गुरुवार, 14 अक्तूबर 2021

 अमेरिका प्रवास

प्रबल नागरिकता बोध  
-मिथिलेश श्रीवास्तव 


रेलवेयार्ड  
हम जहाँ ठहरे थे वह संयुक्त राज्य अमेरिका का विश्व प्रसिद्ध सिलिकॉन वैली है जो कैलिफोर्निआ राज्य का हिस्सा है; यहीं से इलेक्ट्रॉनिक रेवोलुशन शुरू हुआ था. फेसबुक, यूट्यूब संस्थानों के दफ्तर हैं. ज्यादातर दफ़्तर सुनसान दिख रहे थे  क्योंकि उनके कर्मचारी घर से ऑनलाइन दफ्तर कर रहे थे. हमारे घर के पीछे एक रैलयार्ड था  जहाँ से सिर्फ रेलगाड़ियाँ आती जाती हैं. बिजली या डीज़ल के ईंजन इन मालगाड़ियों को लोहे के रेलट्रैक पर खींचते हैं जैसे हमारे देश में लोहे की पटरियों पर ऐसे ईंजन चलते हैं. बहुत दिनों के बाद किसी रेलयार्ड को इतने करीब से देख रहा था  जहाँ रेल शंटिंग दिनभर चलता रहता है. रेलवे की भाषा में शंटिंग उस प्रक्रिया को कहते हैं जिसमें डिब्बों को इधर से उधर किया जाता है.  दिनभर डब्बों की शंटिंग की आवाज़ शोर भरे संगीत की तरह आती जाती है. इस रेलयार्ड से मोटर कारें एक शहर से दूसरे शहर भेजी जाती हैं या दूसरे शहर से इस शहर लायी जाती हैं. मालगाड़ियों का आना जाना या डिब्बों की शंटिंग देखने में अच्छा लगता है और उदास भी करता है. इतने करीब से चलती हुई रेल को तब देखा करता था जब पिता के साथ गांव जाया करते थे. लूप रेललाइन के सिंगल ट्रैक वाले  मीटरगेज (छोटी पटरी ) पर भाप ईंजन से चलने वाली रेलगाड़ी किसी भी स्टेशन पर क्रासिंग के लिए देर रुक जाया करती और हम बच्चे ट्रेन से उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहलते और ईंजन को भी देखते. मालवाहक रैलयार्ड को देख कर उसी तरह के रोमांच से मैं भर गया. कोई अमेरिकी उस रैलयार्ड को देखकर रोमांचित नहीं हो रहा होगा लेकिन विकासशील देश से एक विकसित देश में आकर अपने देश जैसा रेलयार्ड  देखकर रोमांचित कैसे नहीं होता. सुबह की सैर में निकलता और रैलयार्ड के पास आकर देर तक उसे देखता रहता. दिनभर ट्रकों की आवाजाही, दिन मालवाहक रेलगाड़ियों का आना जाना. कोरोना संक्रमण यहाँ भी गंभीर है. भारत की तरह लॉकडाउन यहाँ नहीं हैं लेकिन लोग हिसाब से घरों से निकलते हैं. कोरोना समय में ही मैं अमेरिका आने का फ़ैसला किया था.              

कोरोना काल में भी लोकतांत्रिक तहज़ीबों का पालन 
भारत में सरकारी घोषणा के पहले ही दिल्ली में कोरोना संक्रमण की गंभीरता महसूस होने लगी थी. खबरों में कोरोना संक्रमण के फैलाव और कोरोना से हो रही मौतों के बारे में सुन सुन कर  मन घबड़ाने भी लगा था लेकिन सबसे अधिक घबड़ाहट यह सुनकर  हो रही थी कि अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित पीड़ितों के लिए बिस्तर कम पड़ रहे हैं.  कोरोना संक्रमित मरीज़ बिस्तर की तलाश में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटक रहे   थे और उसी दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा में मर रहे थे.   कोरोना संक्रमण  महामारी में परिवर्तित हो रहा था ,  2020 के मार्च महीने के आखिरी दिनों से घर में एक तरह से क़ैद हो गए थे, दोस्तों, परिचितों और संबंधियों से मिलना-मिलाना जोखिम जैसा लगने लगा. घर से बाहर निकलना ही जोखिम भरा हो गया.  इन्हीं स्थितियों में मैंने अमेरिका जाने का मन बना लिया हालांकि अमेरिका में भी कोरोना संक्रमण की स्थिति गंभीर ही थी. अंतर्राष्ट्रीय हवाई उड़ाने रद्द  हो चुकी थीं. अमेरिका जाते तो कैसे जाते? पता चला कि एयर इंडिया वंदे मातरम नाम से विशेष हवाई उड़ानें उन देशों के लिए आरंभ कर रहा है जहाँ भारतीय नागरिक हवाई उड़ानें बंद होने की वजह से फँसे हुए हैं. बंदे मातरम उड़ानें अमेरिका के शहरों के लिए भी थीं, लेकिन उन उड़ानों की सार्वजनिक घोषणा के पहले ही टिकटें बुक हो जातीं. जानकारों का कहना था कि एयर इंडिया और भारत सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्रालय से बंदे मातरम उड़ानों की खबरें रसूखदारों को पहले ही मिल जाती हैं इसलिए सार्वजनिक घोषणा के पहले ही टिकटों की बुकिंग हो जाती है. एयर इंडिया के बंदे मातरम उड़ानों की मारामारी के बीच  खबर मिली कि अमेरिकी सरकार ने मांग की है कि बंदे मातरम उड़ानों के बदले अमेरिकी एयर लाइनों को  भी उड़ानें भरने की इजाज़त भारत सरकार दे. भारत सरकार और अमेरिकी सरकार के बीच सहमति होते ही अमेरिका के यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानें अमेरिकी शहरों से दिल्ली आने जाने लगीं. यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानों की खबर सचमुच सार्वजनिक रूप से हुई और आम लोगों की पहुँच के भीतर रही. नतीजतन, दिल्ली  से सन फ्रांसिसको की टिकट यूनाइटेड एयरलाइंस में मिल गयी, 22 जुलाई, 2020 की टिकट . लेकिन मन में संदेह के बादल छाए रहे कि कहीं कोरोना संक्रमण के चलते हवाई जहाज में बोर्डिंग पर प्रतिबंध न  लग जाए. मन का संदेह निर्मूल निकला क्योंकि  दिल्ली एयरपोर्ट के टी-3 टर्मिनल पर कहीं किसी ने कुछ भी नहीं पूछा कि क्यों, कहाँ जा रहे हैं; कि कोरोना के लक्षण तो नहीं हैं. बाहरी गेट पर शरीर का तापमान जरूर लिया गया और बक्सों को एक्सरे मशीन जैसी सेनिटाइज़र मशीन से सेनिटाइज़ कराना पड़ा. यूनाइटेड एयरलाइंस के हवाई जहाज में बैठने के पहले उन्हीं के दिए पीपीई किट पहनना पड़ा. पुरे हवाई उड़ान के दौरान और दोनों हवाई अड्डों पर रुके रहने के समय पीपीई किट पहने रहना पड़ा था.  दिल्ली से यूनाइटेड एयरलाइंस की  सन  फ्रांसिस्को की उड़ान शुरू हुई. वह 16  घंटों की सीधी उड़ान थी, दिल्ली से कैलिफोर्निआ राज्य के सन फ्रांसिस्को अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे तक की. मैंने कई बार सोचा कि एयर इंडिया की उड़ानों की ख़बरें सार्वजनिक होने के पहले रसूखदारों को क्यों मिलती थीं, जबकि यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ानों की खबरें सचमुच सार्वजनिक हुई थीं. अमेरिका प्रवास के दौरान मुझे महसूस हुआ की वहां सिस्टम नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं करता बल्कि लोकतंत्र का सच्चा स्वरूप देखने को मिलता है. सरकार का हस्तक्षेप अमेरिकी नागरिक बर्दाश्त नहीं करते; पैसा देते हैं और सेवाएं लेते हैं. इसलिए वहाँ अमीर गरीब या गोरे  काले के कारण भेद भाव नहीं होता. गोरो के मन में कालों के प्रति वैसा ही प्रतिरोधी भाव दिखने को मिलता है जैसे भारत में अगड़ों के मन में दलितों के प्रति भाव रहता है, बावजूद कि कानून और संविधान इस भेदभाव की इज़ाज़त नहीं देता. खरीदने की क्षमता है, तो आप भेद भाव के बगैर हर तरह की सेवा लेने के हक़दार हैं. सरकार की भी कोशिश रहती है कि अमेरिकी नागरिक जीवन में न्यूनतम हस्तक्षेप हो. 22 जुलाई 2020 की सुबह दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से यूनाइटेड एयरलाइंस की उड़ान शुरू हुई और लगभग 16 घंटे हवा में रहने के बाद सन  फ्रांसिस्को  अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर वायुवान उतरा, क़रीब क़रीब पांच बजे सुबह.  यूनाइटेड एयरलाइंस के हवाई जहाज के दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उड़ते समय और सन  फ्रांसिसको अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरते समय मन में घबराहट नहीं हुई. घबराहट तो तब भी नहीं हुई जब हवाईजहाज लगभग सोलह  घंटे आकाश में रहा.  अपने यहाँ हवाई जहाज उड़ने से लेकर   लैंडिंग तक घबराहट की एक लकीर मन के ग्राफ पर बनता रहता है और इत्मीनान तब होता है जब हवाई जहाज से बाहर आ जाते हैं. एक भारतीय का अमेरिकी सिस्टम पर इतना भरोसा शायद अच्छा नहीं माना जाएगा लेकिन क्या करें, अमेरिकी पायलटों के प्रशिक्षण और अनुभव,  अमेरिकी तकनीक और अमेरिकी वायुवानों के रखरखाव पर विकासशील देशों के नागरिक अधिक भरोसा करते हैं.  भारत में मार्क्सवादी विचारों के लोग अमेरिका और वहाँ की पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करते, थकते नहीं हैं. शायद हम भूल जाते हैं कि अमेरिका में लोग रहते हैं और हम लोगों की आलोचना नहीं कर सकते, नहीं करना चाहिए. हाँगकाँग में लोकतंत्र और बोलने और विचार करने की आज़ादी की मांग करने वालों और इसके समर्थन में आंदोलन करने वाले लोगों पर जुल्म ढा रहे चीन के ख़िलाफ़ भारतीय मार्क्सवादी लोग कोई आवाज़ नहीं उठा रहे हैं. रूस में एक व्यक्ति के शासन के ख़िलाफ़ हम कोई आवाज़ हिंदुस्तान में नहीं उठाते. हिंदी के एक कवि और प्रोफेसर ठीक ही कहते है कि भारत में हम मार्क्सवादी महँगी कारें खरीदने में ही मार्क्सवाद की सार्थकता देखते हैं. हिंदी के एक आलोचक रवि भूषण का कहना है कि अमेरिकी लोग कमाओ और खाओ की जिंदगी जीते हैं. वे ठीक कहते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि  अमेरिकी कठिन श्रम करते हैं तब जाकर उन्हें एक खुशहाल जिंदगी नसीब होती है. अमेरिकियों के श्रमसाध्य कर्म का ही  फल है कि दुनिया का जीवन आसान हुआ है. सिलिकन वैली के जादू को आज वैश्विक स्तर पर मान्यता मिली हुई है. एक मज़ेदार बात यह है कि यहाँ भारतीय अमेरिकन नागरिकों की संख्या बढ़ती जा रही है पूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने ग्रीन कार्ड और नागरिकता देने की प्रक्रिया धीमी कर दी थी लेकिन उम्मीद है कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति जाय बाइडेन इन प्रक्रियाओं को तेज करेंगे . इस बार तो अमेरिका की उपराष्ट्रपति एक इंडियन अमेरिकी चुनी गयी हैं जिनकी माँ ऊंच शिक्षा के लिए चेन्नई से वहाँ गयी थीं. पढ़े लिखे भारतीयों का अमेरिका पलायन तो हम रोक नहीं पा रहे हैं तो अमेरिका की आलोचना क्यों. प्रीमियर इंजीनियरिंग संस्थानों और मेडिकल कॉलेजों और आई आई एम संस्थानों से पढ़ लिख कर बच्चे अमेरिका जा रहे हैं, मेहनत करते हैं और खुशहाल जीवन अर्जित कर रहे हैं. अमेरिका को लेकर रवि भूषण की टिप्पणी अवांछित लगी. हिन्दुस्तान में भी कमाओ खाओ की संस्कृति तेजी से फ़ैल रही है | गुरुग्राम, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे शहरों में क्या हो रहा है, रवि भूषण से छिपा नहीं होगा. इन शहरों में भी बहुमंजिली इमारतों की संस्कृति फ़ैल रही है.

  सिटी लाइट्स  पुस्तक भंडार
        सन  फ्रांसिसको  अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे से बाहर निकलने से पहले अमेरिकी इमीग्रेशन से गुजरना पड़ता है. इस इमीग्रेशन से बहुत डर लगता है. मन में बेवजह ईश्वर की शरण में जाना पड़ता है. बार बार यही ख्याल आता है कि कहीं किसी वजह से या कोरोना संक्रमण के नाम पर एयरपोर्ट से लौटा न दें.संसार के व्यस्ततम हवाई अड्डों में से यह हवाई अड्डा है लेकिन  इस बार हवाई अड्डे पर सन्नाटा पसरा हुआ था , बहुत कम लोग दिखाई दे रहे थे; जाहिर है इसकी वजह कोरोना संक्रमण है. अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर विश्व भर में प्रतिबंध लग चुका था.  उसीका असर था . एक बार फिर यहाँ आने के अपने फैसले पर मुझे संदेह होने लगा कि ऐसी  महामारी समय में मैं क्योंकर आ गया. अमेरिकन  इमीग्रेशन इस बार सहज लगा; पासपोर्ट देखा, चेहरा देखा, उँगलियों  के निशान लिए, शायद आँखों की पुतलियों की तस्वीर उतारी, पासपोर्ट पर ठप्पा लगाया और जाने का अनुरोध किया. पिछली बार की तरह कोई सवाल नहीं पूछा, मसलन, अमेरिका में क्या करने आ रहे हैं, कब तक रहेंगे,एक नया सवाल  भी कि  कोरोना तो नहीं है इत्यादि. जैसे ही अमेरिकन इमीग्रेशन अधिकारी ने अदब से कहा, जाइए, मैं सामान लेकर भागा; बेवजह डरा हुआ आदमी ऐसे ही भागता है. जुलाई में सन फ्रांसिस्को  हवाईअड्डे के बाहर दिल्ली के दिसंबर महीने जैसी ठंड थी. एक तो बगल में प्रशांत महासागर है जिसके ऊपर से गुजरती हुई बयार ठंडी हो जाती है, दूसरे पहाड़ी इलाका है, तीसरे सन फ्रांसिसको हवाई अड्डा बे-एरिया में है. बे-एरिया प्रशांत महासागर के बैकवाटर्स को कहते हैं ;यह बैक-वाटर्स गोल्डन गेट के नीचे से कैलिफोर्निआ के मेनलैंड में प्रवेश करता है और काफी दूर तक अंदर तक आता है. बे-एरिया इतना बड़ा है कि इस पर कई ज़िले बसे हुए हैं. सन फ्रांसिसको हवाई अड्डे से हमारा निवास लगभग एक घंटे का मोटर का सफर है, जिसमें कई रेड-लाइट्स पड़ते हैं; सड़कें  सुंदर और चौड़ी हैं; सुबह का समय था , तो ट्रैफिक कम थी, कोरोना संक्रमण के समय में घर से काम हो रहा है, इसलिए भी ट्रैफिक कम थी .  सन  फ्रांसिसको शहर विश्व-प्रसिद्ध शहर है जो प्रशांत महासागर के तट पर है. यहाँ अंग्रेजी और अंग्रेजी में अनूदित पुस्तकों की एक बड़ी और विश्व-प्रसिद्ध दुकान है, सिटी -लाइट्स. भाई, मित्र और कवि मंगलेश डबराल ने सिटी लाइट्स का पता दिया था और इसके बारे में तब बताया था जब 2017 में अमेरिका आ रहा था और उन्होंने मुझसे इसरार किया था कि मैं इस पुस्तक भंडार में जरूर जाऊँ. मैं गया था और इस पुस्तक भंडार को देखकर मुग्ध हो गया था. दुनिया भर की भाषाओँ के साहित्य के  अनुवाद की किताबें थी. मंगलेश डबराल ने यह भी बताया था कि जब वे कवि के रूप में अमेरिका के  आयोवा विश्वविद्यालय  में आमंत्रित किए  गए थे तो अन्य देशों के  आमंत्रित कवियों के साथ सन फ्रांसिसको गए थे और उस पुस्तक भंडार में भी गए थे. कोरोना संक्रमण के डर  से इस बार सिटी लाइट्स पुस्तक भंडार जाना नहीं हो पाया. राष्ट्रीय राज मार्गों का संजाल फैला हुआ है. एक राष्ट्रीय राजमार्ग से दूसरे राष्ट्रीय  राजमार्ग , एक निकास मार्ग से दूसरे निकास मार्ग होते हुए निवास की तरफ बढ़ता गया.  सडकों और मार्गों के संजाल में भटक जाने की  संभावना बहुत प्रबल है लेकिन शुक्रिया गूगल का जो सही सही रास्ता बताता  चलता है. गूगल नक्शे के बगैर अमेरिका में अपने गंतव्य तक पहुँचना अमेरिकियों के लिए बहुत मुश्किल लग रहा है. गूगल मैप के सहारे तो अब इंडिया में भी चला जा रहा है और शायद दुनिया भर में. इन्हीं दिनों रवि भूषण से फ़ोन पर बात हुई और वे जानना चाहते थे कि अमेरिका में मैं  कहाँ हूँ . मैंने कहा कि कलिफोर्निआ. उन्होंने फिर पूछा कि कलिफोर्निआ में कहां. मैंने कहा सन फ्रांसिस्को. रवि भूषण ने फिर पूछा सन फ्रांसिस्को में कहा. मैंने कहा सिलिकॉन वैली.  रवि भूषण ने पूछा सिलिकॉन वैली में कहां. रवि भूषण ऐसे पूछ रहे थे जैसे कि अमेरिका का चप्पा चप्पा छान कर गए हैं. उनका ऐसे पूछना उनका कुटिल और जटिल स्वभाव है जो अध्यापक होने और मार्क्सवादी होने से बना है. शायद वे इतना ही समझ पाए कि मैं अमेरिका में हूँ.  मेरे और रवि भूषण के बीच हुई इस निजी बातचीत को सार्वजनिक करना जरूरी नहीं है लेकिन इसलिए बताना पड़ा कि अमेरिका का भूगोल बहुत बड़ा है और जनसंख्या केवल 35 करोड़ और सिलिकन वैली भारतीयों से भरा पड़ा है. इंडियन मार्केट्स हैं जहाँ भारतीय लोगों की ज़रूरतों का भारतीय सामान उपलब्ध है.    

 मंगलेश डबराल का जाना           
                       यूनाइटेड एयरलाइंस का दिया हुआ पीपीटी किट सानफ्रांसिस्को एयरपोर्ट के बाहर ही निकल कर डस्टबिन में फेंक दिया.   जुलाई महीने में दिल्ली से अमेरिका आ गया. कोरोना दोनों जगह ऐसे फैले हुआ था जैसे कि क़यामत आ गयी है और संसार को लील जाएगी.  जनवरी महीने से कोरोना संक्रमण की आहटें हमें सुनाई देने लगी थीं लेकिन उन आहटों को अनसुना करके अपने रोज़मर्रा के कामों में  दिल्ली में अपने आप को खपाते रहे; मार्च के महीने में हमलोग गंभीर होने लगे लेकिन महामारी की गंभीरता तब आयी जब सरकारी आदेशों में गंभीर होने का हुक्म जारी हुआ. उस दिन हमें लगा कि विश्व में कोई ऐसा कीटाणु फ़ैल रहा है जो युद्ध से भी भयानक है, उसकी भयावहता के सामने बाढ़, सूखा  जैसी प्राकृतिक आपदाएं कुछ भी नहीं हैं; उसकी तुलना केवल क़यामत से ही की जा सकती है जिसमें जो बच जाए, सो बच जाए.   रेल, सड़क और हवाई आवागमन के साधनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. दिल्ली में बस, टैक्सी, मेट्रो, थ्रीव्हीलर सरीखे सार्वजनिक यातायात साधनों को बंद कर दिया गया. कोरोना कीटाणु से बचने के लिए हम अपने घरों की चारदीवारी में क़ैद हो गए.  शाम होती तो घर में, सुबह होती तो घर में; किताबें, टीवी और लैपटॉप की दुनिया में हम सिमट गए. कभी किसी मित्र का फोन आ जाता, तो आ जाता; लगता कि फोन पर बात सुन लेने से ही कीटाणु हमारे फेफडों को संक्रमित कर देगा.  उन स्थितियों से ऊबे तो नहीं थे लेकिन अमेरिका जाने का मन बन गया था एक क़यामत से निकल कर दूसरे क़यामत की ओर; वायुयात्रा के लिए वायुयान की टिकट चाहिए और वायुमार्ग खुला नहीं था इसलिए अनिश्चितता बनी हुई थी लिहाजा किसी मित्र को बता नहीं पाया कि अमेरिका जा रहा हूँ | प्रिय कवि और आत्मीय मित्र मंगलेश डबराल को भी नहीं बता पाया क्योंकि मैं जनता था कि ऐसे समय में मेरा अमेरिका जाना उन्हें पसंद नहीं आता और वे अपने आत्मीय तर्कों और तरीक़ों  से  मुझे अमेरिका जाने से रोक देते. खैर, उनको बिना बताए अमेरिका चला गया. अमेरिका के सन फ्रांसिस्को से उनको फोन मिलाता रहा, उन्होंने फोन नहीं उठाया तो मुझे लगा कि वे नाराज़ होंगे लेकिन मेरे फोन के जवाब में उनका फोन आता रहा तो मैं नहीं उठा पाया.  दरअसल जब मैं फोन करता उनके सोने का समय हो जाता और जब वे फोन करते तो मैं  सोया रहता. हम सोये रह गए, बात नहीं हो पायी.  फेसबुक पर उनकी एक टिप्पणी पढ़कर मैं स्तब्ध रह गया था :  उन्होंने लिखा था,            
"हिंदी में जो भीषण ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, घृणा और शत्रुता व्याप्त है उतनी शायद किसी और भाषा में नहीं है लेकिन यह समझना कठिन है कि वह कहाँ से आयी है. अज्ञेय की कविता याद आती है: 'सांप, तुम सभ्य तो हुए नहीं/नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/ एक बात पूछूं--उत्तर दोगे?/ तब कैसे सीखा डँसना/विष कहाँ पाया?' "  मैंने पाया कि इधर  हिंदी के साहित्यकार बेवजह उनसे जलने लगे थे और उनको परेशान करते थे. उन्हीं परेशान करने वालों के लिए उनकी यह टिप्पणी थी. मंगलेश डबराल को अनमना होते महसूस करते हुए  मुझे रघुवीर सहाय की एक कविता याद आयी, जो यों है:

ईर्ष्या 
रघुवीर सहाय 

कितने लोगों ने मुझे बधाई दी 
उन्हें ईर्ष्या थी  उन्होंने मेरे साधारण कर्म को भी 
ऐसा बताया
जैसे कोई बड़ी बात हो जो उनके जीवन में नहीं हुई 
  और होती तो वह उससे भी साधारण 
                                      होने पर बड़ी बात है 

ये वे लोग हैं जो बूढ़े हो गए पर बड़े नहीं हुए 
और इन्हें ईर्ष्या है उससे 
जो बड़ा हो गया पर बूढ़ा नहीं हुआ 

(1989 में लिखी गयी यह कविता उनके संग्रह एक समय था में संकलित है| यह संग्रह उनके मरणोपरांत संकलित हुआ था | ) 
इस कविता को उद्धृत करने के बाद मंगलेश डबराल को फेसबुक पर ही संबोधित करते हुए मैंने लिखा था कि आप तो उनमें से हैं जो बड़ा हो गया, मंगलेश डबराल को मेरी बात अच्छी लगी थी, उनका मन थोड़ा शांत हुआ. अमेरिका के सिलिकॉन वैली में रहते हुए ही उनके कोरोना से संक्रमित होने की सूचना मिली |  हॉं ! उन्हें कोरोना हुआ। शायद वे अस्पताल समय से नहीं गए। दो साल पहले उनकी बाई पास सर्जरी हुई थी । ठीक थे, अचानक अस्पताल ले ज़ाए  गए । सुधार नहीं होने पर एम्स में भर्ती कराया गया । फेफड़ा पूरी तरह संक्रमित हो चुका था। शरीर ऑक्सीजन सोख  नहीं  रहा था; किडनी काम करना बंद कर दिया । डायलिसिस  के समय दो बार हार्ट अटैक  आया। साँस की प्रक्रिया रूक गई। एम्स के डॉक्टरों की लाख कोशिश के बावजूद वे बचाए नहीं जा सके।यह सब कोरोना की वजह से हुआ। समय बहुत भयानक है। यही खबर दिल्ली से आई | मंगलेश डबराल हिंदी के बड़े कवि हैं ; कवि से भी बड़े हम सब के सहारा थे सुख दुःख का | बहुत दुःख हुआ | हमारा मुख्य गायक चला गया। दरअसल मंगलेश डबराल अपने को हमेशा संगतकार ही मानते रहे हम संगतकारों के साथ, बराबरी और लोकतांत्रिक और मार्क्सवादी स्तर पर। कभी ज़रूरत से अधिक न माँगा, न लिया।सच्चा और पक्का। हम सबके प्रिय कवि हैं मंगलेश डबराल जो कोरोना संक्रमण से संघर्ष करते हुए हमारे बीच से चले गए, हमें अकेला, बेसहारा और तड़पता छोड़कर | व्योमेश शुक्ल ने ठीक ही कहा कि बोलने से भरा हुआ मन थोड़ा हल्का होगा|  लिखावट में उनपर ऑनलाइन कार्यक्रम में हमने खूब बोला तो उनका जाना सहने लायक हुआ |  
'आवाज़ भी एक जगह है' मंगलेश डबराल का बहुचर्चित कविता संग्रह है और संगतकार उनकी प्रसिद्ध कविता| अमेरिका में रहते हुए मैंने महसूस किया कि वहाँ  साहित्यकारों का बड़ा सम्मान है।  वहाँ  रहते हुए ही अमेरिकी कवयित्री लुई ग्लुक को नोबल प्राइज मिला| लुई ग्लुक को आम अमेरिकी भी जानते हैं | माया एंजेलो  अमेरिकी ब्लैक कवयित्री हैं जिनकी 2014 में मृत्यु हो गयी थी, बराक ओबामा के राष्ट्रपति के रूप में शपथ समारोह में उन्हें कविता पाठ के लिए बुलाया गया था| भारतीय अपने साहित्यकारों का आदर नहीं करते | मंगलेश डबराल का जीवन संघर्षों से भरा था.  पैसे के लिए काम की तलाश में कठिन संघर्ष करना पड़ा था | रघुवीर सहाय का जीवन ही कौन सा आसान था.  

सुरक्षित स्त्रियाँ 

संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है लेकिन सच्चा लोकतंत्र है जो अपने नागरिकों की पूरी हिफाज़त करता है; स्त्रियों की सुरक्षा और उनके हक़ के प्रति पूरी तरह ईमानदार. पिछले  चार वर्षों से संयुक्त राज्य अमेरिका आना-जाना हो रहा है; अमेरिका आने के पहले हम, साम्यवादी प्रभाव में उसकी  तीव्र आलोचना ही करते आ रहे हैं; एक लेखक के रूप में अमेरिका कभी मनभावन नहीं लगा क्योंकि पूंजीवाद का खुल्ल्म- खुल्ला खेल यहाँ साफ़-साफ़ दिखता है लेकिन यहाँ कि व्यवस्था आकर्षक लगती है. पूँजी की व्यवस्था की बात मैं नहीं कर रहा हूँ; व्यवस्था जिसे अमेरिका के लोगों ने अपने लिए और अमेरिका आने वाले लोगों के लिए बनायी है; अमेरिकी अपनी संरचनात्मक ,सांस्कृतिक और मानवीय व्यवस्था को सबके साथ साझा करते हैं, बिना किसी भेद भाव के ,मसलन, रंगभेद, जातिभेद, पूंजीभेद, लिंगभेद- यह सब उनके जीवन के हिस्से हैं, उन्होंने अपने ऊपर इन्हें ओढ़ा नहीं है. अमेरिका पूँजीवादी जरूर है लेकिन यहाँ हर विचार के लोगों को सराहा जाता है; पूंजीवाद जरूर है लेकिन यही पूँजीवाद  दुनिया को लोकतंत्र, सर्वधर्मसम्मान, और सामाजिक सुरक्षा का पाठ पढ़ाता है.   संयुक्त राज्य अमेरिका का कैलिफ़ोर्निया राज्य  का सिलिकन वैली इलेक्ट्रॉनिक आंदोलन का जनक है. इंटेल, सिस्को, एप्पल,गूगल , फेसबुक, पेपाल , उबर, नेटफ्लिक्स इत्यादि कंपनियों का जन्म इस सिलिकन वैली में हुआ लेकिन अब वे सब अंतराष्ट्रीय कंपनियां हैं और इनके दफ़्तर भारत में भी वर्षों से खुले हुए हैं. अमेरिका का पूजींवादी और वैज्ञानिक विकास ने अपने समाज को साफ़-सुथरा बनाने में भी रचनात्मक सहयोग किया है. साफ़-सुथरा का मतलब स्वच्छता अभियान तक सीमित नहीं है बल्कि अमेरिकियों की सोच और तहज़ीब को भी सुंदर और मानवीय बनाया है. किसी भी अमरीकी इंसान के शरीर और भाव में किसी का अपमान करने की नीयत दिखाई नहीं देती है. यहाँ के संरचना निर्माण में सौंदर्यबोध दिखाई देता है.  लेकिन सबसे अधिक सराहनीय  मूल्य  जो है वह है स्त्रियों के  प्रति सम्मान की  सोच और दृष्टि.  कैलिफ़ोर्निया के बे-एरिया  और सिलिकन वैली के  बाज़ारों ,     दुकानों , गलियों,  कार्यालयों, सार्वजनिक स्थलों , इत्यादि में लड़कियों और औरतों को बेख़ौफ़ होकर घूमते देखना एक सुखद अनुभव सा लगता है. कोई पुरुष किसी स्त्री को देख कर फबती कसने के बारे में सोचता ही नहीं है. उनके आने-जाने पर समय की पाबंदी भी नहीं है. किसी स्त्री को कोई रास्ते में रोककर कोई (पुलिस भी नहीं ) यह नहीं पूछ सकता कि इतनी रात गए वह कहाँ और कैसे अकेली या किसी के साथ घर से बाहर है. स्त्रियों को लोलुप निगाहों से नहीं देखता है.   यह होता है समाज जो अपनी स्त्रियों को एक  बेख़ौफ़ दुनिया और बेवजह की  पाबंदियों से मुक्त करता है. कानून यहाँ भी है लेकिन यहाँ कानून का   ख़ौफ़ नहीं है ; अमेरिकी नागरिक स्वेच्छा से कानून का पालन करते हैं. लड़कियाँ यहाँ सुरक्षित हैं इसका एक पोख्ता प्रमाण है  कि विश्व भर से उच्च शिक्षा के लिए वे यहाँ के विश्वविद्यालयों में आती हैं; अकेले रहती हैं; पढाई करती हैं; नौकरी करती हैं;घर बसाती हैं या अपने वतन सकुशल लौट जाती हैं. सन फ्रांसिसको के गोल्डन गेट पर प्रशांत महासागर को देखते हुए अपना वतन और अपनी दिल्ली याद आते हैं. स्त्री-मुक्ति पर केवल बहसें होती हैं लेकिन हम एक ख़ौफ़विहीन समय, समाज, सड़क, गली, बाज़ार, दुकान, विश्वविद्यालय, यहाँ तक कि एक घर तक नहीं दे पाते हैं. एक समय रहा है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर संस्कृति पर फ़ख्र होता था जहाँ छात्राएं अपने आपको महफूज़ महसूस करती थीं. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्राओं पर लगी बंदिशों के ख़िलाफ़ उनका आंदोलन याद आता है. घर से बेटियां और बहनें  निकलती हैं तो उनके आने तक सासें रुकी रहती हैं. हिंदुस्तान का एक भी शहर या गांव स्त्रियों के लिए महफ़ूज़ नहीं लगता. कब कौन शोहदा फ़बती कस कर निकल जाएगा, कह नहीं सकते. सरकारी दफ़्तरों का तो और बुरा हाल है; उच्चतम न्यायालय के निर्देशों की धज्जियाँ उड़ती ही रहती हैं. भारतीय संघ और राज्य सरकारों के सरकारी अफ़सरों का अमेरिका आना-जाना लगा ही रहता है लेकिन इस मामले में हम अमेरिका से सीखना ही नहीं चाहते।
सन फ्रांसिसको के  गोल्डन गेट पर खड़े खड़े विष्णु खरे की कई कविताएं याद आने लगती हैं जो अपने भारतीय समाज में लड़कियों की स्थितियों पर उन्होंने लिखी हैं. 'लड़कियों के बाप' उनकी कविता है जिसमें लड़कियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित पिताओं की दास्तान है. लड़कियों की सुरक्षा का मतलब यह भी है कि उनको कोई अश्लील निगाह से नहीं देखे, उन पर कोई गंदी फ़बतियाँ नहीं कसे, कि आधे अश्लील इशारों सुझावों और मज़ाकों से हमला न करे . बड़े बाबुओं और अफ़सरों के मज़ाकों से लेकर साइकिल-स्टैंडवालों की अश्लील निग़ाहों से बचाने की कोशिश करते हुए बाप अधमरे ही रहते हैं. लड़कियों की भ्रूण-हत्याएँ, ऑनर -कीलिंग, आज़ाद चेतनाओं की निंदा और हत्या  , पुलिस बर्बरता, बलात्कार, दहेज़-प्रताड़ना, कम शिक्षा या अशिक्षा ,कहाँ तक गिनाएं. 'घर' कविता की मार्मिकता को महसूस करते ही कलेजा फटने लगता है. इसमें एक स्त्री है जो घर-घर जाकर दिन भर बर्तन मांजने का काम करती है और अपने साथ लाए अपने बच्चों को नज़दीक के पार्क में एक पेड़  के नीचे छोड़ जाती है.' एक पांच बरस की लड़की और तीन बरस का लड़का '  दिन भर क्या करते हैं इस कविता को पढ़ कर देखिए. "किसी को परेशान नहीं करते कुछ माँगते नहीं / कुछ मिल जाता है तो मा के आने तक सहेजकर रखते हैं " ऐसे तमाम कामगार माओं और उनके मासूम बच्चों के बारे में सोचिए. कामगार माओं को जिनके काम की कोई सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं है सुबह से शाम तक कितनी अश्लील फ़ब्तियों को सुनना पड़ता होगा; कितनी अश्लील निगाहों की चुभन बर्दाश्त करनी पड़ती होगी. अमेरिकी समाज अपने देश की स्त्रियों का सम्मान करता है, उनके श्रम का सम्मान करता है.  यही सच है  पांच ट्रिलियन वाली अर्थ-व्यवस्था के  सपने देखने के लिए आतुर भारतीय समाज का जो अपनी स्त्रियों की भावनाओं को उचित परिप्रेक्ष्य में देख नहीं पाता है.स्त्रियों की  बदहाली और दुर्दशा  जो भारतीय समाज के लिए एक ऐसा अभिशाप है जिससे सबसे पहले उबरने की जरुरत है.  विष्णु खरे अपने समाज की  रुग्ण मानसिकता को कितनी बारीकी से देखते-समझते हैं .  

सराहनीय चुनावी प्रक्रिया 

स्त्रियां तो अमेरिकी समाज में  महफूज है ही लोकतंत्र की जड़ें भी मज़बूत हैं. इस बार अमेरिका के प्रेजिडेंट के चुनाव के दरम्यान अमेरिका में ही था और गौर से और क़रीब से अमेरिकी लोकतंत्र को देखा. 3 नवंबर को चुनाव हुआ था लेकिन अमेरिका के कई राज्यों ने कोरोना संक्रमण की गंभीरता को देखते हुए पोस्टल बैलट का प्रावधान सबके लिए कर दिया था.  इसलिए पोस्टल बैलट की प्रक्रिया दो महीने पहले ही शुरू हो गयी थी. उस प्रक्रिया के कई स्टेज थे, मसलन, वोटर को पोस्टल बैलट के लिए पंजीकरण करना, राज्य सरकार द्वारा वोटर को पोस्टल   बैलट पोस्ट से भेजना और पोस्टल बैलट भरकर सीलबंद लिफाफे में राज्य चुनाव आयोग को पोस्ट से ही भेजना. सिलिकन वैली के कई बाज़ारों में हमने देखा बैलट पेपर बॉक्स लगे थे जहाँ वोटर बैलट पेपर डाल सकते थे. बैलट बॉक्सों पर चुनाव की सूचना कई भारतीय भाषाओँ में लिखे हुए थे, हिंदी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, तेलुगु इत्यादि.  सिलिकन वैली भारतीयों से भरा हुआ है उनमें से ज्यादातर इंडियन अमेरिकन हैं और बाकी अमेरिकी नागरिकता के इंतज़ार में हैं. जीवन सबका खुशहाल है. नए राष्ट्रपति से उम्मीद लगाए हैं कि नागरिकता देने की प्रक्रिया तेज होगी जिसे ट्रंप  प्रशासन  ने धीमा कर दिया था.       
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