सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

दो कविताएं -मिथिलेश श्रीवास्तव 
बुरा  मानूंगा   

उसने  मान लिया था कि किसी की बात का बुरा नहीं मानूंगा 
यह देश इतना बेगाना है कि उसके  मन को चोट पहुंचाए बिना 
कभी कोई बात करता नहीं तो बुरा क्या मानना 
उसने  अपने आप को संत मान लिया था 
संत! एकबारगी हंसी आयी उसे  अपने आप पर 
लोगों  की बातें  बुरी तो लगती रही हैं 
बुरी लगने की बात मन में दबाए अपने आप को छल रहा था
मन बहलाने की ख़ातिर कभी किसी को दोस्त कह दिया 
कभी कह दिया चलो माफ़ किया 
ख़राब सपने की मानिंद भुलाने की कोशिश करता रहा 
छल का जवाब छल से नहीं दिया जाता वह मन को समझाता रहा 
भई मन तो मन है कब तक समझता रहेगा 
एक दिन विद्रोह होना ही था 
उसने आकाश की ओर हाथ उठाया और चिल्लाया सड़क साफ़ करो 
गली को धो डालो मलबे को उठाकर कहीं फेंक आओ  
उन लोगों का   क्या करोगे  जो रात दिन फेंके हुए मलबे को 
अपने दिमाग में भर कर दुनिया को अपनी उंगली पर नचाने लगते हैं

उनका दोष नहीं  

उनका दोष नहीं वे चाहते थे कि जहां जो हो रहा है 
उसकी ख़बर उनको भेजूं ताकि समय रहते वे कोई ठोस कदम उठा सकें 
मैंने लिखा यहां अंधेरा बहुत है उन्होंने पूछा लिखते समय घडी क्या बजा रही है 
कलाई पर बंधी घड़ी मैंने देखी और कहा रात के आठ बजे हैं 
वे हंसे और बोले रात के आठ बजे अँधेरा नहीं होगा तो क्या उजाला होगा 
जाओ किसी उजाले वाले इलाके में और सुबह होने का इंतजार करो 
उजाले वाले इलाके ढूढ़ते ढूढ़ते भोर हो गयी 
मैंने लिखा भोर हो गयी है और शहर के एक इलाके में इक्कट्ठे होकर लोग नौकरी मांग रहे हैं 
वे फिर हंसे और बोले उनसे जा कर कहो अभी भोर नहीं हुई है, जाकर सो जाएं 
मैंने पूछा मैं क्या बोलूं अगर वे पूछते हैं उठने का समय 
वे हंसे और बोले कहो कि वे लोग हैं उनका उठना पांच साल पर मुनासिब होगा  

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