या थी | आग बचाकर रखने का काफी जतन किया जाता | आग की ज़रूरत केवल खाना पकाने के लिए ही नहीं होती बल्कि नानी और दादियां जो हुक्का पीने की आदी होतीं आग की मांग करतीं, जब भी उनको हुक्का पीने का तलब होता | चिलम में तम्बाकू रखकर घर के बच्चे आग की तलाश में निकल पड़ते बल्कि उनके लिए आग जोगा कर रखा जाता | दियासलाई नहीं होती, पैसा नहीं होता, बाज़ार नहीं होता इसलिए बचाकर रखी हुई आग से आग पैदा की जाती और किसी को बुरा नहीं लगता | सरसो-तेल के दीये रात भर जलाए रखे जाते ताकि सुबह उसी लौ से चूल्हा जलाया जा सके | किरोसिन तेल से जलने वाले दीयों और लालटेनों की बत्तियों को छोटा करके रखा जाता ताकि उनके लौ सुबह तक जलते रहें | हर गाँव में एक या दो गोंसारियां होतीं जहाँ सामूहिक रूप से अनाज भुजने का काम होता | औरतें दौरियों में अनाज रख कर गोंसारी में जातीं और अपना अनाज भुजतीं और अनाज का एक हिस्सा मेहनताना के रुप में गोडिन को दे देतीं | गोडिन गोंसारी के भंसार को जलाने के लिए अपने घर से आग ले आती या गांव में किसी घर से आग ले जाती | कभी ऐसा हुआ नहीं कि गाँव में आग कहीं न बची हो | बड़े-बुजुर्ग गाँवों में शाम को घूरे जलाते थे, जाड़ा हो या गर्मी , उससे निकले धुंए से मवेशिओं को मच्छरों से बचाते| उसके आग को जाड़े में तापते| शाम को फिर आग को घूरे में दबा देते | यह आग मौसम-निरपेक्ष होकर सुबह तक बची रहती जिससे चूल्हे जलते, चिलम के तम्बाकू पर रखी जाती | एक बात याद रखने की है कि आग, आग लगाने के लिए नहीं मांगी जाती थी | दंगे फैलाने के लिए आग नहीं मांगी जाती थी | ग्रामीण समाज में समरसता होती , सहअस्तित्व का जीवन होता | परस्पर-निर्भरता की भावना लोगों के जीवन को संचालित करती | जाति में बंटे और आर्थिक असमानता के बावजूद गाँव का जीवन लालित्य से भरा रहता और उमंग से भरे जीवन में एक सांगीतिक लय होता | होली के रंग और दिवाली के जगमगाते दीए लोगों में उमंग भर देते | गाँव आज भी हैं लेकिन शायद आग बचाने की तरक़ीबें बदल गयी हैं | गाँव के लोग शहरों कीओर विस्थापित होते चले गए हैं रोज़गार और बेहतर जीवन की खोज में | गाँव के प्राकृतिक परिवेश से कटकर लोगों का शहरी जीवन उतना खुशहाल है, इस पर संदेह है | प्राकृतिक परिवेश में अभाव का जीवन शहरी जीवन से बेहतर है, खुली हवा, धूप और शारीरिक श्रम से कोई सुविधा बेहतर नहीं हो सकती है | जोगाने और बचाने का आनंद कुछ खास है, ग्रामीण संस्कृति हमें यही सिखाती है | लेकिन शहरी चकाचौंध ने हमें अँधा बना दिया है और हम शहरों की और भागे चले जा रहे हैं | ग्रामीण इलाकों में विकास और समृद्धि लाने के लिए सरकारें अनेकानेक ग्रामीण योजनाएं चला रही हैं लेकिन योजनाएं ठीक से क्रियान्वित नहीं हो रही हैं, भ्रष्टाचार, कदाचार, जानकारीविहीनता, राजनीतिक हस्तक्षेप इत्यादि की वजह से | शहर और गाँव दोनों की गरिमा स्थापित करने के लिए जरुरी है कि गाँव के जीवन को समृद्धशाली बनाया जाए |
आग आग भड़काने के लिए नहीं होती है | आग की विनम्रता को कई कविओं ने अपनी कविताओं में दर्ज़ किया है | आग हमारा भोजन पकाती है (मंगलेश डबराल की एक कविता की पंक्ति )| आग की एक विनम्र और मनुष्योपयोगी इस्तेमाल है | लेकिन पिछले कई वर्षों से राजनीतिक लोग आग से खेल रहे हैं हैं, दंगे फैलाने की गरज़ से, देश में तबाही का मंज़र लाने के लिए, लोगों को बांटने और आपस में लड़ाने के लिए | इन लोगों ने आग और ग्रामीण संस्कृति से कुछ नहीं सीखा है | चुनाव जीतना और राजनीति करना ही अपना राजधर्म बना लिया है | आग की पवित्रता से भी कुछ नहीं सीखा है | यह वही आग है जिसके फेरे लगा के और उसको साक्षी मान कर स्त्री और पुरुष दाम्पत्य जीवन शुरू करते हैं | वही आग है जो मुखाग्नि के रुप में इस्तेमाल की जाती है | ऐसी आग को विध्वंस के लिए कोई कैसे इस्तेमाल कर सकता है | आग बची रहे और इसका इस्तेमाल मनुष्य के जीवन से अंधेरा दूर करने और खाना पकाने के लिए हो |
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