भारतीय मूल का वैश्विक नागरिक मकबूल फ़िदा हुसैन
-मिथिलेश श्रीवास्तव
2021 का अक्टूबर महीना बीत रहा है. इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि इसी महीने में वर्ष 1996 में मक़बूल फ़िदा हुसैन पर भीषण सांप्रदायिक हमले हुए थे. इस साल इसी महीने शाहरुख़ ख़ान के बेटे आर्यन ख़ान पर नशीली पदार्थों के बहाने कानूनी हमले हुए हैं. इस मामले के अदालत में होने और ज़मानत की अर्ज़ी के मुंबई उच्च न्यायालय में पहुंचने के कारण शाहरूख़ ख़ान की अदाकारी पर जान छिड़कने वालो और सांप्रदायिकता के विरोध में उनके विचारों से साम्य रखने वालों के मन में सैकड़ों सवाल और आशंकाएं हैं. इन्हीं सवालों से हम 1996 में जूझे थे जब सरस्वती की चित्रकृति के बहाने हुसैन पर हमले हुए थे. यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि हुसैन देश छोड़ कर भाग गए थे. हुसैन ने तब साफ़ किया था कि वे अपने वतन भारत से मुहब्बत करते हैं, विदेश में कुछ प्रोजेक्ट करने गए थे. हुसैन की कला और विचारों से असहमत लोग कहते हैं कि हुसैन जान बचाकर विदेश भाग गए. अगर ऐसा था भी तो इसमें ग़लत क्या था. भारतीय संविधान अपने नागरिकों को जीने का अधिकार देता है; विश्व के सभी लोकतांत्रिक देशों में नागरिकों को जीने का हक़ है; नागरिकों के जान की रक्षा व्यवस्था नहीं सकती , तो नागरिकों को अपने तरक़ीब से ही अपना बचाव करना होगा. हम अगर समाज को सही दिशा में नहीं ले जा सकते, तो किसी नागरिक को मरने का मशविरा नहीं दे सकते, अगर हम सांप्रदायिकता के विरुद्ध खड़े नहीं हो सकते तो किसी नागरिक को यह नहीं सकते कि वह जान बचाकर या छुपकर चला गया, धार्मिक प्रतीकों और प्रतिष्ठानों से मुठभेड़ करने से भागने लगे हम तो क्या साजिशों से हम अपने आप को बचा सकते हैं. सवाल है और यह तीखा सवाल है. मैं 1996 की सांप्रदायिक घटनाओं को एक साथ रखकर देखेंगे तो शायद महसूस कर पाएंगे कि हुसैन पर घातक सांप्रदायिक हमले हुए थे.
मकबूल फ़िदा हुसैन सच्चे भारतीय कलाकार थे
अक्टूबर, 1996 और हुसैन
समग्र भारतीय समाज को सांप्रदायिकता के नाम पर बांटने की सोची-समझी रणनीति भारतीय परंपरा, तहज़ीब और समरसता को हिन्दू पहचान देने की कोशिश है. ऐसी कोशिश पहले कभी नहीं हुई थी जो आज दिख रही है.1996 की बात है. 1994 में मक़बूल फ़िदा हुसैन की बनायी हुई सरस्वती की कलाकृति अचानक विवादों में ले आया गया. हिंदूवादी तत्वों ने उस कृति को आधार बनाकर हुसैन को सांप्रदायिक और हिन्दू विरोधी साबित करने की मुहिम चला दी. अहमदाबाद में हुसैन की कलाकृतियों का मान मर्दन किया गया और जला दिया गया. हुसैन के ख़िलाफ़ आरोप लगाया गया कि उन्होंने सरस्वती और दुर्गा के नग्न चित्र बनाकर हिन्दू देवियों का अपमान किया और हिन्दुओं की भावनाओं का तिरस्कृत. मक़बूल फ़िदा हुसैन स्तब्ध थे और शायद समझ नहीं पा रहे थे कि उनके बारे में ऐसी बातें कैसे कही जा सकती हैं. हुसैन की सांप्रदायिक सद्भावना वैश्विक स्तर की थी. विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का वे सम्मान करते थे; यह तो उनकी कलाकृतियों से ही समझा जा सकता है. उस मुश्किल समय में हुसैन अकेले नहीं थे. भारतीय बुद्धिजीवी और प्रगतिशील विचारों के समस्त कलाकार और लेखक उनके समर्थन में खड़े हो गए थे. हिंदूवादियों का आरोप यही था कि हुसैन ने हिन्दू देवी -देवताओं की नग्न कलाकृति बनाकर हिन्दुओं का अपमान किया है. लेकिन कलाकारों और लेखकों की नज़र में उनकी कलाकृति में नग्नता और अश्लीलता नहीं थी. सभी का कहना था कि हुसैन को टारगेट करके भारतीय कला और साहित्य को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश हो रही है. कृष्ण खन्ना , कृष्ण बलदेव वैद, मंजीत बावा, कुमार साहनी और अशोक वाजपेयी ने उस सांप्रदायिक उन्माद को हिंदूवादी राजनीति से प्रेरित बताया था. हुसैन की 'थेओरम श्रृंखला' की कलाकृतियों का विरोध इंदौर में हिंदूवादियों ने किया था. हुसैन इंदौर के ही हैं. थेओरम 120 फुट लंबा कैनवस है जो 7 x 15 आकार के कई पैनलों में विभक्त है. प्रत्येक पैनल में विश्व के प्रमुख धर्मों को रूपायित किया गया है -हिन्दुधर्म , इस्लाम, बौद्ध धर्म , क्रिश्चियनिटी, सिक्ख धर्म, ज़ोरोस्ट्रियनिज़्म, जैनिज़्म, जुडाइसम, और टाओइज़्म. दसवें पैनल में मानवतावाद को चित्रित किया गया है. उस पैनल का मकसद यह दिखाना है कि सभी धर्मों के बुनियाद में मानवतावाद है. हुसैन की इस कलाकृति में धर्मों के सहअस्तित्व और परस्पर आदर भाव को दर्शाया गया है. उस कैनवस को अहमदाबाद के हुसैन-दोषी गुफा में जनवरी, 1995 में ,प्रदर्शित किया गया. अमेरिका के एक कला संग्राहक ने उस पेंटिंग को बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी सृजनात्मक पेंटिंग कहा था और उसकी तुलना पिकासो की गुएर्निका पेंटिंग से की जो स्पेनिश सिविल वार के समय में बनाया गया था. हिंदूवादियों ने पूरे कैनवस के मानवतावादी संदेशों को नज़रअंदाज़ करते हुए एक पैनल को टारगेट किया. जिसमें एक अर्धनग्न स्त्री का रेखांकन था और उसके नीचे सरस्वती लिखा था. भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं को इस बात से घोर आपत्ति थी कि हिन्दू देवी के स्तनों को निर्वस्त्र करके दिखाया गया. अफ़सोस इन कार्यकर्ताओं ने कोणार्क और खजूराहो के भित्तिचित्रों को नहीं देखा होगा जहाँ कामुक आसनों में लिप्त स्त्री पुरुष को दिखाया गया है. सोचने की बात यह है कि यह सब मंदिरों की दीवारों पर दिखाया गया है. आश्चर्य की बात यह थी कि थेओरम श्रृंखला की चित्रकृतियां एक साल पहले कई शहरों में प्रदर्शित की जा चुकी थीं. सरस्वती नाम की कलाकृति हुसैन की जीवनी में छापी जा चुकी थी. सवाल उठा था कि उन कलाकृतियों को विरोध का विषय अचानक क्यों बनाया गया जबकि सारी कलाकृतियां सार्वजनिक डोमेन थीं. महाराष्ट्र की तत्कालीन सरकार के संस्कृति मंत्री प्रमोद नवलकर ने पुलिस को कहा था कि कोई एक ऐसा केस बनाएं जिससे कि हुसैन की गिरफ़तारी हो सके. क्या किसी विशेष मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए ऐसा किया गया था? दो बातों का जिक्र अखबारी कतरनों में मिलता है- एक, रमेश किनी का अफेयर और श्रीकृष्ण आयोग के सामने मधुकर सरपोतदार की पेशी. जुलाई 1996 में पुणे के एक सिनेमा थिएटर में रमेश किनी मरा पाया गया था. रमेश किनी मध्य मुंबई में लक्ष्मीकांत शाह के एक खस्ताहाल मकान में किराएदार था, मकान मालिक उसे घर से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था. शाह राज ठाकरे के बचपन का दोस्त हुआ करता था. आरोप था कि राज और उनके आदमियों ने रमेश का कत्ल उस घर को खाली करवाने के मक़सद से किया था. बाद में इस मामले की जांच सी.बी.आई. से कराई गयी थी, लेकिन सी.बी.आई. ने इस मामले को आत्महत्या बता कर खारिज कर दिया. 1993 दंगों के मामले में एक प्रत्यक्षदर्शी ने मुंबई की एक अदालत में सांसद सरपोतदार की पहचान की थी. बताते हैं कि इन दोनों घटनाओं से ध्यान भटकाने के लिए हुसैन के ख़िलाफ़ हिंदूवादियों को भड़काया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में घुस कर कुछ कलाकृतियों को नुकसान पहुँचाया था. उन कलाकृतियों में से एक कलाकृति हॉलैंड के कलाकार की थी. संग्रहालय को मुआवज़े के तौर पर हज़ारों डॉलर उस कलाकार को देना पड़ा था.
हुसैन के पक्ष में लेखक
हुसैन का जन्म महाराष्ट्र के पंढरपुर में हुआ जोकि वैष्णव तीर्थ का केंद्र है. उनका पालन पोषण ऐसे वातावरण में हुआ जहां उन्हें हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियों को जानने- समझने का अवसर मिला. सरस्वती के नग्न रेखांकन का संबंध 11वीं शताब्दी के दिलवारा के विमला वाशी मंदिर से है. इब्राहिम अल्काज़ी हुसैन पर हुए सांप्रदायिक हमले के एकदम खिलाफ थे. उन्होंने कहा था कि हुसैन भारतीय परंपराओं को इसके धर्मों को, इसकी संस्कृति को वर्षों से देख रहे हैं. और एक ऐसा रूपाकार सृजित कर रहे हैं जो भारतीयों के द्वारा पसंद किया गया है. अल्काज़ी ने कला को प्रमोट करने के खास मक़सद से दिल्ली के आर्ट हेरिटेज कलादीर्घा की स्थापना की थी. अल्काज़ी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के पैट्रन थे जिसके एम एफ हुसैन भी सदस्य रहे. अल्काज़ी मानते थे कि हुसैन की कला भारत की बहु परंपरा से निसृत होती है. हुसैन की कला की व्याख्या करते हुए यह भी कहा गया है कि वे फॉर्म की तलाश करते हैं, कामुकता उनकी कला में नहीं है. सुप्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी हुसैन के पक्ष में बोलते हुए केरल के गुरुवायुर मंदिर में सुबह शाम गाए जा रहे गीत गोविंद के पदों का उल्लेख किया जो कि इरोटिक कविता है जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंग हैं. सीता , पार्वती और देवियों की नग्न या अर्धनग्न प्रतिमाएं और कलाकृतियां बनायी जाती रही हैं. धर्म और संस्कृति के तथाकथित रक्षकों को अपनी संस्कृति और परंपरा का ज्ञान ही नहीं है, हुसैन की कला को देखा भी नहीं होगा, इन्हें अपने धार्मिक परम्पराओं का भी ज्ञान नहीं होगा. फासीवादी ताकतें सबसे पहले संस्कृति को अपना निशाना बनाती हैं. गीव पटेल का कहना था कि आम आदमी की अपनी कोई भावनाएं नहीं होतीं. उनकी भावनाओं को बहकाया-भड़काया जाता है. कलाकार को ऐसी भावनाओं से विचलित नहीं होना चाहिए.
हुसैन एक संपूर्ण कलाकार
25 सालों पहले 1996 के अक्टूबर महीने में सांप्रदायिकता और असहिष्णुता का महा भूचाल हिंदुस्तान की समकालीन कला और समाज में आया था. सांप्रदायिक और हिंदूवादी शक्तियां मकबूल फ़िदा हुसैन के ख़िलाफ़ संगठित होकर देश में हिंसा और आगज़नी फैला रही थीं. अक्टूबर के महीने में पूरा भारत गांधी को याद करने में तल्लीन था. सांप्रदायिक शक्तियां हिंसा और असहिष्णुता फैलाने की वजहें खोजती रहीं. 25 साल पहले यही हुआ था. अपने भीतर हम महात्मा को खोज रहे थे लेकिन भीतर महात्मा नहीं अशांति थी. रोज़-रोज़ इतनी गहरी आक्रामकता का सामना1996 के अक्टूबर महीने में करना पड़ा कि अशांति मन का स्थायी भाव बन गयी. निजी अभिलेखागार में बहुत पुरानी अखबारी कतरनों को देख कर उस महीने का पूरा दृश्य और परिवेश याद आने लगा. वह आक्रामकता राजनीति से उपजी थी; सांप्रदायिकता का भय बहुत तकलीफ़ देने वाली थी. हिंदूवादी शक्तियां कला और साहित्य को पूरी संकीर्णता की दृष्टि से देखती हैं. दरअसल ऐसी शक्तियां प्रगतिशीलता की भाषा समझती नहीं हैं. इसलिए मानव विकास की प्रक्रिया और प्रासंगिकता को भी नहीं समझती हैं.
डॉ भगवत एस गोयल ने हिंदूवादी संप्रदायों को विचार-पुलिस कह कर सम्बोधित करते हुए हुसैन पर हुए हमले को कलाकार की वैचारिक स्वतंत्रता पर प्रहार माना था. 20 अक्टूबर , 1996 के अपने लेख में उन्होंने लिखा था कि भारत के अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन के कुछ चित्रों पर अश्लीलता और धर्मनिंदा का आरोप लगा कर हुसैन को जेल भेजने की तयारी चल रही है। जिन चित्रों को विवाद का मुद्दा बनाया गया था वे कोई नए नहीं थे और उनमें से अधिकांश 1994 में छपी और इला पाल की लिखी पुस्तक बियॉन्ड द कैनवास : एन अनफिनिश्ड पोरट्रेट आफ एम एफ हुसैन में भी छप चुकी थीं . उस समय इन चित्रों को लेकर कोई हो-हंगामा नहीं हुआ और न तथाकथित हिंदुत्व की पवित्रता के तथाकथित पक्षधरों ने उस पुस्तक को प्रतिबंधित करने की मांग की. उस विवाद की शुरुआत हिंदी मासिक पत्रिका 'विचार मीमांसा ' के सितंबर, 1996 के अंक में प्रकाशित डॉ ओम नागपाल के लेख ' मकबूल फ़िदा हुसैन : यह चित्रकार है या कसाई ?' से शुरू हुआ था. उस लेख को शरारतपूर्ण लेख कहा गया. उसका एकमात्र उद्देश्य तथाकथित हिंदुत्व के उन्मादी समर्थकों को उकसाना भर रहा होगा.
हुसैन ने कवि और लेखक पंकज सिंह को दिए अपने इंटरव्यू में अपनी कला के कई राज खोले थे. " मैंने फॉर्म लिया गुप्त काल की मूर्तियों से. सैकड़ों रेखाचित्र बनाये. गुप्त काल में जो मानवीय रूपाकार विकसित हुए और बाद में दक्षिण में ब्रोंज़ में कुछ आया उससे मैंने फॉर्म लिया. फिर लोककला की जो मासूमियत है, उसमें जो भोलापन और आनंद का तत्व है, वह लिया और तीसरी चीज़ थी रंग जिसे मैंने बसोहली और पहाड़ी चत्रकला से लिया. " हुसैन अपनी परंपरा और भारतीय विरासत में निमग्न हैं.
हिंदुस्तान में 1996 में घटी घटनओं से साफ़ प्रामाणित होता है कि राजनीतिक कारणों से मक़बूल फ़िदा हुसैन का विरोध हुआ था. एक कलाकार के रूप में उनकी आलोचना करना संभव नहीं था, तो उनकी रेखाओं पर हमला बोला गया अश्लीलता का आरोप लगाकर. हुसैन ने भारतीय कला के दर्शन, कला परंपरा, कला की विरासत को बहुत गहराई से समझा था. जो कलाकार कला को लेकर अपनी परंपराओं के साथ साथ वैश्विक दृष्टि रखता था वह और उसकी कला अश्लील हो ही नहीं सकती. वे रंगों, रेखाओं और कैनवास के आगे के कलाकार थे. आविष्कार विज्ञान में ही नहीं होते कला में भी होते हैं. हुसैन नए रंग-संयोजन के आविष्कारक थे, नई रेखाओं के आविष्कारक थे. वे एक तरह से सभ्यता समीक्षक थे और चित्रकला से बहुत आगे के कलाकार थे. रंग-संयोजन और रेखा और रेखांकन पर उनकी पकड़ को भारतीय दर्शक और प्रसंशक जादुई प्रभाव सरीखा समझते हैं. भारत की लोक कलाओं से उनका गहरा संबंध उनके जन्म-स्थली पंढरपुर में ही बन गया था. हुसैन घुमन्तु कलाकार रहे इसलिए नए फॉर्म की तलाश में दुनिया भर में घूमते रहते; दुनिया के मशहूर कला दीर्घाओं में घूम-घूम पुरखों की कलाकृतियां देखते और उनका बारीक़ अध्ययन करते और अपने लिए उपयोगी कला सामग्री और तकनीक का अविष्कार करते. मदर टेरेसा पर एक चित्र-श्रृंखला बनाने के लिए उन्हें एक विशिष्ट फार्म की आवश्यकता थी, तो हुसैन देश-दर-देश घूमते रहे और तब तक चित्र बनाना प्रारंभ नहीं किया जब तक कि उनको उपयुक्त फॉर्म मिल नहीं गया. मदर टेरेसा श्रृंखला विश्व-प्रसिद्ध हुआ. हुसैन मुसलमान समुदाय से थे, महान कलाकार रहे, राष्ट्रीय पहचान थी, तो सांप्रदायिक लोगों के लिए वे एक आसान टारगेट थे. संयोगवश हुसैन अकेले नहीं थे, उनके साथ समस्त बुद्धिजीवी और कलाप्रेमी थे.
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में हुसैन के खिलाफ पुलिस कार्यवाही की मांग उठने लगी तो प्रसिद्ध विधिवेता नानी पालखीवाला ने कहा कि हुसैन के ख़िलाफ़ कोई भी कार्यवाही संकीर्णता और अंध दृष्टि से भरी हुई होगी. ऐसा करना कलाकार की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रहार होगा. आनंद दीक्षित ने लिखा था कि असली भारत और भारतीयता सहिष्णुता से ओतप्रोत है, बजरंग दल के गुंडागर्दों ने सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता का सत्यानाश किया है. हुसैन ने अपनी समझ से बुरा नहीं किया. हमारे देश में निर्वस्त्र देवी-देवताओं की भी परंपरा रही है. साथ ही साथ देवी-देवताओं के नग्न-रूपाकारों और उनकी विशेष प्रकृति के अनुरूप पूजा विधि और अनुष्ठान के विधानों का विस्तृत उल्लेख है. सरस्वती को नंगा दिखाने से सरस्वती नगीं नहीं हो सकती. गिरीश कर्नाड हुसैन के ख़िलाफ़ हो रहे हल्ले को फांसीवादी ताकतों का हमला कहा था. बेंगलुरु के कलाकारों ने हुसैन के साथ हो रहे बर्ताव को बर्बरता कहा. अभिव्यक्ति की बुनियादी आज़ादी और अधिकार पर हमला कहा गया. 'उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा था क्योंकि वे मुसलमान थे. '
मक़बूल फ़िदा हुसैन ने एक नग्न स्त्री की आकृति बनायी जिसकी गोद में वीणा की आकृति बनायी और उसे सरस्वती का नाम दिया. हिंदूवादी शक्तियों को भड़कने के लिए इतना ही काफी था. उनके भीतर इतना गुस्सा भड़का कि उन्होंने हुसैन की कलादीर्घा को तहस-नहस कर दिया. उनके इस कुकृत्य की बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखकों ने भरपूर निंदा की. उस समय हुसैन लंदन में थे. गुस्सा इतना भड़का कि हुसैन को लंदन से ही माफ़ीनामा भेजना पड़ा. बजरंग दल और उनकी सहयोगी संस्थाओं ने हुसैन की सरस्वती नामक चित्रकृति में हिन्दू भावनाओं और संवेदनशीलता को आहत और चोट पहुंचाने की दुष्चेष्टा के रूप में देखा. वे इसे बहुमत समुदाय की भावना को आहत करने के रूप में देखा. भावना को आहत करने वाली बात हिंदूवादी संगठनों को ही सूझती है. ये संस्थाएं भय का माहौल बनाती हैं और प्रगतिशीलता की राहों को कमजोर करने की कोशिश करती हैं. उस साल भी यही हुआ था. सरस्वती जैसी दिखने वाली एक कलाकृति को जैसे ही हुसैन ने सरस्वती कहा, कि वे उनपर टूट पड़े. भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से भी ये ताकतें अपनी शक्ति का संचय करती हैं. एक नज़र उस वर्ष की राजनीतिक परिदृश्य पर भी डालना मुनासिब होगा. 1996 के अप्रैल और मई महीनों में 11 वें लोकसभा का आम चुनाव हुआ. चुनाव परिणाम जब आए तो पता चला कि किसी भी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिला है हालांकि भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसे सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन बहुमत साबित करने के पहले ही अटल बिहार वाजपेयी को प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा. उसके बाद नेशनल फ्रंट की स्थापना की गयी जिसकी सरकार एच डी देव गौड़ा के नेतृत्व में चली. 1997 में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी. लेकिन बहुमत के अभाव में कोई भी प्रधान मंत्री स्थिर सरकार देने में असफल रहा. इसलिए 1998 में लोकसभा के फिर से चुनाव हुए. उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 182 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस के खाते में 141 सीटें आईं. सीपीएम ने 32 सीटें जीती और सीपीआई के खाते में सिर्फ 9 सीटें आईं. समता पार्टी को 12, जनता दल को 6 और बसपा को 5 लोकसभा सीटें मिलीं. क्षेत्रीय पार्टियों ने 150 लोकसभा सीटें जीतीं. भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना, अकाली दल, समता पार्टी, एआईएडीएमके और बिजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई और अटल बिहार वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे. लेकिन इस बार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार 13 महीनों में ही गिर गई. एआईएडीएमके ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और देश फिर से एक बार मध्यावधि चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा हुआ था. 1996 में सरकार की अस्थिरता शुरू हुई तो कई प्रधानमंत्री एक बाद एक बने. अटल बिहारी वाजपेयी पहले टर्म में 13 दिन और दूसरे टर्म में 13 महीने रहे थे. अटल जी भले ही सॉफ्ट हिंदुत्व के पोषक थे लेकिन भाजपा और उसकी सहयोगी संस्थाएं हिंदुत्व के नाम पर उपद्रव मचाती रही हैं. राजनीतिक अस्थिरता का सबसे ज्यादा फायदा इन्हीं प्रवृत्तियों को मिला. 1993 में बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद इनका राजनीतिक रसूख बढ़ता गया और बहुमत के सिद्धांत को भारतीय मानस में फैलाया गया. हिंदुओं की भावनाओं को आहत होने की बात इतनी जोर शोर से होने लगी कि कला साहित्य और सांस्कृतिक सक्रियता को नुकसान होने लगा. गुजरात में भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जड़ें भी फैली हुई थीं. 1995 से गुजरात में भाजपा के मुख्यमंत्री रहे-केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता, नरेंद्र मोदी इत्यादि. भाजपा जब सत्ता में होती है तो माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश करती है और जब सत्ता में नहीं होती सत्ता पाने के लिए सांप्रदायिक माहौल बनाती है. देश में राजनीतिक अस्थिरता का सबसे अधिक नुकसान एम एफ हुसैन को हुआ. हिंदूवादी शक्तियों के लिए सांप्रदायिकता सबसे बड़ा राजनीतिक अस्त्र है और इस अस्त्र को चलाने में वे कभी नहीं हिचकते.
1996 में राष्ट्रीय स्तर पर अस्थिरता आ गयी थी जब 11 वें लोकसभा के चुनाव में किसी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला , भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और उसका वोट प्रतिशत लगातार बढ़ रहा था. पार्टी को मजबूत करने के कवायद में भाजपा और उसकी सहयोगी संस्थाएं मौके की तलाश में बैठी रहती थीं , बैठी रहती हैं. साम्प्रदायिकता उनका सबसे बड़ा राजनीतिक अस्त्र हो गया है. मकबूल फ़िदा हुसैन पर सरस्वती नाम की कलाकृति के बहाने आक्रमण राजनीतिक अस्त्र के रूप में 1996 में इस्तेमाल होने लगा. हिन्दुओं को बहुमत समुदाय के रूप में प्रक्षेपित करना उसी राजनीतिक चाल और ढाल का हिस्सा रहा. कलाकारों, पत्रकारों और लेखकों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकारों ने इस बात की वकालत करनी शुरू कर दी कि अब्सोल्युट आज़ादी नाम की कोई चीज़ नहीं होती है. समाज में इस तरह की बहस उसी समय से शुरू नहीं हुआ था लेकिन बहस की तीव्रता बढ़ गयी थी और धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ती जा रही थी.
हुसैन के पक्ष में साहित्यकारों और कलाकारों का स्टैंड स्पस्ट था और वे हुसैन के मुखालफ़त की आड़ में सांप्रदायिकता की आग को साफ़ साफ़ देख रहे थे. अंग्रेजी के भारतीय लेखक मुल्क राज आनंद हुसैन पर हुए हमले को घृणा और अंध पूर्वग्रह से प्रेरित बताया. 21 अक्टूबर, 1996 की अपनी टिप्पणी में उन्होंने लिखा था हुसैन रेखाओं, रंगों और रूपाकारों के जन्मजात प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं. मानवीय दशा से अवगत हैं. ग्रामीण स्त्री को ऊर्जा के रूप में चित्रित किया है, किसी फोटोग्राफर के स्थूल दृष्टिकोण से देखते हुए नहीं. हुसैन लोक और आदिवासी संस्कृति से गहरे परिचित थे. हुसैन ने पौराणिक देवताओं के ऐसे चित्र बनाये हैं जिनमें लोगों की रुचि पुनः जागृत हुई. पाकिस्तान के तानाशाह को बांग्लादेश में पराजित करने के बाद इंदिरा गांधी को दुर्गा के रूप में दिखाया जो महिषासुर को मारती हुई दिखाई गयी हैं. हुसैन दुर्गा, गणेश जैसे देवी देवताओं के चित्र बनाते रहे हैं हुसैन ने एक ऐसी भी बड़ी कलाकृति बनायीं जिसमें संसार भर के धर्मों के प्रतीकों को चित्रित किया है. मुल्कराज आनंद हुसैन के साथ थे. सरस्वती को चित्रित करने के लिए जिस फॉर्म का चुनाव हुसैन ने किया वह ज्ञान के सौंदर्य को रूपायित करता है. जो लोग राम और सीता की भड़कीली वस्त्रों में लिपटी छोटी प्लास्टिक मूर्तियां अयोध्या के मंदिर में लगाना चाहते हैं उन्हें हुसैन की सरस्वती में नग्नता ही दिखायी देगी. ऐसे लोगों को एलोरा की गुफाओं की मूर्तियों और उनकी कामुक मुद्राओं को देखना चाहिए. ऐसे लोगों को एलोरा में शिव और पार्वती की कलाकृति देखनी चाहिए जिसमें उन्हें गृह्य परमानन्द की अवस्था में कैलाश पर बैठा हुआ दिखाया गया है. ऐसे लोग तो अजंता की गुफाओं में कभी गए ही नहीं, जहां डार्क राजकुमारियों की कामुक प्रतिमाएं मौजूद हैं. खजुराहो के मंदिरों की दीवारों के मूर्तिशिल्प को भी नहीं देखा होगा जिस पर युवा प्रेमियों की रतिक्रिया और संभोग के दृश्य हैं. हिंदुत्ववादी और साम्प्रदायिकतावादी लोग भारतीय सृजनात्मकता की विरासत को समझना ही नहीं चाहते और कला में उस सृजनात्मकता को अपने समय में चित्रित करने वालों को नज़रअंदाज करना चाहते हैं. हिंदूवादी सोच की वकालत करने वालों की निंदा होनी चाहिए क्योंकि वे सांस्कृतिक विरासत की अनदेखी करते हैं और अंध सांप्रदायिक द्वेष और घृणा फैला रहे हैं. इन बातों से यह साफ़ होता है कि हिंदूवादी सोच प्रगतिशीलता में बाधक है. कला, साहित्य और नृत्य प्रगतिशील नहीं होंगे तो समाज बदलेगा कैसे. नृत्य की भंगिमाओं को ही लें. अगर नृत्य पोस्चर को हिंदूवादी नजरिए से देखें तो सारे नृत्याशान अश्लील ही लगेंगे. ए एन धर हुसैन से ही अपेक्षा कर रहे थे कि उन्हें बंद कमरे के पीछे बैठ कर सरस्वती की रचना करनी चाहिए. भारत के हिन्दू धर्मपरायण हैं और उनकी भावनाएं ऐसी बातों से आहत होने लगती हैं. ए एन धर से सहमत नहीं हुआ जा सकता.
यह पहचानना मुश्किल नहीं था कि हुसैन के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक विद्वेष कौन फैला रहा था. कलाकारों ने विरोध दिवस मनाया और सरकार से मांग की कि बजरंग दल के उपद्रवियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही होनी चाहिए जिन्होंने हुसैन की कलाकृतियों को अहमदाबाद में नष्ट किया था. कलाकारों की यह भी मांग थी कि हुसैन और और उनकी कलाकृतियों को समुचित सुरक्षा प्रदान की जाए ताकि बजरंग दल के उपद्रवी कोई नुकसान नहीं कर सकें. उस सांप्रदायिकता के खिलाफ देशव्यापी विरोध हुआ. कृष्ण खन्ना, मनु पारेख ,जतिन दास, अर्पिता सिंह,गुलाम शेख , अकबर पदमसी, परितोष सेन, पुष्पमाला, गीव पटेल, नवजोत अल्ताफ़ और अनेक युवा कलाकारों की बनायी हुई कलाकृतियों के पोस्टर बनाए गए और उन पोस्टरों को तमाम शहरों में लगाया गया ताकि हुसैन की कालकृतियों को नष्ट करने का इरादा रखने वालों का विरोध हो . यह विरोध 18 अक्टूबर, 1996 को किया गया. कला महाविद्यालयों, कला दीर्घाओं, कला संस्थानों को भी बंद रखा गया. रविंद्र भवन में लेखक, कलाकार, कलादीर्घा के मालिक और कला के ख़रीदार एक जगह इकट्ठे हुए और हुसैन का समर्थन किया और कलाविध्वंस और बर्बर व्यवहार को रोके जाने की अपील की. हुसैन को सरस्वती का पुजारी बताया गया. पुजारीपन और श्रद्धा के बगैर सरस्वती को चित्रित करने का फॉर्म प्राप्त ही नहीं किया जा सकता. यह बात सिर्फ अपनी विरासत और परंपरा के जानकार और समझ रखने वाले ही जान सकते हैं. कला के विनाशक इस बात को समझ नहीं सकते. हिंदी के लेखक निर्मल वर्मा ने उस समय कहा था कि जिस लगन और प्रेम से रामायण और महाभारत को हुसैन ने चित्रित किया है किसी और कलाकार ने नहीं किया कृष्ण बलदेव वैद हुसैन की माफ़ीनामा पर बोलते हुए कहा था कि यह सच है कि हुसैन ने माफ़ी मांगी है क्योंकि उनको लगता है कि सरस्वती की निर्वस्त्र रेखांकन से देशवाशियों का दिल दुखा है लेकिन हुसैन ने यह नहीं कहा है उनकी कला में कोई खोट है. राजेंद्र यादव का कहना था कि हुसैन ने एक व्यक्ति के रूप में माफ़ी मांगी है एक कलाकार के रूप में नहीं इसलिए उन्होंने कला से कोई समझौता नहीं किया है. बिस्मिल्लाह खान से क्या हम कह सकते हैं कि वे गंगा के घाटों पर शहनाई बजाना बंद कर दें या कि भजन नहीं गाएं. बी सी सान्याल ने हुसैन की कलाकृतियों को नष्ट करने की घोर निंदा की थी और कहा था कि यह ख़तरनाक प्रवृति है कि जो आपको अच्छा नहीं लगे उसे आप नष्ट कर देंगे. रामचंद्र गांधी ने कहा था कि आपके भीतर इतनी हिंसा भर गयी है कि आज आप कलाकृति नष्ट कर रहे हैं और कल आप मोहल्ला जला देंगे. हुसैन की सरस्वती को नष्ट करने की तुलना रामायण की सीता से किया था कि एक औरत को बार बार अग्नि-परीक्षा से गुजरने की वकालत नहीं की जा सकती. रामचंद्र गुहा ने कवि और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से आह्वान किया था कि कहाँ हैं आप; आप से उम्मीद की जाती है कि कला के अपवित्रीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएंगे. याद कर लीजिए कि वाजपेयी जी कुछ समय पहले ही 13 दिन की सरकार के प्रधानमंत्री थे. बहुमत न होने और संगत न मिलने की वजह से प्रधानमंत्री पद से 13 दिनों में ही इस्तीफा देना पड़ा था. जतिन दास ने तो यहाँ तक कहा कि नग्न या निर्वस्त्र कलाकृतियां मोहनजोदड़ो सभ्यता के समय से बनाया जाता रहा है जहाँ खुदाई में नग्न नर्तकी का मूर्तिशिल्प मिला है. नग्नता कला के प्रत्येक रूप में चित्रित हुई है फिर भी उसे अश्लील नहीं माना गया है.शिवलिंग की पूजा होती है तो क्या शिवलिंग अश्लील हो गया. निर्मल वर्मा ने साफ़ कहा कि आज़ादी पर किसी भी तरह का नियंत्रण या पाबंदी बर्दास्त नहीं की जानी चाहिए. विवान सुंदरम ने इस बात की जरूरत पर जोर दिया कि संस्कृति के स्पेस का बचाव होना ही चाहिए. यह भी याद किया गया: सलमान रुश्दी की किताब पर प्रतिबंध,सफ़दर हाशमी की हत्या,तस्लीमा नसरीन को शरण देने से इंकार सरीखे ऐसे मामले हैं जिससे हिंदुस्तानी हुक्मरानों की मानसिक दशा का पता चलता है. यह इत्तेफाक नहीं था कि हुसैन की कलाकृतियों को नष्ट करने की मुहिम की शुरुआत गुजरात राज्य से हुई जहां भारतीय जनता पार्टी मुश्किलों में थी और उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले थे. सतीश गुजराल ने हुसैन की धर्मनिरपेक्षता और भारतीयता पर सवाल उठाने वालों की तीव्र निंदा की. हुसैन की कला किसी भी चीज़ को अपवित्र नहीं करती है. नग्न और नग्नता में अंतर करने की आवश्यकता है. गुजरात से हिंसक प्रवृतियां दिल्ली तक पहुंची. एक तरफ जहां कुछ कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने हुसैन के चित्रों की प्रशंसा की वहीं दूसरी ओर राष्ट्र सेविका समिति और अखिल भारतीय सनातन धर्म प्रतिनिधि सम्मेलन ने भारी आक्रोश व्यक्त करते हुए हुसैन की कठोर शब्दों में भर्त्सना की. हुसैन के इस कृत्य को राष्ट्र विरोधी कहा गया. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट ने बजरंग दल के कार्यकर्ताओं द्वारा हुसैन की कुछ कृतियों को अहमदाबाद की एक आर्ट गैलरी में नष्ट किये जाने की घटना की कड़े शब्दों में निंदा की. दोषी व्यक्तियों को गिरफ्तार कर उन्हें कड़ी सज़ा दिए जाने की मांग की. पार्टी पोलित ब्यूरो ने एक बयान जारी करके गहरी चिंता व्यक्त की. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के सहयोगी संगठन बजरंग दल द्वारा हुसैन की कथित रूप से चित्रों को आग लगा कर नष्ट करना निंदनीय कृत्य माना.
मक़बूल फ़िदा हुसैन की क्षमायाचना
हुसैन ने लंदन से अपना माफ़ीनामा भेजा था जिसमें साफ़ तौर पर लिखा था , " यदि उनकी किसी कृति से कुछ लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं तो वह इसके लिए क्षमा मांगते हैंं. इन कृतियों के जरिये जान-बुझ कर या सोच समझ कर किसी को आहत करने की मेरी कोई मंशा नहीं थी. ऐसा भी नहीं है कि कला के प्रति मेरा प्रेम कम है, लेकिन मैं इंसानों को अधिक प्यार करता हूं भारतीय परंपरा और धर्म से संबंधित कुछ विवादास्पद कृतियों के कारण कुछ देशवासी उन पर नाराज़ हो गए. " हुसैन की क्षमायाचना हिंदूवादी उपद्रवियों को पसंद नहीं आया और हुसैन उनके टारगेट बने रहे, हुसैन आखिरकार भारत छोड़कर चले गए 2006 में. दोहा और लंदन में रहे, मरने के दिन तक लेकिन स्वदेश लौटने की प्रबल इच्छा उनके भीतर थी भले ही उन्हें सजा हो जाती.
हुसैन का कहना था कि वे स्व-निर्वासन में नहीं हैं, न पुलिस और अदालत के भय से आये हैं. उन्हें भारत के अदालत पर भरोसा है. वे भारत से बाहर आये हैं क्योंकि उन्हें तीन प्रोजेक्टों पर काम करना था. भारत सरकार ने भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों के लिए विशेष सुविधाओं के लिए कानून बनाया है. मैं हूं. अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए 2010 में हुसैन ने बताया था कि वे 2005 में भारत से बाहर आ गए थे।
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