बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

 भवानीपुर में सांप्रदायिक और तानाशाही प्रवृत्तियों की  हार

-मिथिलेश श्रीवास्तव  

ममता बनर्जी की जीत 
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की भवानीपुर  विधानसभा सीट से जीत  सिर्फ उनकी जीत नहीं है बल्कि सांप्रदायिक और तानाशाही प्रवृत्तियों की करारी हार है. इस जीत पर ममता बनर्जी को बधाई देते हुए तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र  कडिगम की नेता और सांसद कनिमोझी ने अपने ट्वीटर हैंडल पर कहा है उनकी यह जीत धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए उम्मीद की जीत है.  समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने लिखा है," ये जो ‘ममता दीदी जी’ की जीत है वही तो ‘सत्यमेव जयते’ की रीत है." मार्च महीने में ममता बनर्जी नंदीग्राम विधानसभा से विधानसभा का चुनाव  हार गयी थीं. उन्होंने अपनी हार के पीछे किसी साजिश की बात कही थी. अदालत भी गयी हैं. लेकिन भवानीपुर से जीत हासिल करके उन्होंने तृणमूल कांग्रेस को राजनीतिक संकट से उबार लिया है. निसंदेह इस समय धर्मनिरपेक्ष ताकतों के जीतने की समय की जरूरत है. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने ममता बनर्जी के खिलाफ भवानीपुर में अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था. ये सब धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के एकजुट होने के संकेत हैं. एकजुटता असंभव होनी नहीं है. कई बार एकजुटता आयी है और उसकी विजय भी हुई है.   संविधान और लोकतंत्र की कई पहेलियां समझ में आने के बावजूद अबूझ बनी रहती हैं. संविधान के प्रावधानों में यह साफ़ तौर पर लिखा है कि किसी भी राज्य के राज्यपाल किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त कर सकता है भले ही वह विधानमंडल का सदस्य नहीं है  लेकिन उसे मुख्यमंत्री नियुक्त होने की तारीख से छह महीने के भीतर विधानमंडल का सदस्य बनना होगा और यदि ऐसा नहीं होता तो उसे मुख्यमंत्री के पद से हटना होगा. विधानमंडल का मतलब विधानसभा और विधान परिषद है. कुछ राज्यों का विधानमंडल एकसभाई है और कुछ राज्यों में द्विसभाई है. विधानसभाओं और विधानपरिषदों के लिए चुनाव भारतीय चुनाव आयोग करता है. पश्चिम बंगाल के विधानसभा का चुनाव इसी साल मार्च  महीने में  हुआ था जिसमें तृणमूल कांग्रेस की भारी जीत हुई थी लेकिन उसकी नेता ममता बनर्जी हार गईं . लेकिन वही मुख्यमंत्री नियुक्त हुईं. उनके सामने विधानमंडल का सदस्य छह महीने के भीतर बनने की चुनौती थी. अगर ऐसा नहीं होता तो तृणमूल कांग्रेस के नेतृत्व के सामने भारी संकट पैदा होता. पश्चिम बंगाल का विधानमंडल  एकसभाई है अर्थात सिर्फ विधानसभा है तो यह जरुरी था कि वहां विधानसभा की खाली सीटों पर उपचुनाव हो और ममता बनर्जी चुनाव लड़ें और जीतें. विधानसभा के चुनाव के तत्काल बाद पश्चिम बंगाल की विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास किया कि वहां विधानपरिषद का सृजन हो.  विधानपरिषद के सृजन का अधिकार भारतीय संसद का है जो संविधान में संशोधन करके विधानपरिषद का सृजन करेगा. उस प्रस्ताव के पीछे के मकसद के बारे में  यही कहा गया था कि ममता बनर्जी विधानपरिषद बनने के बाद उसकी सदस्य बन जाएंगी . लेकिन अभी तक पश्चिम बंगाल के विधानसभा के उस प्रस्ताव पर केंद्र की भाजपा सरकार ने कोई कार्यवाही की शुरुआत नहीं की है. तो ममता बनर्जी के लिए विधानपरिषद का रास्ता खुला नहीं. भारतीय चुनाव आयोग उपचुनाव की घोषणा में देरी कर रहा था और तृणमूल की घबराहट बढ़ रही थी. ममता बनर्जी दिल्ली आयीं और उसके कुछ दिनों के बाद चुनाव घोषित हुए. तृणमूल का संकट समाप्त होता दिखने लगा. भवानीपुर विधानसभा सीट से ममता बनर्जी  2011 और 2017 में जीत चुकी थीं लेकिन 2021 में उन्होंने विधानसभा सीट बदल लिया था. नंदीग्राम में कुछ सौ वोटों से हार गयीं. भवानीपुर उपचुनाव में उनकी जीत पर  भारतीय जनता पार्टी  के नेता और प्रवक्ता कहने लगे  कि 'ममता बनर्जी पिछले चुनाव में हारने के बाद मुख्यमंत्री कैसे बनीं. ' भारतीय संसदीय राजनीतिक व्यवस्था में छह महीने के लिए विधानसभा में सदस्य होने की पात्रता रखने वाला कोई भी व्यक्ति मुख्यमंत्री नियुक्त हो सकता है इसमें कोई गैरवाज़िब गैर संवैधानिक मसला नहीं है. ममता बनर्जी पिछले दस वर्षों से पश्चिम बंगाल की  मुख्यमंत्री हैं और मौजूदा विधानसभा में तृणमूल विधायकों का उन्हें पूरा समर्थन है तो वे मुख्यमंत्री बन सकती हैं. बल्कि भारतीय चुनाव आयोग उपचुनावों में देरी करता तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार पर इल्जाम लगता कि ममता बनर्जी को परेशान करने की कोशिश हो रही है. इन उपचुनावों के कारण ममता बनर्जी का संवैधानिक संकट टल गया और भारतीय जनता पार्टी की छवि धूमिल होने से बच गयी. लेकिन यह भी सच है कि ऐसा संकट पहली बार नहीं आया था. हाल में यह संकट उत्तराखंड राज्य में देखा गया जब लोकसभा के सांसद तीरथ सिंह रावत को 10 मार्च,  2021 को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया. उन्होंने संसद से इस्तीफ़ा नहीं दिया था. संवैधानिक रूप से छह महीने के लिए वे मुख्यमंत्री रह सकते थे, सो 116 दिन रहे.  विधानमंडल का सदस्य उन्हें होना पड़ता लेकिन उसकी नौबत नहीं आयी. उसके पहले ही उनको मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया  और त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया गया जो विधानसभा के विधायक हैं. आज़ादी के बाद हुए चुनावों में मोरारजी देसाई विधानसभा का चुनाव हार गए लेकिन उनको महाराष्ट्र (तब महा मुंबई) का मुख्यमंत्री बनाया गया. संविधान के दायरे में रहकर की गयी राजनीति शायद नैतिक सवालों को जन्म नहीं देती है. किन्तु जनहित में होगा राजनीति के हर कार्यवाही में नैतिकता को बहाल करना. एक प्रश्न ममता बनर्जी से हम पूछ ही सकते हैं कि उनके बाद तृणमूल का नेतृत्व कौन करेगा.  यह सवाल कांग्रेस से भी पूछा जा रहा है जहां संकट अभी बड़ा  है.     

कांग्रेस का संकट 

पंजाब में मुख्यमंत्री बदल जाने से कांग्रेस का संकट ख़त्म नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बयान देना पड़ा  है कि उस प्रान्त में मुख्यमंत्री बदलने की अटकलें बेबुनियाद हैं हालांकि वे दिल्ली कई बार बुलाये जा चुके हैं और सांसद और कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी छत्तीसगढ़ जाने वाले हैं. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का यह कहना कि छत्तीसगढ़ छत्तीसगढ़ है सुनने में अच्छा लग रहा है लेकिन कपिल  सिब्बल की वह बात भी याद करने की जरुरत है कि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में कौन फैसले ले रहा  उनको मालूम नहीं है. 23 समूह कांग्रेसियों का एक समूह है जो कहता है कि कांग्रेस को सुधारने की जरूरत है. जी -23  का मतलब  कपिल सिब्बल, ग़ुलाम  नबी आज़ाद, शशि थरूर सरीखे 23 कांग्रेसी हैं जो समय समय पर सोनिया गांधी को कांग्रेस की दशा पर आगाह करते रहते हैं. उनकी मांग है कि कांग्रेस के लिए निर्वाचित अध्यक्ष, कांग्रेस वर्किंग समिति का गठन, केंद्रीय निर्वाचन समिति और कांग्रेस संसदीय बोर्ड का पुनर्गठन. ये सभी संस्थाएं और समितियां पार्टी स्तर की हैं जो इसलिए जरुरी हैं कि पार्टी को अनुशासित और समयाकुल बनाए रखा जा सके और पार्टी की निर्णय क्षमता में बरक़त हो. सोनिया गांधी तदर्थ अध्यक्ष हैं और एक स्थायी अध्यक्ष का चुना जाना सालों से टलता रहा है.  2019 के लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की पराजय की जिम्मेवारी लेते हुए राहुल गांधी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया था यह कहते हुए कि उस लड़ाई को उन्होंने अकेले लड़ा. मध्य प्रदेश में कमलनाथ बनाम ज्योतिरादित्य सिंधिया के संघर्ष में कांग्रेस से सिंधिया का पलायन हुआ और कमलनाथ की मध्य प्रदेश सरकार गिर गयी. कांग्रेस के हाथ से मध्यप्रदेश निकल गया. सचिन पायलट बनाम राजस्थान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच के झगड़े में कांग्रेस की बहुत दिनों तक बदनामी होती रही. शांति तो दिख रही है लेकिन वह ज्वालामुखी पर बैठने के जैसे है. तभी तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को कहना पड़ा है कि उनकी सरकार पांच साल पूरा करेगी और वे 15 से 20 साल तक राजनीति में सक्रिय रहेंगे.  मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के इस वक्तव्य में राजनीतिक जिद्द दिखायी दे रही है हालांकि उनके इस वक्तव्य पर सचिन पायलट की प्रतिक्रिया आयी नहीं है. कांग्रेस का आलाकमान क्या सोचता है, उसकी भी ख़बर नहीं है.  एक बात सामने आ रही है कि कांग्रेस का आलाकमान कांग्रेस को युवा हाथों में देने के लिए बेचैन है. कन्हैया कुमार का कांग्रेस में शामिल होना बड़ी खबर है क्योंकि उनकी वक्तृत्व शक्ति तीव्र है और राजनीतिक हमले भी धारदार हैं लेकिन यह तभी संभव है जब वे कांग्रेस की भीतरी राजनीति से बचाये जा सकें. बुजुर्ग कांग्रेसियों और युवा नेताओं को साथ मिल कर काम करना होगा तभी कांग्रेस संभल पाएगी और प्रतिपक्ष मजबूत होगा. अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव हैं; तो उसको भी कांग्रेस को ध्यान में रखना होगा.  

जन गण मन का लोकधुन  
राजनीति की पेचीदा स्थितियों के बीच मेघालय की एक खबर शुकून देती है.  मेघालय  विधानसभा के अध्यक्ष ने स्थानीय संगीत और वाद्यों के प्रयोग से राष्ट्रगान का नया संगीत बनवाया है जो सुनने में मीठा और अलग अंदाज़ का  है. मेघालय के 60 सदस्यीय विधानसभा के पिछले सत्र के  दौरान इस साल 10 सितंबर को विधानसभा के भीतर इसे बजाया  गया. सत्र की शुरुआत नए धुन में राष्ट्रगान के रिकार्डेड गायन से हुआ. मेघालय के परंपरागत खासी  सितार कादुई-तारा की झंकार 'जन गण मन' के गायन के पहले गूंज उठता है. राष्ट्रगान का यह धुन मेघालय विधानसभा के वेबसाइट पर उपलब्ध है. यूट्यूब पर भी लोगों ने साझा किया है. अब तक जो हमने राष्ट्रगान का  धुन सुना है उससे कहीं बहुत अधिक मीठा और सुरीला धुन है.  शायद देश का पहला राष्ट्रगान का धुन है जिसमें विशिष्ट आदिवासी संगीत और वाद्यों का उपयोग किया गया है. आदिवासी स्पर्श के साथ.   मेघालय राज्य अपनी स्थापना का स्वर्ण जयंती मना  रहा है. इस अवसर के लिए राष्ट्रगान का यह लोकधुन बनवाया गया है.  राष्ट्रगान वही है, लोकधुन भी वही है लेकिन ध्वनि अलग है. राज्य विधानसभा के अध्यक्ष श्री लिंगदोह के अनुसार शायद किसी और राज्य ने इस तरह का धुन नहीं बनवाया होगा. शायद यह जोखिम भरा प्रयोग था लेकिन असाधारण रूप से सफल हुआ है. सीईएमलीह राष्ट्रगान के नए धुन के संगीत निर्देशक हैं.     उन्होंने मेघालय के तीनों ही क्षेत्रों के , खासी हिल्स, जैन्तिया हिल्स और गारो हिल्स, गायकों को राष्ट्रगान के समूह गान में शामिल किया है. जो गायक हैं वे इन्हीं क्षेत्रों से हैं लेकिन उनकी हिंदी अच्छी है. गायन में उस माधुर्य को महसूस कर सकते हैं जिसमें बोल हिंदी के है ध्वनियां हिंदी की हैं लेकिन उच्चारण पर मेघालय की भाषाओं का प्रत्यक्ष प्रभाव है जिसकी वजह से धुन और समूह गायन की मिठास बढ़ जाती है, राष्ट्रगान के समूह गायन में 10 गायक हैं. राष्ट्रगीत गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने बांग्ला में  1911   में लिखा था.   संविधान सभा ने इस गीत को राष्ट्रगान के रूप में 24 जनवरी, 1950  को अपनाया गया. मूल रूप से यह गीत बांग्ला भाषा में  लिखा गया था. लेकिन इसके हिंदी स्वरूप को  राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया गया. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें