बुधवार, 21 नवंबर 2018


विस्मृति के ख़िलाफ़ एक लम्बा जंग लड़ने की ज़रूरत 

विस्मृति के ख़िलाफ़ एक लम्बा जंग लड़ने की ज़रूरत है, ख़ास के जब ऐसा जंग साहित्य में लड़ने की हो | हमारा उत्तर भारतीय समाज अपने साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को याद रखने की जोहमत बहुत कम उठता है | हमारे  समय के महँ कवि  कवि रघुवीर सहाय को अब उनके जन्मदिन पर भी लोग याद नहीं करते जबकि उनको मरे केवल अठ्ठाइस वर्ष ही हुए | उनके जैसे कवि को दिसंबर महीने में हर साल शहर शहर याद किया जाना चाहिए | रघवीर सहाय का जन्म नौ दिसंबर, १९३१  लखनऊ शहर में हुआ इसलिए वे लखनऊ के हैं, फिर दिल्ली आ गए और इसी दिल्ली में तीस दिसंबर, १९९० को उनका देहावसान हुआ | लखनऊ और दिल्ली शहर कम से कम उन्हें याद करें लेकिन नहीं, हम घनघोर रूप से  समकालीनता से घिर गए हैं और आत्मुग्धता से भी, ऐसे में अगर कोई किसी को याद करता है तो वह उसका बड़ा काम दिखने लगता है |    स्वर्गीय जगदीश चंद्र माथुर का  यह जन्मशती वर्ष है जो चुपचाप उनको याद किये बगैर निकालता चला जा रहा है | एक समाज के  रूप में यह भी हमारी साहित्यिक और  सांस्कृतिक दरिद्रता की निशानी है | अगर उनके  जीवन वृत्त पर एक नज़र हम डालें तो पाएंगे कि उनका जन्म १७ जुलाई, १९१७ के दिन उत्तर प्रदेश के खुरजके शाहजहांपुर में हुआ था, तो इस तरह से उनकी जन्मशती मनाने के सबसे पहला दायित्व उत्तर प्रदेश सरकार की है लेकिन वर्तमान सरकार को मंदिर , मूर्ति और प्रतिमाओं से फुर्सत कहाँ है| एक आदमकद मूर्ति के हकदार माथुर जी भी हैं, अगर उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान को गंभीरता से लिया जाए | १९४१ में आई सी एस की परीक्षा पास कर सिविल सेवा में आ चुके थे और अपने प्रशासनिक जीवन का अधिकांश हिस्सा बिहार में बिताया| १९४९ से १९५५ तक क़रीब छह साल बिहार के शिक्षा सचिव रहे, और नाम के शिक्षा सचिव नहीं रहे बल्कि बिहार के साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए कई साहित्यिक- सांस्कृतिक  संस्थाओं के जन्मदाता रहे, उनकी जन्मशती मनाने की कोशिश बिहार सरकार को भी करनी चाहिए थी | बिहार सरकार उत्तर प्रदेश की सरकार से थोड़ा हट के तो  है ही | क़ाबिलेगौर  बात यह है कि माथुरजी आकाशवाणी छह साल महानिदेशक भी रहे और कहते हैं कि ऑल इंडिया रेडियो को आकाशवाणी का नाम उन्होंने ने ही दिया था, उनकी जन्मशती मनाने की एक जिम्मेवारी  सरकार की भी है और कम से कम उनकी एक आदमकद प्रतिमा दिल्ली के आकाशवाणी परिसर में लगनी ही चाहिए लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि उनकी प्रतिमा लगाने या जन्मशती मनाने से सरकारों को कोई राजनितिक लाभ तो मिलाना नहीं है क्योंकि उत्तर भारतीय लोग अपने साहित्यकारों को चाहते ही कितना है | मुझे नहीं पता कि आकाशवाणी ने  उन्हें इस जन्मशती वर्ष में याद किया कि नहीं !    माथुर जी को इस साल शिद्दत से याद किया अनभै साँचा नाम की एक  अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ने पूरी नीयत और लगन से | 

अनभै साँचा दिल्ली से निकलने वाली साहित्यिक और सांस्कृतिक  पत्रिका है | इसके संपादक की कोशिश रहती है की इसका अंक बिना नागा तीन महीने पर निकल जाए लेकिन संसाधन की कमी अक्सर इसे अनियतकालीन पत्रिका बना देती है | इसके संपादक द्वारिका प्रसाद चारुमित्र  हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक पद से अवकाशप्राप्त हैं | दिल्ली में रहते हैं और जिद्द पर अड़े रहते हैं कि पत्रिका निकालनी ही है |  इस काम में दिल्ली विश्वविद्यालय के कई युवा प्राध्यापक उनको सहयोग करते हैं जैसे कि विक्रम सिंह, बली सिंह, मनोज कुमार सिंह इत्यादि| ये लोग दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में प्राध्यापन का कार्य करते हैं  |  चारुमित्र ने अपने अनथक प्रयास और परिश्रम से कई संग्रहणीय अंक निकाले हैं  | शमशेर बहादुर सिंह  के जन्मशती वर्ष में उनपर केंद्रित अनभै साँचा का विशेषांक संग्रहणीय है | यह अक्टूबर-दिसंबर, 2011 का अंक  है | अनभै साँचा का जुलाई-दिसंबर, 2016 का अंक प्रख्यात आलोचक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी पर केंद्रित है | ऐसे ही संग्रहणीय अंकों की कड़ी में चारुमित्र ने अनभै साँचा के जनवरी-जून, 2018 अंक को स्वर्गीय जगदीश चंद्र माथुर पर केंद्रित किया है | माथुर जी का यह जन्मशती वर्ष है लेकिन भाषा और साहित्य में उनके अवदान को याद करने की फूर्सत इस बृहत्तर हिंदी समाज को नहीं मिली | माथुर जी को याद करने का काम अकेले अभी तक अनभै साँचा ने किया है 168 पृष्ठों का उन पर केंद्रित अंक निकाल कर |

माथुर जी की ख्याति एक सफल नाटककार की रही है | वे बड़े नाटककार तो थे ही, एक बड़े रंगचिंतक और नात्यालोचक भी थे | ध्यान देने की बात यह भी है कि वे एक कुशल प्रसाशक और संस्था-निर्माणक भी थे | बिहार में शिक्षा-सचिव रहे और अपने कार्य-काल के दौरान वैशाली-महोत्सव, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, प्राकृत जैन-शास्त्र, अहिंसा शोध संस्थान, काशीप्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, मिथिला-संस्कृत शोध संस्थान, अरबी- फ़ारसी  शोध संस्थान , नेतरहाट विद्यालय सरीखे संस्थानों का निर्माण करवाया | वैशाली महोत्सव का उन्होंने अपने एक लेख में विशेष रूप से जिक्र किया है |  वे लिखते है कि वैशाली प्रजातंत्र की न्याय व्यवस्था बहुत सिलसिलेवार और सुंदर थी | बौद्धों के सुप्रसिद्ध धर्मग्रंथ 'दीध निकाय ' के हवाले से वे बतलाते हैं कि वैशाली के प्रजातंत्री काज्जिगण बार-बार अपनी सभाएं करते हैं , सभाओं में मिलकर बहुमत से निर्णय लेते हैं; एक राय से काम, करते हैं, उठते-बैठते हैं ; वैशाली के नियमों और विधान के विरुद्ध काम नहीं करते; अपने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करते, और उनकी बात पर कान देते हैं ;स्त्री और कन्याओं पर अत्याचार और ज़बरदस्ती नहीं करते ; जातीय मंदिरों की देख-रेख करते हैं और धर्माचार्यों के सुभीते का ध्यान रखते हैं | ये सातों सिद्धांत  सरकारों के लिए मार्ग-दर्शक हैं एक धर्म-निरपेक्ष सर्व-धर्म हिताय लोक-कल्याणकारी सरकार चलाने के लिए लेकिन तीनों सरकारें 'दीध निकाय ' के केवल जातीय मंदिरों की देख-रेख और  धर्माचार्यों के सुभीते का ध्यान ही रख रहे हैं | वैशाली की शक्ति के मूल-मंत्र थे ये सातों सिद्धांत  | कह सकते हैं की किसी भी लोकतंत्र की नींव इन्हीं  आधारित हैं | वे लिखते हैं कि इन आदर्शों की स्मृति को पुनर्जागरत करने और सामूहिक आमोद-प्रमोद के वातावरण को स्थापित करने के विचार से ही, सन १९४५ से प्रति वर्ष जनसाधारण का एक महोत्सव, वैशाली महोत्सव के नाम से वैशाली के खण्डहरों के पास ही मनाया जाता है |     वर्ष 1955 में आकाशवाणी के महानिदेशक बने तो आकाशवाणी को भारतीय संस्कृति के सच्चे वाहक का रूप दिया | कहते हैं आल इंडिया रेडियो को आकाशवाणी का नाम उन्हीं का दिया हुआ है | इस पत्रिका के संपादक के शब्दों में कहें तो कहना होगा, " अनभै साँचा का यह अंक जगदीश चंद्र माथुर जैसे महत्त्वपूर्ण सर्जक और संस्कृतकर्मी के उचित मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त करेगा | "

अनभै साँचा के इस अंक में जगदीश चंद्र माथुर पर अनेक ऐसे आलेख हैं जो उनके नाट्यकर्म पर समुचित प्रकाश डालते हैं | प्रसिद्ध रंग-निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर के आलेख 'कोणार्क : आज़ादी के बाद का पहला रंगमंचीय नाटक ' में माथुर जी के नाटक कोणार्क के रोमांचक  प्रस्तुतियों का एक सरस इतिहास है | अपने समय के सच को अभिव्यक्त करने के लिए माथुर जी ने मध्यकालीन इतिहास से रूपक उठाया | देवेंद्र राज अंकुर अपने लेख में लिखते हैं, "शायद इसीलिए रचनाकार बार-बार इन स्त्रोतों की ओर लौटते हैं, क्योंकि यहां पहले से कथा का एक प्रचलित एवं  प्रचारित रूप उपस्थित है | अतः उसके लिए यह सुविधा हो जाती है कि वह उसमें से क्या नया खोज कर लाए कि वह उसे अपने समय की आहटों, पदचापों एवं प्रतिध्वनियों से तो जोड़ ही सके, साथ-साथ अपने शाश्वतपन के कारण  हर युग में उसकी सार्थकता बानी रहे | " शाश्वतपन की सार्थकता माथुर जी के 'कोणार्क ' में  देखी  जा सकती है | देवेंद्र राज अंकुर आगे लिखते हैं, " मेरे विचार में नाटक में संवादों का साहित्यिक होना या ना होना उतना मायने नहीं रखता, जितनी यह अपेक्षा या संभावना कि वे अपने भीतर में कितने नए बिम्ब और कितने नए अर्थ व्यंजित कर रहे हैं | इस लिहाज से कोणार्क के संवाद सफल नाटकीय संवाद हैं | " अंकुर जी के शब्दों में हिंदी रंगमंच में एक नयी शैली की खोज और पूरी तरह से भारतीय यथार्थवाद की प्रस्तुतिपरक अवधारणाओं एवं संभावनाओं के प्रतीक रूप में 'कोणार्क ' का महत्त्व सदैव अक्षुण्ण रहेगा | 
रंग आलोचक प्रताप सहगल जगदीश चंद्र माथुर  को आज़ादी के बाद हिंदी नाटक एवं रंगमंच के अग्रदूत मानते हैं | जगदीश चंद्र माथुर हिंदी नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में उस समय प्रवेश करते हैं, जब हिंदी रंगमंच एकदम निष्क्रिय था | उनकी इसी पहल के कारण माना जा सकता है कि 'आधुनिक रंगमंच के जनक भारतेन्दु के बाद फिर एक नयी शुरुआत करने वाले जगदीश चंद्र माथुर ही थे | ' नाटक लिखते हुए वे दृश्य विधान और रंगमंच के स्वरुप आदि की परिकल्पना भी करते चलते थे | डॉ विक्रम सिंह मानते हैं कि जगदीश चंद्र माथुर ने नवीन  नाट्य-चेतना तथा सृजनात्मक रंग-दृष्टि से हिंदी नाट्य साहित्य को समृद्ध बनाने में योगदान दिया है |    इस अंक में बहुत कुछ पठनीय है | विख्यात  कवि स्वर्गीय  शमशेर बहादुर सिंह की स्वर्गीय जगदीश  चंद माथुर पर लिखी एक कविता है | माथुर जी पर लिखा अमृत लाल नागर का लिखा एक लेख है | अमृत लाल नगर लिखते है कि कोणार्क एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था तभी से उसकी धूम मच गयी थी |       

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें