शनिवार, 24 नवंबर 2012

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर पर गिरीश कर्नाड की दुर्भाग्यपूर्ण टिपण्णी

कन्नड़ के लेखक (मुख्य रूप से नाटकार ) गिरीश कर्नाड ने एक दुर्भाग्यपूर्ण टिपण्णी करके भारतीय सांस्कृतिक संसार में तूफ़ान खड़ा कर दिया है। उन्होंने यह कह दिया कि गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक दोयम दर्जे के हैं। गिरीश कर्नाड केवल नाटककार है, रंग निर्देशक नहीं इसलिए उनके कहे के पीछे रबिन्द्र नाथ टैगोर के नाटकों को मंचित करने के दरमियान आने वाली परेशानियों का जो अनुभव होता है वह अनुभव नहीं है। टैगोर दुनिया भर में एक कवि के रूप में मशहूर हैं। नोबल पुरस्कार उनकी कृति गीतांजलि पर मिली। संगीतकारों और गायकों ने उनकी कविता को रविन्द्र संगीत के रूप में लगभग बंगाल के घर घर में पहुंचाया । अनुवादकों ने उनकी कविता का ही अनुवाद दूसरी भाषाओँ के पाठकों के लिए उपलब्ध कराया। टैगोरे के कवि रूप ने दूसरी विधा के उनके लेखन को उभरने नहीं दिया। कवि के अलावा उन्हें चित्रकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है। भारतीय कला का इतिहास बिना रबिन्द्र नाथ टैगोर के सन्दर्भ के पूरा नहीं होता। प्रसिद्धि के तीसरे पायदान पर उनकी कहानियाँ और उपन्यास हैं। उनके नाटकों का जिक्र बहुत कम होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके नाटक दोयम दर्जे के हैं। किसी भी नाटक को कुशल रंग निर्देशक और अनुभवी रंग कलाकारों की जरुरत होती है। 
गिरीश कर्नाड के नाटकों के बारे में ही देखें। कन्नड़ में लिखे उनके नाटक तुगलक का हिंदी में अनुवाद ब ब कारंत ने किया था और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंग मंडल के रंगकर्मियों ने ओम शिवपुरी के रंग निर्देशन में 1966 में प्रस्तुत किया था । ओम शिवपुरी खुद तुगलक की भूमिका में थे। मंच निर्माण इ अल्काजी ने किया था। 1973 में इ अल्काजी के रंग निर्देशन में तुगलक का फिर मंचन हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका मनोहर सिंह ने की थी । 1982 में प्रसन्ना के निर्देशन में तुगलक खेला गया जिसमें तुगलक की भूमिका फिर मनोहर सिंह ने निभाई थी। हालहि में तुगलक का मंचन भानु भारती के रंग निर्देशन में दिल्ली में हुआ जिसमें तुगलक की भूमिका में अभिनेता यशपाल शर्मा थे। भानु भारती की यह प्रस्तुति इतनी सराहनीय थी कि इसकी गूंज सालों तक सुनाई देती रहेगी। कमजोर हाथों में तुगलक पड़ जाय तो इसे भी दोयम दरजे की श्रेणी में जाना पड़ सकता है क्योंकि तुगलक का किरदार इतना जटिल है कि हर किसी कलाकार के अभिनय क्षमता के सहारे इसे मंच पर दिखाया नहीं जा सकता है। किसी नाटक के लोकप्रिय होने के लिए जरूरी है कि उसे बार बार खेला जाये। यह सौभाग्य गिरीश कर्नाड के तुगलक को मिला है खासकर हिंदी रंगमंच पर। उनका नागमंडल भी अमाल अल्लाना जैसे कुशल और प्रतिभाशाली रंग निर्देशक के द्वारा मंचित किया गया। गिरीश कर्नाड के नाटक हिंदी रंग मंच की दुनिया में लोकप्रिय हैं तो इसकी वजह कुशल रंग निर्देशकों का परिश्रम है। मराठी नाटककार महेश एलकुंचवार कहते हैं कि जब तक कोई नाटक हिंदी में खेला न जाये तब तक उसके लोकप्रिय होने की गारंटी नहीं होती है। हमलोग गिरीश कर्नाड को केवल नाटकार के रूप में ही जानते हैं क्योंकि उनके नाटकार रूप को ही अधिक लोकप्रियता मिली है। हो सकता है दूसरी विधाओं में भी वे लिखते हों जो लोकप्रिय हुआ ही नहीं। भारतीय रंग कर्म के केंद्र में ज्यादातर विदेशी नाटक ही रहें है और उन्हीं के अनुवाद भारतीय रंगमंच पर खेले जाते रहें हैं। रंग निर्देशक अपनी भाषा में नाटकों के आभाव का रोना तो रोते रहे हैं लेकिन प्रयोगधर्मी होने की उनकी कोशिश कम ही रही है। जोर अजमाए हुए नाटकों को ही खेलने पर रहा है। 
मोहन राकेश की ख्याति उनके नाटकों की वजह से है बात ऐसी नहीं है लेकिन उनके नाटक खासकर आषाढ का एक दिन और लहरों के राजहंस इतने खेले जाते रहें हैं कि पाठकों के जेहन में सबसे पहले उनके नाटक ही आते हैं। मोहन राकेश की कहानियां और उपन्यास कहीं से भी किसी भी रूप में कम नहीं हैं। जय शंकर प्रसाद के नाटकों के बारे में कहा जाता है कि उनमें रंगमंचीय तत्वों की कमी है लेकिन उन्हें खेलने की कोशिशें भी होती रहती हैं लेकिन किसी ने उनके नाटकों को दोयम दर्जे का कह दिया हो ऐसा भी नहीं है। मोहन राकेश के लहरों के राजहंस के बारे में कहते हैं कि अभ्यास के दौरान उन्होंने उसके कई अंशों को फिर से लिखा। रंग निर्देशकों के बारे में कहा जाता है कि वे नाटकों में मंचन के दौरान फेर बदल कर देते है ताकि उनकी प्रस्तुति संभव हो सके। कहने का मतलब यह कि एक नाटक को कुशल रंग निर्देशक का इन्तजार रहता है। संभव है कि रबिन्द्र नाथ टैगोरे के नाटकों को ऐसा कोई रंग निर्देशक नहीं मिला जो उनके नाटकों को उनकी कविताओं की तरह लोकप्रिय बना सके। इस मामले में अज्ञेय भाग्यशाली रहें हैं कि हर विधा के उनके लेखन को एक समान रूप से प्रसिद्धि और लोकप्रियता मिली। जितनी उनकी कविता याद आती है उतना ही उनके उपन्यास भी याद आते हैं। रंग निर्देशकों को चाहिय कि वे गिरीश कर्नाड की चुनौती को स्वीकार करें।

रविवार, 4 नवंबर 2012

समकालीन भारत मध्यकालीन भारत है

मिथिलेश श्रीवास्तव -
भानु भारती के रंग निर्देशन खेले गए नाटक को पहले ही दिन देखा मैंने। गजब है । रंग निर्देशन से भी आगे था राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय के छात्र रहे यशपाल शर्मा का तुगलक का अभिनय । इस नाटक पर मेरी एक टिपण्णी प्रजा की भलाई की चिंता में मरता एक सुलतान अपनी प्रजा के साथ हो रहे अपने क्रूर व्यवहार और अत्याचार की शक्लो-सूरत देख नहीं पाता है। वह अपेक्षा करता है कि उसकी रियाया उस पर भरोसा करे और उसके जन-कल्याणकारी कामों की सराहना करे। जनता है कि उसकी सदिच्छाओं की क़द्र ही नहीं करती । सुलतान जीता किसके लिए है, जनता के लिए । सुलतान चिंता किसकी करता है जनता की । सुलतान जंग जनता के लिए लड़ता है। सुलतान जनता के लिए हत्याएं करता है और जनता है कि सुलतान पर भरोसा ही नहीं करती । लोगों का भरोसा पाने के लिए सुलतान हलकान है। जनता पर जुल्म ढाता है, सैनिकों से हमला करता है। उसके आमिर उमराँ उसे नई नई तरकीबें बताते हैं कि कैसे जनता का दिल जीता जा सकता है। सुलतान पर मनोवैज्ञानिक दबाव है कि जनता जो सुलतान का भरोसा नहीं कराती मुल्क में बगावत को हवा दे सकती है। सुलतान चालाकियां करता है और अपने विरोधिओं का सफाया समय समय पर करवाता है। वह मानता है कि वह जनता का भला चाहता है और लोगों से इस बात को मनवाता भी है। फिर उसे ऐसा क्यों लगता है कि उसके खिलाफ बगावत हो सकती है। दरअसल मोहम्मद बिन तुगलक के व्यक्तित्व का यह पहलू ही उसका दुश्मन है जो रोज उसे दो कदम अकेलेपन की ओर धकेल रहा था। जितना ही वह जनता की फिक्र करता जनता की नज़रों में उतना ही वह अप्रासंगिक होता चला जाता। एक सुलतान के अकेले होते जाने और अप्रासंगिक हो जाने की कथा गिरीश कर्नाड ने तुगलक में कही है। यह कथा मध्यकालीन राजनीतिक परिदृश्य से ली गयी है जो शासकों की आपसी रंजिश से भरी हुई है। और एक दिन वह फैसला करता है कि वह दिल्ली से दूर दौलताबाद अपनी राजधानी बसाएगा और जनता को दौलताबाद कूच करने का फरमान देता है । दौलताबाद में वह और अकेला और घबराया हुआ होता है। एक दिन दौलताबाद से दिल्ली लौट आने का फैसला करता है और जनता को दिल्ली चलने का अपना आदेश देता है। शायद वह दिल्ली नहीं पहुँच पता है। सुलतान की यह दुर्गति हुई तो प्रजा का क्या हुआ होगा हम अनुमान लगा सकते हैं। दिल्ली से दौलताबाद के सफ़र में प्रजा को क्या क्या तकलीफें सहनी उठानी पड़ी इसका एक दृश्य तुगलक में मंचन से ही ले लेतें हैं । एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिए दौलताबाद जा रही है और उसका बच्चा बीमार पड़ जता है। सुल्तान का आदेश है कि कोई रियाया कारवां से न बाहर जा सकता है और न अलग हो सकता है। औरत सुलतान के एक कारिंदे से अपने बच्चे को पड़ोस के गाँव में हकीम से दिखाने की इजाजत मांगती है लेकिन उसे मना कर दिया जाता है। औरत रिरियाती है तो कारिन्दा कहता है कि अशर्फियाँ दो तो इजाजत देंगे। औरत अशर्फियाँ हकीम के लिए बचाया है। दूसरा कारिन्दा पहले कारिंदे से पूछता है कि औरत को जाने क्यों नहीं देता। पहला कारिन्दा कहत्ता कि बच्चा तो मरने ही वाला है तो अशर्फियाँ हाकिम को क्यों जाएँ । सुलतान के हाकिमों का यह हाल है ।

गिरीश कर्नाड के इस नाटक का मंचन पिछले दिनों भानु भारती के रंग निर्देशन में कोटला फिरोजशाह किले के प्राचीरों के भीतर किया गया। किले के भीतर एक सुविधा यह होती है कि बिना किसी अतिरिक्त परिश्रम के मध्यकालीन परिवेश का निर्माण हो जाता है। किले के मुख्य बाहरी प्रवेशद्वार पर मध्यकालीन मोर्चेबंदी दिखाई देती है। एक संकरे द्वार से प्रवेश करना है , सुरक्षा घेरे से सुरक्षा जाँच कराते हुए, प्रवेश पत्र दिखाते हुए एक ऐसे रस्ते से गुजरना पड़ता है जो अँधेरे में डूबा हुआ होता है। प्रवेश की अनुमति देने वाले अधिकारिओं और सुरक्षा कर्मिओं के चहरे पर वही मध्यकालीन क्रूरताओं के निशान होते हैं, जैसे हम दर्शक नहीं हमलावर हैं। अँधेरे में डूबी हुई किले की खँडहर होती दीवारें जैसे दिल्ली से तुगलक के दौलताबाद चले जाने के बाद दिल्ली उजड़ चुकी हो। चलते चलते दो बुलंद दरवाजों से होकर जाते हुए अचानक रोशनी की फुहारें दिखने लगतीं है जैसे कि किले के भीतर का मीना बाजार आ गया हो। वातावरण की ऐसी यथार्थपरक संरचना रंग सभागार में निर्मित की ही नहीं जा सकती है। पिछले साल भानु भारती ने धर्मवीर भारती का अंधायुग इसी विशाल कैनवास पर इसी जगह मंचित किया था । दूसरी सुविधा यह कि इस मुक्ताकाश सभागार में किले के भीतर उपलब्ध सारी सामग्री रंग प्रस्तुति का हिस्सा बन जाती हैं । आकाश, घास, हवा, हवा की नमी, दीवारें। मंच की विशालता में कई दृश्य बंध बनाए जा सकते हैं। तुगलक में ही तीन दृश्य मंच थे। पहला मंच जहाँ आम जन की गतिविधियों को दिखाने के लिए इस्तेमाल किया गया। उसके बगल में दूसरा मंच जहां सुलतान का खास महल था। उसके बगल में तीसरा मंच जो तुगलकाबाद शहर का प्रतिबिम्ब था। इन तीन उप मंचों में विभक्त कोटला फिरोजशाह गुनाह और बेगुनाही के बीच झुलते तुगलक की बुलंदियों और उसके अवसान की कहानी का गवाह बना।

तुगलक को देखते हुए मन में यही आ रहा था कि उस मध्ययुगीन समय से हमारा समय कितना मेल खाता हुआ है। सुल्तान प्रजा की भलाई के लिए चिंतित था और जनता मर रही थी। लोकतान्त्रिक देश की सरकार भी जनता के लिए चिंतित है और जनता मर रही है। सुल्तान होशियार था ईमानदार था लेकिन उसका अपना कोई ईमान नहीं था। उसका एक ही ईमान था जनता के लिए चिंतित होना और जनता को विनाश के कगार पर ले जाना। घोटालों मनमानियों और भ्रष्ट सर्करून के कारिंदे उन्ही मध्यकालीन सुल्तानों की मानिंद पेश आ रहे हैं।

इतने शब्द कहाँ हैं- रघुवीर सहाय

इतने अथवा ऐसे शब्द कहाँ हैं जिनसे
मैं उन आँखों कानों नाक दाँत मुँह को

पाठकवर
आज आप के सम्मुख रख दूँ
जैसे मैंने देखा था उनकों कल परसों।

वह छवि मुझ में पुनरुज्जीवित कभी नहीं होती है
वह मुझ में है। है वह यह है
मैं भी यह हूँ

मेरे मुख पर अक्सर जो आभा होती है।

दर्द -रघुवीर सहाय

देखो शाम घर जाते बाप के कंधे पर
बच्चे की ऊब देखो
उसको तुम्हारी अंग्रेज़ी कह नहीं सकती
और मेरी हिंदी
कह नहीं पाएगी
अगले साल