पांच बरस बहुत बरस होते हैं । हिंदी के सुप्रसिद्ध बहुचर्चित सर्वस्वीकृत कवि रघुवीर सहाय की एक कविता की पंक्ति है और वह भारतीय राजनीति की तस्वीर दिखाने वाले आईने सरीखी है । यह कविता आपातकाल के बाद के किसी समय में कभी लिखी गयी होगी। रघुवीर सहाय अपने समय के आगे के समय की राजनीति और समाज को साफ़ साफ़ देखने वाले कवि हैं। पिछली शताब्दी के आखिरी दशक में भारतीय राजनीति का एक ऐसा दौर शुरू होता है जहां राजनितिक दलों में पांच बरस और पांच बरस फिर और पांच बरस के लिए सत्ता में बने रहने की होड़ सी लग गयी और सत्ता में बने रहने के दौरान कुछ नहीं करने की प्रवृति भी उनमे में आ गयी। पांच बरस के बाद पांच बरस और जनता से मांगने की कुप्रवृति राजनितिक रणनीति के रूप में देखने में आई। इसका आभास रघुवीर सहाय की कविता में मिलता है। रघुवीर सहाय आज होते तो जरूर कहते अब किसी दल को पांच बरस नहीं मिलने चाहिय ।
रघवीर सहाय सर्वस्वीकृत कवि इसलिय थे कि उनकी स्वीकृति वामपंथियों में उतनी ही थी जितनी दूसरे पंथियों के बीच थी। अपने बाद की पीढ़ी लेकिन समकालीन कवियों के बीच वे काफी लोकप्रिय रहे जबकि उनमें से अधिकांश वामपंथी थे और उन पर उनका प्रभाव भी गहरा था । वर्तमान राजनीतिक हालात और मार तमाम लोगों की दुर्दशा के समय में रघुवीर सहाय अत्यंत प्रासंगिक हैं। उनकी नजर क्रूर होती सत्ता के चरित्र, लोकतंत्र का माखौल बनाते राजनीतिज्ञों, समाज में बिचौलियों के बढ़ते दब-दबे को देख रही थीं। दिक्कत यह है कि यह समाज अपने साहित्य से रचनात्मक संबंध बनाने के लिए उद्धत होता दिखाई नहीं देता। आदमी के बनने की प्रक्रिया को बदल देने की आकांक्षा उनकी कविता में में देख सकते हैं। दुःख को रोज सहने की विवसता उनकी कविता हमें दिखाती है।
9 दिसम्बर, 1929 के रोज उनका लखनऊ में उनका जन्म हुआ था और 30 दिसम्बर, 1960 की शाम दिल्ली के प्रेस एन्क्लेव वाले उनके फ्लैट में उनका देहांत हुआ। उस दिन वे साठ साल इक्कीस दिन के थे दीर्घआयुता के इस जमाने में साठ साल में मरना अल्पायु में ही मरना कहेंगे। सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध , हँसो हँसो जल्दी हंसो, लोग भूल गए हैं और कुछ पते कुछ चिठियाँ उनके पांच कविता संग्रह हैं जिनके बारे में वे खुद कहा करते थे कि वे पांच छलांगे हैं। अपनी कविता के महत्त्व को वे समझते जानते थे। पत्रकारिता का प्रमाणिक और विश्वसनीय रूप हमारे सामने रखा, भाषा और खबरों दोनों की विश्वसनीयता। उन दिनों उनके संपादन में निकल रहा दिनमान हमारे लिए बौधिक प्रतिष्ठा का प्रतिक था। जो युवा या छात्र दिनमान नहीं पढ़ता उसे बौधिक रूप से पिछड़ा मान लिया जाता । अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं से होड़ ले रहा था दिनमान। दिनमान का संपादन रघुबीर सहाय ने लगभग तेरह वर्षों तक लगातार किया ।
रघुवीर सहाय भीतर से लोकतांत्रिक आलोक से आलोकित थे। इस देश में समता और समाजवाद स्थापित हो, हर तबके के लोग खुशहाल हों, लोग लोकतंत्र को महसूस करें, समाज परिवार राजनीति से पाखंड दूर हो यही उनका लोक दर्शन था। वे पूंजीवादी नहीं थे, मार्क्सवादी भी नहीं थे। उनकी विचारधारा को लेकर लोगों में भ्रम रहता है। वे कहते थे, " लोग कहते हैं कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ लेकिन यह भी कहते हैं कि मेरा काम मार्क्सवादियों ज़रा सा भी कम नहीं है।" पुरातनपंथी परिभाषा के तहत कहा जाता है कि मार्क्सवादी वही है जो संगठन के लिए काम करत्ता है । यह परिभाषा अब जड़ हो चुकी है। जो उपेक्षित दबे कुचले हाशिय पर धकेल दिए गए समाज के अंतिम आदमी की आवाज को पहचानता और शब्द देता है वही मार्क्सवादी है।आने वाले संकट को पहचान लेने की अदभूत क्षमता थी। ' हँसों हँसों जल्दी हंसों' संग्रह की कविताओं के बारे में यह भ्रम होने लगत्ता है कि वे आपातकाल के दौरान लिखी गई होगीं। इस संग्रह में 1967 से लेकर 1974 के बीच लिखी गई कविताएँ हैं। आपातकाल का भान कवि को हो चुका था। यह वही समय है जब आदमी को यह सबूत देना पड़ता कि वह शर्म में शामिल है। ' ऐसे हंसों कि बहुत खुश न मालूम हो/ वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं /और मारे जाओगे ।' रघवीर सहाय लिखते हैं कि आपातकाल के दौरान उन्होंने कोई कविता नहीं लिखी।
रघुवीर सहाय कि कविता के बारे में एक विवाद यह भी है कि ' इसमें काव्य नहीं अखबारी कतरनें हैं।' रघुवीर सहाय ने खुद यह कहकर इसका प्रतिवाद किया कि अखबार में लिखना या खबरनवीसी करना अपनी भाषा उतना ही रचनात्मक है जितना कविता करना । अज्ञेय ने रघवीर सहाय के बारे में लिखा है कि वे चट्टानों पर नाटकीय मुद्रा में बैठने का मोह छोड़ साधारण घरों की सीढियों पर धुप में बैठकर प्रसन्न हैं।
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