बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

 लखीमपुर खीरी  का नरसंहार 

-मिथिलेश श्रीवास्तव 
भारतीय जनता पार्टी के केंद्र सरकार में राज्य गृहमंत्री अजय कुमार मिश्र के बेटे आशीष मिश्र को फ़िलहाल गिरफ़्तार कर लिया गया है. गिरफ़तारी के पीछे देश की विपक्षी दलों की एकजुट आवाज़ और विरोध और संवेदनशील मीडिया की भूमिका अहम रही है. केंद्र और राज्य सरकारें और उत्तर प्रदेश की पुलिस की विनम्र भूमिका काफी संदेहास्पद रही है. जागरूक आंदोलनकारियों की वीडियो साक्ष्यों की वजह से यह मामला जनता के संज्ञान में आयी. सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया और उत्तर प्रदेश की सरकार को फटकार लगायी, रिपोर्ट मांगा और इस केस की छानबीन के लिए किसी तीसरी एजेंसी को सौंपने की बात कही. आशीष मिश्र की गिरफ़तारी के पीछे इतने लोग लगे हुए थे. कांग्रेस के कई नेता लखीमपुर खीरी गए. तृणमूल कांग्रेस के नेता गए. वरुण गांधी ने आवाज़ उठायी. लोकतंत्र में वर्चस्ववादी राजनीतिक व्यवस्था में पुलिस भी लाचार हो जाती है. 
    
सबने देखा लखीमपुर खीरी में आंदोलन कर  रहे किसानों को तेज-रफ़्तार गाड़ी से कुचलने की दुर्घटना. यह दुर्घटना  किसने करायी, इसके बारे में साफ़-साफ़ न तो उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार अथवा पुलिस ने कुछ कहा है. भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने भी कुछ नहीं कहा है . जो सत्ता में हैं और जिनका राज्य की पुलिस और प्रशासनिक तंत्र पर शिकंजा है वे निश्चिंत और निष्क्रिय  बैठे हैं. 42 सेकेंड  का एक वीडियो  दृश्य मीडिया चैनलों पर कई दिनों तक लगातार दिखाया गया है. उस वीडियो को देख कर यह लगता है कि वह हादसा नहीं था बल्कि निर्मम और नृशंस हत्या थी.  यह हत्या किसने करवाई? तर्क एक: भारतीय  राष्ट्रीय   कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और दूसरी प्रतिपक्षी राजनीतिक पार्टियां कृषि कानूनों के  खिलाफ हैं  और किसानों के साथ हैं तो ये गाड़ियां  उनकी नहीं हो सकतीं; तर्क दो: किसान आंदोलन से किसकी प्रतिष्ठा दाव पर है; तर्क तीन: उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव है तो किस पार्टी को चुनावी नुकसान होने की आशंका है; तर्क पांच: किस राज्य सरकार के अधिकारी ने किसानों के सर तोड़ देने का आदेश पुलिस फोर्स को दिया था;तर्क पांच: किस राजनीतिक पार्टी के मंत्री ने किसानों को सबक सिखाने और लखीमपुर खीरी छोड़ने पर मज़बूर कर देने की धमकी दी.लखीमपुर खीरी की नृशंषता की जितनी भी  निंदा   किया जाए, कम होगा. इन सारे तर्कों से एक निष्कर्ष निकलता है कि इसके पीछे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार के नेताओं के बयानबाजियों में इन हत्याओं के बीज हैं जो डेढ़ साल से चल रहे किसान आंदोलन से परेशान हैं. बातचीत का रास्ता बंद है; शर्तें एकदूसरे को मान्य नहीं हैं और मान्य हों भी क्यों. खेती-किसानी को बाज़ार आधारित बनाने की सारी  कोशिशों ने किसानों और किसानी पर आधारित लोगों की हालत को ख़राब ही किया है. किसान आंदोलन पर लगातार हमले हो रहे हैं तो आंदोलन के नेताओं को चाहिए कि वे अपना ख़बरी दस्ता का गठन करें जो आंदोलन स्थल के पांच किलोमीटर तक फैला रहे और ऐसे हमलावरों के आने की सूचना देते रहें. जैसे जैसे उत्तर प्रदेश का चुनाव नज़दीक आता जाएगा किसान आंदोलन को बदनाम करने की साजिशें बढती जाएंगी  और हमले भी. आज़ाद हिंदुस्तान का यह तीसरा बड़ा आंदोलन है, कुशाग्र बुद्धि वाले युवाओं का नक्सलबाड़ी और जेपी के  छात्र आंदोलन  के बाद. इस आंदोलन का विस्तार भी होना चाहिए. कृषि कानूनों की वापसी के मुद्दे के साथ साथ कृषि की बाजार पर निर्भरता कैसे कम हो और कारपोरेट के उत्पादन पर निर्भरता कम हो.    

जनता की भूमिका 
 लोकतंत्र में सबसे बड़ी अदालत जनता होती है जो अंततः तानशाह सत्तावानों को सबक सिखाती है. अपने जीवन काल में ही हमने जनता को कई बार राजनीतिक दलों  को सबक सिखाते  और सज़ा देते देखा है. आपातकाल के दौरान उत्तर भारत के लोग अधिक परेशान  हुए थे  तो आपातकाल के बाद हुए  पहले चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस और उसकी नेता को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. 1977 में ये चुनाव हुए थे जिसमें जनता पार्टी को 302 सीटें मिलीं; कांग्रेस को 164 सीटें मिलीं; बाकी सीटें अन्य दलों को मिलीं. जनता पार्टी में कई दलों का विलय हुआ था.उन विलय हुए दलों में से एक जनसंघ भी था. कांग्रेस की अधिकांश सीटें दक्षिण के राज्यों में मिली थीं. उत्तर भारत में आपातकाल के दौरान ज्यादतियां अधिक हुई थीं; नेताओं की गिरफ्तारियां ज्यादा हुई थीं. बावजूद कि कांग्रेस के समय में राजाओं के प्रिवी पर्स बंद कर दिया गया था, बैंकों का राष्ट्रीयकरण  हुआ था, बांग्लादेश का सृजन हुआ था, सिक्किम भारत का अभिन्न अंग बना लेकिन जनता ने कांग्रेस और इंदिरा गांधी को अपना मानने से इंकार कर दिया. लोकसभा की 302  सीटें  जीतकर  मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. उस सरकार को पांच साल तक चलना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जनता पार्टी के नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा पार्टी से भी बड़ी हो गयी थी और जनसंघ और आरएसएस और जनता पार्टी के बीच दोहरी सदस्यता को लेकर भी सवाल उठे. नतीजन जनता पार्टी कमजोर होने लगी. चुनाव के बाद सरकार बदली और जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन वह सरकार आपसी खिंच तान में लगी रही तो जनता ने जनता पार्टी और उसके नेताओं को सबक सिखाया और इंदिरा गांधी को वापस सत्ता में ले आयी. 1980 में सातवीं लोकसभा के लिए  चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस की भारी जीत हुई. लोकसभा में उसे 377 सीटें मिलीं, जनता पार्टी को 17 सीटें, नवनिर्मित भारतीय जनता पार्टी को 13  सीटें मिलीं. कांग्रेस सत्ता में आयी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी.  1996 के अप्रैल और मई महीनों में 11 वें लोकसभा का आम चुनाव हुआ. ग्यारहवें लोकसभा (15/05/1996-04/12/1997) में  चुनाव परिणाम जब आए तो पता चला कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है हालांकि 163 सीटें जीत   कर भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसे सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन बहुमत साबित करने के पहले ही अटल बिहारी  वाजपेयी को प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा. कांग्रेस को 140 सीटें मिलीं. अटल बिहारी वाजपेयी 13  दिन के लिए प्रधान मंत्री रहे. वाजपेयी जी की सरकार गिर जाने बाद   नेशनल फ्रंट की स्थापना की गयी जिसकी सरकार एच डी देव गौड़ा के नेतृत्व में चली. 1997 में इंद्र कुमार  गुजराल  के नेतृत्व में सरकार बनी. लेकिन बहुमत के अभाव में कोई भी प्रधान मंत्री स्थिर सरकार देने में असफल रहे इसलिए 1998 में लोकसभा के फिर से चुनाव हुए. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिली। जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं। सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपीआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आई। समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिली। क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं। भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे। लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीने में ही गिर गई। एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ। 1996 में सरकार की अस्थिरता शुरू हुई तो कई प्रधानमंत्री बने. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री पहले  टर्म में 13 दिन और दूसरे टर्म में 13  महीने रहे थे. अटल जी भले ही सॉफ्ट हिंदुत्व के पोषक थे लेकिन भाजपा  और उसकी सहयोगी संस्थाएं हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव मचाती रही हैं. राजनीतिक अस्थिरता का सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं प्रवृत्तियों को मिला.  अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सुकोमल और कवि ह्रदय  प्रधानमंत्री को तीसरी बार में बहुमत की मिलीजुली  सरकार बनाने का मौका मिला था. पांच साल में मलिन होती इंडिया को इंडिया शाइनिंग जैसे नारे देने वाले भाजपा नेताओं के हाथ से सत्ता निकल गयी. यह तो जनता ने ही किया. 2004 -2014 के बीच 10 साल तक कांग्रेस की सरकार रही और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री  रहे.  कांग्रेस के दस वर्षों के  शासन में  घोटालों का ऐसा बाजार गर्म हुआ कि भाजपा 2014 में सत्ता  में आ गयी. जनता जब खड़ी होती है तो क्षमा नहीं दंड देती है, इसे याद रखने की दरकार है  यही लकतंत्र की ख़ासियत है. आप चाहे जितना भाषण दें, काम नहीं आता. आपके जुमले काम नहीं आते; आपके ज़ुल्म काम नहीं आते; आपके बड़ बोले नेता काम नहीं आते.  विपक्षी नेता ठीक ही कहते हैं कि किसानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा. 

लखीमपुर खीरी का जन समुदाय 
2011 की जनगणना के अनुसार  लखीमपुर खीरी हिन्दू बहुलता वाला ज़िला  है लेकिन दूसरे संप्रदाय के लोग भी रहते हैं. 76. 55 % हिन्दू हैं, 20% मुसलमान हैं, 2. 35 % सिख हैं. 88.54% लोग गांवों में रहते हैं तो जाहिर है लखीमपुर खीरी ज़िले के लोग कृषि पर निर्भर करते हैं. कृषि प्रधान देश में कृषि प्रधान ज़िले में कृषि आधारित आंदोलन ज़िले के लिए महत्वपूर्ण है. ज़मीन की रक्षा करना किसानों का परम दायित्व है. गांवों को उजाड़ कर कृषि को बर्बाद कर देश को मज़बूत नहीं किया जा सकता है. शायद सब को यह मालूम है कि मास उत्पादन के नाम पर कृषि आधारित ग्रामीण उद्योगों और व्यवसाय को पिछले पचास वर्षों में बर्बाद कर दिया गया. बढ़ईगिरी, लुहारी, मल्लाही, घोंसारी, हरवाही, मवेशीपालन आज सारा कुछ बर्बाद हो गया है. ग्रामीण दांत धोने के लिए नीम का दातुन नहीं, कॉरपोरेट घराने  के टूथपेस्ट इस्तेमाल करते हैं. गोबर और पारंपरिक बीज की जगह बाजार से खाद और बीज खरीद रहे हैं और क़र्ज़ में डूब रहे हैं. ऑर्गेनिक खेती का चलन अब आ रहा है वह क्या है पुरानी खेती की ही वापसी है, नए नाम के साथ. गाँव  का विकास गांव में उपलब्ध संसाधनों के विकास से ही होगा इसके लिए जरूरी है कि किसान अपनी खेती के लिए चिंता रहित रहें और परस्पर रूप से निर्भर रहें. खेती और खेती पर किसी तरह का आक्रमण किसानों को सहन नहीं हो सकता तो किसान आंदोलन वाज़िब है. किसान आंदोलन की तुलना महात्मा गांधी  के चंपारण आंदोलन से किया जा सकता है जहाँ निलहों के आतंक और मुनाफाखोरी का विरोध हुआ था.     

लखीमपुर खीरी का व्यवसाय 
हस्तनिर्मित शिल्प उत्पादन ज़िले के लोगों के लिए जीविका का साधन है. जिले के थारू जनजाति के लोग प्रमुख रूप से इस काम में हैं. इस शिल्प का  निर्यात दुधवा नेशनल पार्क, प्रदेश के विभिन्न जिलों एवं राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है. यह शिल्प का एक प्रमुख पारंपरिक सेक्टर है एवं हस्त एवं कौशल से बने उत्पादों से संबंधित रचनात्मक एवं डिजाइन गतिविधियों पर क्रियान्वित होता है, जिसमे टेक्सटाइल, ठोस सामग्री, पेपर, प्लांट फाइबर आदि के कार्य सम्मिलित है. लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश का एक जिला है. इस जिले की सीमाएं नेपाल से जुड़ी हुई हैं. लखीमपुर खीरी में देश का सबसे प्रख्यात  दुधवा नेशनल पार्क स्थापित है, जो पर्यटन के दृष्टिकोण से उत्तर प्रदेश के लिए काफी महत्व रखता है. यह उत्तर प्रदेश का एक मात्र नेशनल पार्क है. यह पार्क विभिन्न प्रकार की दुर्लभ एवं लुप्तप्राय प्रजातियों जैसे - बाघ, तेंदुआ, स्वैम्प डियर, आदि के लिए एक घर है। तराई क्षेत्र होने के कारण यहां पर बड़े पैमाने पर हरियाली और कई नदियां हैं. लखीमपुर खीरी में गुड़ का उत्पादन बहुत पुराने समय से किया जा रहा है. जनपद में उत्पादित गुड़ खांडसारी की मांग की आपूर्ति स्थानीय प्रादेशिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर अन्य प्रदेशों में भी की जाती है. जनपद में औद्योगिक दृष्टिकोण से गन्ना आधारित इकाइयां  हैं.  गुड़ उद्योग की इकाई में रोजगार की संभावनाएं  हैं. एक इकाई में परोक्ष और अपरोक्ष रूप से कुल लगभग 20 से 25 व्यक्ति को रोजगार मिलता, जो अन्य औद्योगिक इकाइयों की अपेक्षा काफी अधिक है.  लखीमपुर खीरी का बना गुड़ आज भी देश के बहुत से भागों में विपणन हेतु भेजा जाता है |

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें