बुधवार, 21 नवंबर 2018







कविता करते हुए अनायास ही कई बार प्रेमचंद की याद आ जाती है | समझ में नहीं आता ऐसा क्यों होता है | लेकिन यह एक सुखद अनुभव होता है | प्रेमचंद को पढ़ना, उनको समझना, उनके समय की सामाजिक स्तिथियों को महसूस करना, उनके पात्रों की कल्पना करना और आज के तमाम गावों में उन पात्रों  को सजीव देखना  यही बतलाता है हमें कि हमें बहुत बदलना है और स्तिथियों में बदलाव लाना है | विकास के ढिढ़ोरचियों को प्रेमचंद की रचनाओं से बदलाव का पाठ पढ़ना होगा | कवियों और लेखकों की एक संस्था है लिखावट जो है तो अनौपचारिक लेकिन सैकड़ों औपचारिक कविता गोष्ठियों का आयोजन किया है | लिखावट का एक साहित्यिक कार्यक्रम है कैंपस में कविता अर्थात महाविद्यालयों में छात्रों के लिए कविता पाठ आयोजित करना |  दिल्ली के एक महाविद्यालय  
में इसी तरह के कार्यक्रम में मैंने छात्रों से कुछ सवाल किए | पहले मैंने पूछा कि क्या श्रोताओं में सिर्फ हिंदी के ही छात्र हैं या दूसरे विभागों के भी छात्र हैं | जवाब मिला कि संख्या हिंदी वालों की अधिक है लेकिन दूसरे विभागों के विद्यार्थी भी हैं | दूसरा प्रश्न था कि क्या आप लोग प्रेमचंद को जानते हैं | उत्तर मिला कि जानते हैं | अगला प्रश्न था कि आप लोग लमही को जानते हैं | थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जवाब आया कि नहीं | मैंने बताया कि लमही प्रेमचंद का गांव है जहाँ रहकर उन्होंने महान रचनाएं रचीं | मेरा आखिरी प्रश्न था कि क्या आपलोग लमही की यात्रा करना चाहेंगे | कोई जवाब नहीं आया | सभागार में खलने वाली चुप्पी थी | मैं स्तब्ध था कि हिंदी के छात्रों में  लमही को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं है | लेकिन उसी समय मुझे याद आया कि मैंने भी लमही की यात्रा वर्षों तक नहीं की थी | कई बार बनारस जाना हुआ था लेकिन बगल में बसे लमही गांव जाने की न जरूरत समझा न इच्छा हुई | फिर छात्रों को क्या दोष दूँ | वहीं मुझे 2015 की अपनी बनारस यात्रा की याद आयी | 

उस  बार की वाराणसी यात्रा यादगार रही। कई बार वाराणसी आना-जाना हुआ । हर बार सुनता रहा कि प्रेमचंद का गांव लमही वाराणसी से काफ़ी क़रीब है लेकिन उस गांव न जा पाने के अफ़सोस के साथ लौटता रहा हूं । टैक्सी ड्राइवर से पूछा लमही चलना है। हैरत तो नहीं होनी चाहिए थी यह जानकर कि उसे लमही के बारे में कुछ भी नहीं पता है और कि लमही क्यों प्रसिद्ध है लेकिन मैं  हैरान हुआ | वाराणसी और उसके आस-पास के लोगों को लमही आखिर क्यों नहीं मालूम होना चाहिए क्यों नहीं उन्हें मालूम नहीं होना  चाहिए कि हिंदी भाषा के महान कथाकार प्रेमचंद का वह गांव है जहाँ रहकर उन्होंने कालजयी उपन्यासों और कहानियों का लेखन किया जिन्हें पढ़कर हम बड़े हुए | दुःख इस बात का भी कि उनसे बेहतर मैं कहाँ हूं जो इतने सालों तक प्रेमचंद के गांव लमही जाने की फुर्सत नहीं मिली | दरअसल हमारी परवरिश ही ऐसी होती है कि परिवार में कोई बताता ही नहीं है कि लेखकों के गांव , उनकी विरासत की देखभाल में हमें दिलचस्पी लेनी चाहिए | स्कूल और कॉलेज के दिनों में भी इनके महत्व के बारे में कभी कोई बताता नहीं है | स्वाध्याय से साहित्य की ओर बढे तो प्रेमचंद को जाना | उनकी कहानियां और उपन्यास पढ़ा तो उनके महत्व को जाना | मुझे इतना मालूम था कि लमही वाराणसी के पास ही है | टैक्सी ड्राइवर को  मालूम नहीं था कि लमही  का रास्ता किधर से है । उसने मुझसे  आग्रह किया कि अपने किसी मित्र जिसे लमही का रास्ता पता हो से फ़ोन पर बात करा दीजिए । उसकी लमही के प्रति अनभिज्ञता  से इस बात का पता चला कि प्रेमचंद की जन्मभूमि और साहित्यिक कर्मभूमि भारतीय, उत्तर प्रदेश और वाराणसी के पर्यटन के नक्से पर अपनी जगह नहीं बना पाया है वरना क्या वज़ह है कि जो टैक्सी ड्राइवर सारनाथ, विश्वनाथ मंदिर , गंगा घाटों का पता सहजता से जानता है लमही से अनिभज्ञ है । उत्तर भारतीय समाज अपनी परंपराओं और साहित्यिक विरासतों से जिस तरह आज़ादी के बाद से दूरी बनाता गया है, अपने लेखकों और रचनाकारों से अनजान होते गया है लमही और प्रेमचंद के बारे में टैक्सी ड्राइवर की अज्ञानता से मन पर विषाद का कोई बोझ नहीं पड़ा । उन्हीं  दिनों उत्तर प्रदेश में विधान सभा के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर था और हर दल के बड़े-बड़े नेता लोगों से वोट मांगने के लिए प्रचार भाषण कर  रहे थे लेकिन किसी भी दल के नेताओं के भाषणों में उत्तर प्रदेश के साहित्यिक अवदान का कहीं कोई जिक्र नहीं था । विकास और सपनों के सौदागरों को शायद यह नहीं पता कि साहित्यिक-सांस्कृतिक विहीन विकास रचनाशील-मानवीय समाज का निर्माण नहीं  कर सकता । प्रचार भाषणों या चुनावी घोषणा पत्रों में किसी राजनीतिक दल ने यह वादा  नहीं किया कि सरकार बनाने के बाद लमही को राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बना देंगे । राजनेता वाराणसी के घाटों पर आरती करने जा रहे हैं लेकिन मात्र दस किलोमीटर दूर लमही की याद किसी को नहीं आती । राजनीति की साहित्यिक सांस्कृतिक दरिद्रता चुनाव के दिनों में और कचोटने लगती है। काश किसी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र में प्रेमचंद के जन्म-स्थान लमही के बारे में कोई योजना होती।  मैंने अपने प्राध्यापक कवि और वाराणसी-निवासी  मित्र संजय श्रीवास्तव से आग्रह किया कि टैक्सी ड्राइवर को लमही जाने का रास्ता बता दें । वाराणसी से लमही की दूरी दस किलोमीटर है। सड़क पक्की है लेकिन बेमरम्मत होने की दशा की वज़ह से काफ़ी ख़राब अवस्था में थी  । टैक्सी में  बैठे महसूस होता रहा कि किसी उबड़-खाबड़ कच्ची सड़क से जा रहे हैं । जबकि बिडम्बना यह है कि प्रेमचंद का स्मारक बनने के बाद लमही गावं की ज़मीन की कीमत आसमान छू रहा है और वाराणसी शहर लमही तक पहुंच गया है ।  
राजनीतिक रूप से यदि फायदेमंद न हो तो राजनेता किसी भी व्यक्ति को याद नहीं करते हैं भले ही वह व्यक्ति किसी भी विधा का विद्वान रहा हो और उसने भारतीय समाज के उत्थान में महती योगदान दिया हो | सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा लगायी गयी है क्योंकि सरदार का फिलवक्त असरदार राजनीतिक ज़रुरत एक राजनीतिक दल को है | किसी भी राजनीतिक पुरुष की तुलना में किसी साहित्यकार के अवदान को कम कर के नहीं आँका जा सकता है और बात अगर प्रेमचंद की हो रही हो तो यह शत प्रति  शत प्रासंगिक है | प्रेमचंद को याद करने की यहाँ कोई बड़ी वजह नहीं है सिवाय यह रेखांकित करने की कि प्रेमचंद का योगदान साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनितिक स्तरों पर  अतुलनीय है | भाषा के स्तर पर खड़ीबोली हिंदी को कहानी और उपन्यास के लिए नयी संवेदना से समृद्ध किया | उत्तर भारत के आज़ादी पूर्व के समाज में फैली हुई जाति -व्यवस्था , भूख आभाव गरीबी और विचार -विहीनता को हमारे लिए अपनी कहानियों और उपन्यासों में दर्ज़ किया | उनके साहित्य में कहानियां कहानियों जैसी नहीं है बल्कि उत्तर भारतीय समाज की तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना को  झकझोर कर रख देने वाला समाजशात्रीय  साहित्य है |  'कफन', 'गोदान', 'नमक का दरोगा', 'ईदगाह' सरीखे रचनाओं के माध्यम से  गांव में बसे  हिंदुस्तान की तस्वीर को प्रेमचंद ने  देश-दुनिया तक पहुंचाया| चुनाव के दौरान अनाप-शनाप के खर्चे और भ्रम फ़ैलाने वाली  बहसों के बीच किसी राजनीतिक दल को प्रेमचंद याद नहीं आते हैं |  मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही को हम उत्तर भारतीय भूल जाएँ तो समझिए हमने अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत से दूरी बनाने का फैसला कर लिया है| बढ़िया  बात यह हुई है कि लमही में उनके स्मारक पर  उनकी  जयंती  महोत्सव आयोजित होने लगा है |  महोत्सव में  सभी तरह के लोग दिखते हैं और शायद उनके पात्रों सरीखे लोग भी |  पर जयंती के अलावा किसी दिन लमही आप पहुंचे तो वहां की दुर्व्यवस्था देख कर यही लगेगा कि मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर रस्म अदायगी होती रही है| । लेकिन यह भी सच है कि प्रेमचंद के उपन्यास नमक का दरोगा, ईदगाह, सवा सेर गेंहू, कफन, निर्मला पर आधारित नाटक मंचन के दौर में हामिद, घीसू-माधो जैसे चेहरे लोगों के सामने आते रहते हैं । द्वार से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर चलने पर सामने आपको मुंशी जी का पैतृक आवास नजर आएगा, वहीं ठीक दूसरी ओर बीएचयू का मुुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसच सेंटर. पैतृक आवास जिनकी खिड़कियां, बारजे, छोटे छोटे कमरे आज उजली रंगत में चमक रहे हैं जिस घर में कभी प्रेमचंद ने अपनी कालजयी रचनाएं गढ़ीं, कभी न भूलने वाले किरदारों को जना, उसे न जाने कितने साल से म्यूजियम बनाने की तैयारी चल रही है| कई साल  पहले मुंशी जी की 125वीं जयंती पर उनके आवास को म्यूजियम बनाने का दावा किया गया था, लेकिन बीते अनेक वर्षों  में  दीवारों की मरम्मत कर उन पर पुताई ही हुई है| मुंशी जी के घर के ठीक सामने आलीशान मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च सेंटर  है जिसका प्रशासन बनारस हिन्दू विशवविद्यालय के अधीन है लेकिन सेंटर और स्मारक के बीच कोई संबंध नहीं दिखता है | रिसर्च सेंटर अभी भी  अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर पा रहा है जबकि  केंद्र सरकार की पहल पर इस रिसर्च सेंटर की स्थापना इस उद्देश्य से की गई कि यहां मुंशी प्रेमचंद पर, उनके उपन्यास, कहानियों और किरदारों पर शोध हो सके| लोग यह भी बताते हैं कि पहले तो बने बनाए इस भवन के उद्घाटन को दो साल का इंतजार करना पड़ा| शोध क्या होता.साल 2005 से ही लमही को समृद्ध करने की सरकारी कोशिशें की जा रही हैं|  गांव में मुंशी प्रेमचंद नाम से सरोवर भी है जिस पर पहले अवैध कब्जा हो गया था|  जब गांव की सूरत बदलने की सुधी सरकारी तंत्र ने ली तब इस सरोवर को भी कब्जे से मुक्त कराया गया|  गांव के बुजुर्ग लोग कहते हैं  कि हमारे लिए भगवान के बाद कोई है तो वो प्रेमचंद. अगर वो ना होते तो शायद आज हमारा गांव भी गुमनाम होता|  आज यहां जो कुछ है उन्हीं का है|  जिस गांव की कलम से हिंदी उपन्यास जगत में नया इतिहास रचा गया, आज उस विरासत को संभालने वाला कोई नहीं हैं.| गांव में अब भी कफन दुधिया, बूढ़ी काकी और निर्मला जैसे किरदार हैं लेकिन अब उनके दर्द को लिखने वाला कोई नहीं.पैतृक आवास से ही सटे मुंशी प्रेमचंद स्मारक स्थल पर प्रेमचंद स्मारक न्यास लमही की एक छोटी से लाइब्रेरी है, जहां उनकी कहानियों की तिलिस्मी दुनिया बसती है. मुंशी जी के उपन्यासों, कहानियों की किताबों से सजी ये लाइब्रेरी सिर्फ लाइब्रेरी नहीं, बल्कि उनकी कहानियों का मर्म यहां बसता है| किताबों के अलावा यहां आपको ईदगाह का चिमटा भी मिलेगा जो हामिद ने अपनी दादी के लिए खरीदा था|  मुंशी प्रेमचंद का पसंदीदा खेल गिल्ली डंडा भी.| एक छोटे कमरे की लाइब्रेरी में उनकी होली की पिचकारी भी है और हुक्का भी| हामिद की कहानी से प्रेरित विज्ञापन भी अब बनने लगा है | टेलीविजन पर अक्सर एक विज्ञापन दिखाई देता है जिसमें एक गोदाम के भीतर सरिया रखा है और बगल में एक मां रोटियां सेंक रही है | रोटियों को फूलाने में मां की उंगलियां जलने लगाती हैं तो बगल में बैठा रोटी खा रहा  हामिद सरीखा उसका बच्चा उठता है और एक सरिया उठाकर उसे चिमटे का शक्ल देकर अपनी माँ  को देता है और मां  खुश होती है और उसी चिमटे से रोटी को पकड़ कर आग पर फुलाती है| प्रेमचंद ने हमें अनेक स्तरों पर प्रभावित किया है इस विज्ञापन से समझा जा सकता है | कई ऐसी रचनाएं भी आपको यहां मिलेंगी जो कभी पूरी न हो सकीं और वो भी जिन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया. 1909 में  उनकी लिखी 'सोजे वतन' की वो प्रति भी है जिसे अंग्रेजों ने जला दिया था| 'समर यात्रा' दिखेगा जिसे अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था| 'मंगलसूत्र' दिखेगा  जो अधूरी रह गई. प्रेमचंद की कहानियां, उपन्यास साहित्य के अनमोल धरोहर हैं| 

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