शनिवार, 24 नवंबर 2018


दक्षिण  एशिया की साझी विरासत 


दक्षिण एशिआ के देशों की जनता के बीच साहित्यिक- सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के अनेक तरीक़े गैर-सरकारी स्तरों पर आजमाए जाते रहे हैं ताकि इस क्षेत्र में आपसी मेलजोल बढे और लोग अपने दुःख-सुख साझा करने में सकुचाये नहीं और यह भी कि वे अपनी सरकारों पर एक नैतिक दबाव भी बना सके ताकि सरकारें युद्ध और अविश्वास का माहौल बनाने से बचें | पूरा दक्षिण एशिया गैर-बराबरी और ग़रीबी का शिकार है इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि इन देशों के लोग आपस में अमन-चैन के साथ रहें | फउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स & लिटरेचर (फोसवाल ) इन देशों के लेखकों और कविओं और कलाकारों के ज़रिए इन देशों के बीच साहित्यिक और सांस्कृतिक वातावरण बनाने में काफ़ी सफल रहा है | हर साल इन देशों  में से किसी एक देश के किसी एक शहर में फोसवाल के लेखकों और  कविओं का कम-से-कम चार दिनों की मज़लिस लगती है जिसमें चारों दिन शांति प्रेम सदभाव सरीखे विषयों पर बहसें होती हैं और कविता पाठ होते हैं |  लेखक अपने देशों की परंपरा और समकालीन हालातों पर विस्तार से चर्चा करते हैं | पंजाबी की कथाकार अजित कौर फोसवाल की अध्यक्षा भी हैं और इस अभियान की नेता भी | 
फउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स & लिटरेचर (फोसवाल ) का हाल ही में  साउथ एशियाई लिटरेचर फेस्टिवल नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ |  उद्घाटन 4 अक्टूबर 2018 को साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष प्रोफेसर चंद्रशेखर कम्बार ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कमलादेवी काम्प्लेक्स में किया | इस अवसर पर प्रोफेसर आशीष नन्दी , मुचकुन्द दुबे, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भुटान, नेपाल, और श्रीलंका के भारत में राजदूत /उच्चायुक्त उपस्थित थे | लगभग 200 कवि, लेखक और विभिन्न विषयों के विद्वान इन देशों से आये थे  और फेस्टिवल के विभिन्न सत्रों में अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया  |  अपने स्वागत भाषण में फोसवाल की अध्यक्षा अजीत कौर ने वाज़िब ही कहा कि " दक्षिण एशिया के लोग आपस में बहुत ही मज़बूती से जुड़े हुए हैं , हमारी परंपराएं, हमारे तीज-त्यौहार, लोक-ज्ञान की पद्धति और लोक-गीतों इत्यादि में काफी कुछ साझा है |" सच है कि सीमाएं, सरहदें और सरकारें हमें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं कर सकतीं | हम लेखकों और कवियों को हमें अपनी साझी विरासत की पहचान हमेंशा करते रहना चाहिए|
7 अक्टूबर, 2018 को चौदहवें सत्र  की अध्यक्षता मैंने की  जिसमें मेरे सहित नौ कविओं ने  अपनी कविताओं का पाठ किया -तीन कवि बांग्लादेश से और छह कवि अपने देश की विभिन्न भाषाओँ से | इस सत्र में मुझे यह लाभ हुआ कि हिंदी भाषा शायद सभी शिरकत  करने वाले कवियों द्वारा समझी गयी क्योंकि इन सम्मेलनों में भाषा एक समस्या है जिसके समाधान की कोशिश फोसवाल के लोग कर रहे हैं  | फिर भी जैसा कि अजित कौर जी का सुझाव था कि सभी लोग पढ़ी जाने वाली रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद ज़रूर ले आएं | इस शर्त की वज़ह से मुझे उन कविताओं का चुनाव मुझे  पहले ही कर लेना पड़ा  जिनका  पाठ मुझे करना था और उनके अंग्रेजी अनुवाद भी एक मित्र से करा लिया था  | इस काम को मेरे कवि मित्र संजीव कौशल ने आसान कर  दिया| संजीव कौशल एक बेहद ज़हीन व्यक्ति हैं और मित्रता को अहमियत देते हैं | वे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में  अंग्रेजी भाषा और साहित्य पढ़|ते हैं और कई हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी में किया है ||
साउथ एशियाई लिटररी फेस्टिवल के अंतिम सत्र की अध्यक्षता करने की जिम्मेवारी मेरे ऊपर थी और सत्र शुरू होना था क़रीब 12 बजे  दिन से | मुझे लगा आख़िरी सत्र में भला कितने लोग होंगे | अधिकांश तो दिल्ली घूमने निकल गए होंगे, कुछ लोग ख़रीदारी करने चले गए होंगे | ऐसा ही कुछ सोचता हुआ घर से निकला | कुछ बेफ़िक्री के साथ, कुछ चिंतित होते हुए | कार्यक्रम स्थल बदल गया था | पहले दिन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दिन भर कविता-पाठ और पुस्तकों के गद्य-अंश पढ़े गए | उसके बाद फेस्टिवल अकेडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के परिसर में चला गया | जैसे-जैसे देर होने लगी बेफिक्री चिंता में बदलती चली गयी | दिल्ली के सडकों के जाम को देखते हुए मैंने अपनी गाड़ी से जाने का विचार त्याग दिया | सड़क के रास्ते ही जाने का विचार त्याग दिया - न बस से न उबर से  | पांच रूपया देकर टेम्पो से मजेंटा लाइन मेट्रो के पालम स्टेशन पहुंचा और वहां से हौज़खास मेट्रो गया | हौज़खास में येलो लाइन मेट्रो पकड़ कर ग्रीन पार्क पहुंचा | वहां मेट्रो से उतर कर बाहर निकला और एक थ्रीव्हीलर लेकर अकेडमी लगभग साढ़े ग्यारह बजे के क़रीब पहुँच गया | सत्र शुरू होने के आधा घंटा पहले | तबतक वहां शोर मच चुका  था कि मिथिलेश श्रीवास्तव कहाँ हैं | शोर मचा हुआ था उसी बीच मैं वहां पहुंचा | मैंने देखा कि सभी के सभी डेलिगेट पोएट्स और लेखक मेरा इंतज़ार कर रहे थे | कइओं ने लपक कर कहा कि हम आपको सुनने की उम्मीद छोड़ चुके थे, लगा कि आप आज आएंगे ही नहीं | यह सब चल ही रहा था कि मेरे सत्र का समय आ गया और मैं डाएस पर जा बैठा और मंच पर बांग्लादेश और इंडिया के विविन्न भाषाओँ के कविओं को मंच पर आमंत्रित किया | सत्र की शुरुआत मैंने यह कह कर किया कि  दक्षिण एशिया के हमलोग आपस में  कई विरासतों के साझीदार हैं | मिथक, परंपराएं, तीज-त्योहार लोक-ज्ञान और लोक-विमर्श हमारी सांस्कृतिक पहचान के साझे तत्व हैं | हम भाषा जो भी बोलते हैं , बात एक जैसी बोलते हैं -अहिंसा , मानवता और उदारता | इस तरह कविता-पाठ शुरू हुआ | 

फोसवाल के इन कार्यक्रमों में मैं कई बार बुलाया जा चूका हूँ, दो बार आगरा में, एक बार लखनऊ में, दो बार दिल्ली में और एक बार नेपाल के काठमांडू में | हर बार मुझे यही लगा कि    हम शांति चाहते हैं | विश्व के लोग शांति चाहते हैं | शांति चाहते हैं ताकि विकास के माध्यम से भूख और ग़रीबी पर काबू पाया जा सके और एक समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सके | आज भी, दुनिया के अनेक इलाकों में  अंधकार है, भूख है, ग़रीबी है , गैर-बराबरी है | दक्षिण एशिया में शांति के माहौल में ही लोगों का विकास संभव हो सकता है और यह तभी संभव है यदि पडोसी मुल्क आपस में मैत्री - भाव विकसित करें और उसकी जड़ों को मज़बूत करें | शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व केवल विकास के लिए ही नहीं चाहिए बल्कि साहित्य, कला और संस्कृति के विकास के लिए भी चाहिए और अमन-चैन के लिए भी | लेकिन हम पाते  कि आम-लोग शांति चाहते हैं और भाईचारा के साथ रहना पसंद करते हैं जबकि सियासतें अपने नफ़े के लिए युद्ध का उन्माद पैदा करती हैं और लोगों की भावनाओं को विकृत करके वैश्विक परिदृश्य में पेश करती हैं  ताकि लोगों की  उन्हें सहानुभूति मिलती रहे | लोगों की वास्तविक भावनाओं का पता तब लगता है जब देशों के लेखक और साहित्यकार आपस में मिलते हैं और अपना-अपना हाल बताते हैं |  इन देशों के लेखक जब फॉसवाल के मंच पर इकट्ठे होते हैं तो आपस में गले ही  नहीं मिलते हैं, बल्कि युद्ध, हिंसा, धार्मिक उन्माद की  निंदा करते हैं और सियासतदानों को शांति के लिए काम करने के लिए नसीहतें भी  देते हैं| इसमें कोई शक नहीं बल्कि एक यथार्थ है कि दक्षिण एशिया   के इन देशों के लोगों ने लोकतंत्र, आज़ादी और जीवन के लिए लंबा संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं | इनका संघर्ष इनके साहित्य और कविताओं में दिखता  है | 2015 में जयपुर में हुए सूफ़ी महोत्स्व के दौरान इन लेखकों ने एक संकल्प-पत्र जारी किया था, उन संकल्पों में से एक संकल्प यह भी था ," पूरी पृथ्वी को युद्धविहीन घोषित किया जाए | " दक्षिण एशिया के साहित्यकार युद्ध के ख़िलाफ़ खड़े हैं |      
हमारी सरहदों की हद में वे वतन आते हैं  जिनसे भिन्न  भौगोलिक सीमाओं के बावजूद सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से गहरा संबंध है । आर्थिक असमानता तो इस महाद्वीप  की खास विशेषता है  ।विकासशीलता और अस्तित्व का संघर्ष इन देशों की
आपसी समझ का मूलाधार है । जीवन इनमें से किसी भी देश में आसान नहीं है । भौगोलिक विस्थापन से लेकर सांस्कृतिक विस्थापन का दंश इन देशों के लोग झेलते रहे हैं। इस महाद्वीप में  जब से आजादी का बिगुल बजने लगा था तब से इन देशों की विकासशील
अर्थव्यवस्था लोगों को पर्यावरणीय और सांस्कृतिक विस्थापन के लिए मजबूर करती रही है । रोजी रोटी के लिए लोग दरबदर होते ही रहे हैं लेकिन अपने आबोहवा से बिछुड़ने का दर्द रोटी के दर्द  से भी बड़ा और घातक रहा है । गाँव से शहर की ओर लोगों का विस्थापन सरहद के लगभग सभी देशों में रहा है  क्योंकि अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बजाए हुक्मरानों ने शहरीकरण और शहरी अर्थव्यवस्था की ओर रूझान दिखाए । अब हिंदुस्तान में स्मार्ट शहर नीति के बहाने ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को और कमज़ोर करके ग्रामीण-पलायन को बढ़ावा देने की कोशिशें होगी जो भारतीय जन-जीवन के लिए काफ़ी ख़तरनाक होगा |  रोजगार और रोटी की संभावना की तालाश में  भारी पैमाने पर लोग शहरों की ओर चल पड़ते हैं  । सीमित साधनों और कम अवसरों वाले
शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ता जाता है  । जिसकी वजह से कई मानवीय विकृतियाँ पैदा हुईं  हैं । शहरों की अर्थव्यवस्था भी चरमरा गई । पारंपरिक ग्रामीण  अर्थव्यवस्था ,नई शहरी अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विस्थापन की वजह से लोगों के जीवन में अकेलापन ही नहीं  बल्कि सामाजिक सन्नाटा पसर गया | सामूहिक जीवन का मंत्र ही निष्फल हो गया । इसका परिणाम समाज में बढ़ती हुई हिंसा ,अलगाववाद,सीमा पर तनाव ,आतंकवाद ,सैन्यकार्यवाही ,तानाशाही ,इत्यादि मे दिखाई पड़ने लगा ।  अपनी आजादी के समय से ही पाकिस्तान सरहद पर तनाव पैदा करता रहा और झेलता रहा । कहते हैं कि पाकिस्तान हिन्दुस्तान के भीतर आतंकवादी और अलगाववादी प्रवृतियों को बढ़ावा देता रहा हैलेकिन पाकिस्तान के भीतर अशांति बढ़ती रही है खून बहता रहा और जानें जाती रहीं । संतोषजनक बात यह  रही कि दोनों मुल्कों के लोगों के दिलों में सद्भाव बना रहा । संस्कृतिकर्मियों  के दिलों में दोनों देशों के बीच  अमन चमन की इच्छाएँ बनीं रहीं । वे आपस में मेलजोल करते रहे । उनके साहित्य में उनकी कविता में अमन का बिगुल बजता रहा ।
 बांग्लादेश के जन्म का  कारण ही जुल्म और दमन है । पाकिस्तान के तानाशाह हुक्मरानों का बांग्लाभाषी बांग्लादेशियों के साथ बरता गया भेदभाव पाकिस्तानके विरूद्ध विद्रोह को जन्म दिया । विद्रोह बांग्लादेश की आजादी  के संघर्ष में बदल गया । आदमी जब जुल्म को सहने से इन्कार कर देता है और उस प्रतिकार के लिए संघर्ष करने निकल पड़ता है तब तानाशाहों के सामने कोई उपाय बचा नही रहता है । सर छुपाने की जगह की तलाश में लाखों बांग्लादेशी नागरिक विस्थापित होकर भारतीय सरहद को पार कर भारतीय उत्तर -पूर्वी राज्यों में आ बसे । उनका आना उत्तर-पूर्वी समाज में नए किस्म की समस्याओं को जन्म दिया । पाकिस्तानी तानाशाहों की कारगुजारियों का अंजाम लाखों बांग्लादेशियों को तो  झेलना ही पड़ा,  भारतीयों को भी झेलना पड़ा । बांग्लादेश का जन्म हुआ लेकिन वह भीतर से अशांत ही रहा । हिंसा और खूनखराबे का आलम वहाँ भी रहा । अशांत और भरोसे हीन वातावरण में लोगों का जीवन कितनी  अनिश्चितताओं से भरा होता है इसका अनुमान हम लगा सकते हैं क्योंकि हमारा अनुभव जो पंजाब में रहा , जम्मू-कश्मीर में रहा तामिलनाडू में रहा ,उत्तर-पूर्व में रहा  ,वह वैसा ही रहा  है जैसा बांग्लादेश का रहा है ।

         हम हिंसा के किसी भी रूप का समर्थन नहीं कर सकते , किसी भी सूरत में कत्लेआम के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते । तमिलवंशियों और श्रीलंकावासियों के बीच की खूनी जंग को हमने अपनी संवेदना पर महसूस किया है ।जम्मू में मारे गए लोगों , श्रीलांकाई तमिलों के प्रति जो भावनात्मक लगाव हम महसूस करते हैं , सिंहलियों के प्रति भी हमारे मन में वही रागात्मक लगाव है । दोनों ही तरफ के लोगों ने जो भुगता है , हमारे लिए  तकलीफदायक रहा है  ।      खूनखराबा तो नेपाल में भी हुआ  । राजशाही का विनाश और  राजनीतिक अस्थिरता के बीच नेपाल आज भी शांति और निदान तलाश रहा है |  इसी अस्थिरता के बीच नेपाल के कवि सार्क लेखकों के बीच आते रहे  हैं ।       राजनीतिक अस्थिरता, विकासशील अर्थव्यवस्था ,आर्थिक असमानता, भौगोलिक और सांस्कृतिक विस्थापन , भूख ,बीमारी ,बेरोजगारी ,इंसान को प्रभावित करती है  और रचना की पृषठभूमि भी तैयार करती है  । सार्क देशों के कवियों की कविताओं में इन स्थितियों की छाया देखी  -सुनी  जा सकती  है ।      विमल नीभा नेपाल के सुप्रसिद्ध कवि हैं, काठमांडू में रहते हैं । उनकी कविता  " अंधेरा "  ( नेपाली  से अंग्रेजी में अनूदित इस कविता को हिन्दी में अनुवाद किया गया है ) में इंसान के इस दर्द को पढ़ा जा सकता  है । अंधेरा मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासद स्थिति है । अंधेरे में कुछ भी हो सकता है। बेजान मूर्तियों से आप टकरा सकते हैं ,सड़क पर पड़े किसी पत्थर से ठोकर खा सकते हैं  ,खुले    मैनहोल के संकरे वृत के भीतर गिरकर फंस सकते हैं । इस उपद्वीप को आर्थिक  राजनीतिक और विकासमूलक  स्थितियां इन्हीं पत्थरों , मूर्तियों , और मैनहोलों की तरह हैं ।विमल नीमा अपने ही देश की स्थितियों की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति  के माध्यम से इस पूरे उपमहाद्वीप  की मानवीय स्थितियों  और त्रासदियों  का आकलन कर जाते हैं।  अंधेरा महान  कविताओं की     , पंक्ति में खड़ी नही है लेकिन अपनी साधारण अभिव्यंजना में एक बड़ी कविता लगती है । लोकतांत्रिक बयार वाले समय में  नेपाल राजशाही का बोझ उठाता रहा और उसके बाद राजनीतिक मंथन से उपजे अराजक हो जाने की हद तक पहुँच जाने की राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हुआ है । परस्पर निर्भरता वाले समय में राजनीतिक अस्थिरता गहरे तीव्रता के भूकंप जैसा है  जो मनुष्य के जीवन में विनाश , भूख और महामारी लाता है  । । यह वही अंधेरी सुरंग है जहाँ से लोग बिखर रहे हैं । बनीरा गिरी की कविता "जख्म "की आखिरी पंक्तियों में यह आवाज आती है कि 'सुनो , तुम्हारा बारूदखाना खाली हो जाएगा , मैं नहीं ।'  के पी रिजाल की कविता ' दीवार ' में दीवार के होने या दीवार के ढहाने के परिणामों के बीच अंतर्द्वन्द चल रहा है । अंतत कवि को विस्मय होता है कि यह देश मूर्तियाँ  चला रहीं हैं ।मुर्तियों की तरह बेजान व्यवस्थाएँ  इंसानियत को किस रसातल में  पहुँचा देंगीं

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