शनिवार, 24 नवंबर 2018


दक्षिण  एशिया की साझी विरासत 


दक्षिण एशिआ के देशों की जनता के बीच साहित्यिक- सांस्कृतिक संबंधों को मज़बूत करने के अनेक तरीक़े गैर-सरकारी स्तरों पर आजमाए जाते रहे हैं ताकि इस क्षेत्र में आपसी मेलजोल बढे और लोग अपने दुःख-सुख साझा करने में सकुचाये नहीं और यह भी कि वे अपनी सरकारों पर एक नैतिक दबाव भी बना सके ताकि सरकारें युद्ध और अविश्वास का माहौल बनाने से बचें | पूरा दक्षिण एशिया गैर-बराबरी और ग़रीबी का शिकार है इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि इन देशों के लोग आपस में अमन-चैन के साथ रहें | फउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स & लिटरेचर (फोसवाल ) इन देशों के लेखकों और कविओं और कलाकारों के ज़रिए इन देशों के बीच साहित्यिक और सांस्कृतिक वातावरण बनाने में काफ़ी सफल रहा है | हर साल इन देशों  में से किसी एक देश के किसी एक शहर में फोसवाल के लेखकों और  कविओं का कम-से-कम चार दिनों की मज़लिस लगती है जिसमें चारों दिन शांति प्रेम सदभाव सरीखे विषयों पर बहसें होती हैं और कविता पाठ होते हैं |  लेखक अपने देशों की परंपरा और समकालीन हालातों पर विस्तार से चर्चा करते हैं | पंजाबी की कथाकार अजित कौर फोसवाल की अध्यक्षा भी हैं और इस अभियान की नेता भी | 
फउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स & लिटरेचर (फोसवाल ) का हाल ही में  साउथ एशियाई लिटरेचर फेस्टिवल नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ |  उद्घाटन 4 अक्टूबर 2018 को साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष प्रोफेसर चंद्रशेखर कम्बार ने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कमलादेवी काम्प्लेक्स में किया | इस अवसर पर प्रोफेसर आशीष नन्दी , मुचकुन्द दुबे, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भुटान, नेपाल, और श्रीलंका के भारत में राजदूत /उच्चायुक्त उपस्थित थे | लगभग 200 कवि, लेखक और विभिन्न विषयों के विद्वान इन देशों से आये थे  और फेस्टिवल के विभिन्न सत्रों में अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया  |  अपने स्वागत भाषण में फोसवाल की अध्यक्षा अजीत कौर ने वाज़िब ही कहा कि " दक्षिण एशिया के लोग आपस में बहुत ही मज़बूती से जुड़े हुए हैं , हमारी परंपराएं, हमारे तीज-त्यौहार, लोक-ज्ञान की पद्धति और लोक-गीतों इत्यादि में काफी कुछ साझा है |" सच है कि सीमाएं, सरहदें और सरकारें हमें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं कर सकतीं | हम लेखकों और कवियों को हमें अपनी साझी विरासत की पहचान हमेंशा करते रहना चाहिए|
7 अक्टूबर, 2018 को चौदहवें सत्र  की अध्यक्षता मैंने की  जिसमें मेरे सहित नौ कविओं ने  अपनी कविताओं का पाठ किया -तीन कवि बांग्लादेश से और छह कवि अपने देश की विभिन्न भाषाओँ से | इस सत्र में मुझे यह लाभ हुआ कि हिंदी भाषा शायद सभी शिरकत  करने वाले कवियों द्वारा समझी गयी क्योंकि इन सम्मेलनों में भाषा एक समस्या है जिसके समाधान की कोशिश फोसवाल के लोग कर रहे हैं  | फिर भी जैसा कि अजित कौर जी का सुझाव था कि सभी लोग पढ़ी जाने वाली रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद ज़रूर ले आएं | इस शर्त की वज़ह से मुझे उन कविताओं का चुनाव मुझे  पहले ही कर लेना पड़ा  जिनका  पाठ मुझे करना था और उनके अंग्रेजी अनुवाद भी एक मित्र से करा लिया था  | इस काम को मेरे कवि मित्र संजीव कौशल ने आसान कर  दिया| संजीव कौशल एक बेहद ज़हीन व्यक्ति हैं और मित्रता को अहमियत देते हैं | वे दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में  अंग्रेजी भाषा और साहित्य पढ़|ते हैं और कई हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी में किया है ||
साउथ एशियाई लिटररी फेस्टिवल के अंतिम सत्र की अध्यक्षता करने की जिम्मेवारी मेरे ऊपर थी और सत्र शुरू होना था क़रीब 12 बजे  दिन से | मुझे लगा आख़िरी सत्र में भला कितने लोग होंगे | अधिकांश तो दिल्ली घूमने निकल गए होंगे, कुछ लोग ख़रीदारी करने चले गए होंगे | ऐसा ही कुछ सोचता हुआ घर से निकला | कुछ बेफ़िक्री के साथ, कुछ चिंतित होते हुए | कार्यक्रम स्थल बदल गया था | पहले दिन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दिन भर कविता-पाठ और पुस्तकों के गद्य-अंश पढ़े गए | उसके बाद फेस्टिवल अकेडमी ऑफ़ फाइन आर्ट्स एंड लिटरेचर के परिसर में चला गया | जैसे-जैसे देर होने लगी बेफिक्री चिंता में बदलती चली गयी | दिल्ली के सडकों के जाम को देखते हुए मैंने अपनी गाड़ी से जाने का विचार त्याग दिया | सड़क के रास्ते ही जाने का विचार त्याग दिया - न बस से न उबर से  | पांच रूपया देकर टेम्पो से मजेंटा लाइन मेट्रो के पालम स्टेशन पहुंचा और वहां से हौज़खास मेट्रो गया | हौज़खास में येलो लाइन मेट्रो पकड़ कर ग्रीन पार्क पहुंचा | वहां मेट्रो से उतर कर बाहर निकला और एक थ्रीव्हीलर लेकर अकेडमी लगभग साढ़े ग्यारह बजे के क़रीब पहुँच गया | सत्र शुरू होने के आधा घंटा पहले | तबतक वहां शोर मच चुका  था कि मिथिलेश श्रीवास्तव कहाँ हैं | शोर मचा हुआ था उसी बीच मैं वहां पहुंचा | मैंने देखा कि सभी के सभी डेलिगेट पोएट्स और लेखक मेरा इंतज़ार कर रहे थे | कइओं ने लपक कर कहा कि हम आपको सुनने की उम्मीद छोड़ चुके थे, लगा कि आप आज आएंगे ही नहीं | यह सब चल ही रहा था कि मेरे सत्र का समय आ गया और मैं डाएस पर जा बैठा और मंच पर बांग्लादेश और इंडिया के विविन्न भाषाओँ के कविओं को मंच पर आमंत्रित किया | सत्र की शुरुआत मैंने यह कह कर किया कि  दक्षिण एशिया के हमलोग आपस में  कई विरासतों के साझीदार हैं | मिथक, परंपराएं, तीज-त्योहार लोक-ज्ञान और लोक-विमर्श हमारी सांस्कृतिक पहचान के साझे तत्व हैं | हम भाषा जो भी बोलते हैं , बात एक जैसी बोलते हैं -अहिंसा , मानवता और उदारता | इस तरह कविता-पाठ शुरू हुआ | 

फोसवाल के इन कार्यक्रमों में मैं कई बार बुलाया जा चूका हूँ, दो बार आगरा में, एक बार लखनऊ में, दो बार दिल्ली में और एक बार नेपाल के काठमांडू में | हर बार मुझे यही लगा कि    हम शांति चाहते हैं | विश्व के लोग शांति चाहते हैं | शांति चाहते हैं ताकि विकास के माध्यम से भूख और ग़रीबी पर काबू पाया जा सके और एक समतामूलक समाज का निर्माण किया जा सके | आज भी, दुनिया के अनेक इलाकों में  अंधकार है, भूख है, ग़रीबी है , गैर-बराबरी है | दक्षिण एशिया में शांति के माहौल में ही लोगों का विकास संभव हो सकता है और यह तभी संभव है यदि पडोसी मुल्क आपस में मैत्री - भाव विकसित करें और उसकी जड़ों को मज़बूत करें | शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व केवल विकास के लिए ही नहीं चाहिए बल्कि साहित्य, कला और संस्कृति के विकास के लिए भी चाहिए और अमन-चैन के लिए भी | लेकिन हम पाते  कि आम-लोग शांति चाहते हैं और भाईचारा के साथ रहना पसंद करते हैं जबकि सियासतें अपने नफ़े के लिए युद्ध का उन्माद पैदा करती हैं और लोगों की भावनाओं को विकृत करके वैश्विक परिदृश्य में पेश करती हैं  ताकि लोगों की  उन्हें सहानुभूति मिलती रहे | लोगों की वास्तविक भावनाओं का पता तब लगता है जब देशों के लेखक और साहित्यकार आपस में मिलते हैं और अपना-अपना हाल बताते हैं |  इन देशों के लेखक जब फॉसवाल के मंच पर इकट्ठे होते हैं तो आपस में गले ही  नहीं मिलते हैं, बल्कि युद्ध, हिंसा, धार्मिक उन्माद की  निंदा करते हैं और सियासतदानों को शांति के लिए काम करने के लिए नसीहतें भी  देते हैं| इसमें कोई शक नहीं बल्कि एक यथार्थ है कि दक्षिण एशिया   के इन देशों के लोगों ने लोकतंत्र, आज़ादी और जीवन के लिए लंबा संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं | इनका संघर्ष इनके साहित्य और कविताओं में दिखता  है | 2015 में जयपुर में हुए सूफ़ी महोत्स्व के दौरान इन लेखकों ने एक संकल्प-पत्र जारी किया था, उन संकल्पों में से एक संकल्प यह भी था ," पूरी पृथ्वी को युद्धविहीन घोषित किया जाए | " दक्षिण एशिया के साहित्यकार युद्ध के ख़िलाफ़ खड़े हैं |      
हमारी सरहदों की हद में वे वतन आते हैं  जिनसे भिन्न  भौगोलिक सीमाओं के बावजूद सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टियों से गहरा संबंध है । आर्थिक असमानता तो इस महाद्वीप  की खास विशेषता है  ।विकासशीलता और अस्तित्व का संघर्ष इन देशों की
आपसी समझ का मूलाधार है । जीवन इनमें से किसी भी देश में आसान नहीं है । भौगोलिक विस्थापन से लेकर सांस्कृतिक विस्थापन का दंश इन देशों के लोग झेलते रहे हैं। इस महाद्वीप में  जब से आजादी का बिगुल बजने लगा था तब से इन देशों की विकासशील
अर्थव्यवस्था लोगों को पर्यावरणीय और सांस्कृतिक विस्थापन के लिए मजबूर करती रही है । रोजी रोटी के लिए लोग दरबदर होते ही रहे हैं लेकिन अपने आबोहवा से बिछुड़ने का दर्द रोटी के दर्द  से भी बड़ा और घातक रहा है । गाँव से शहर की ओर लोगों का विस्थापन सरहद के लगभग सभी देशों में रहा है  क्योंकि अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के बजाए हुक्मरानों ने शहरीकरण और शहरी अर्थव्यवस्था की ओर रूझान दिखाए । अब हिंदुस्तान में स्मार्ट शहर नीति के बहाने ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को और कमज़ोर करके ग्रामीण-पलायन को बढ़ावा देने की कोशिशें होगी जो भारतीय जन-जीवन के लिए काफ़ी ख़तरनाक होगा |  रोजगार और रोटी की संभावना की तालाश में  भारी पैमाने पर लोग शहरों की ओर चल पड़ते हैं  । सीमित साधनों और कम अवसरों वाले
शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ता जाता है  । जिसकी वजह से कई मानवीय विकृतियाँ पैदा हुईं  हैं । शहरों की अर्थव्यवस्था भी चरमरा गई । पारंपरिक ग्रामीण  अर्थव्यवस्था ,नई शहरी अर्थव्यवस्था और सांस्कृतिक विस्थापन की वजह से लोगों के जीवन में अकेलापन ही नहीं  बल्कि सामाजिक सन्नाटा पसर गया | सामूहिक जीवन का मंत्र ही निष्फल हो गया । इसका परिणाम समाज में बढ़ती हुई हिंसा ,अलगाववाद,सीमा पर तनाव ,आतंकवाद ,सैन्यकार्यवाही ,तानाशाही ,इत्यादि मे दिखाई पड़ने लगा ।  अपनी आजादी के समय से ही पाकिस्तान सरहद पर तनाव पैदा करता रहा और झेलता रहा । कहते हैं कि पाकिस्तान हिन्दुस्तान के भीतर आतंकवादी और अलगाववादी प्रवृतियों को बढ़ावा देता रहा हैलेकिन पाकिस्तान के भीतर अशांति बढ़ती रही है खून बहता रहा और जानें जाती रहीं । संतोषजनक बात यह  रही कि दोनों मुल्कों के लोगों के दिलों में सद्भाव बना रहा । संस्कृतिकर्मियों  के दिलों में दोनों देशों के बीच  अमन चमन की इच्छाएँ बनीं रहीं । वे आपस में मेलजोल करते रहे । उनके साहित्य में उनकी कविता में अमन का बिगुल बजता रहा ।
 बांग्लादेश के जन्म का  कारण ही जुल्म और दमन है । पाकिस्तान के तानाशाह हुक्मरानों का बांग्लाभाषी बांग्लादेशियों के साथ बरता गया भेदभाव पाकिस्तानके विरूद्ध विद्रोह को जन्म दिया । विद्रोह बांग्लादेश की आजादी  के संघर्ष में बदल गया । आदमी जब जुल्म को सहने से इन्कार कर देता है और उस प्रतिकार के लिए संघर्ष करने निकल पड़ता है तब तानाशाहों के सामने कोई उपाय बचा नही रहता है । सर छुपाने की जगह की तलाश में लाखों बांग्लादेशी नागरिक विस्थापित होकर भारतीय सरहद को पार कर भारतीय उत्तर -पूर्वी राज्यों में आ बसे । उनका आना उत्तर-पूर्वी समाज में नए किस्म की समस्याओं को जन्म दिया । पाकिस्तानी तानाशाहों की कारगुजारियों का अंजाम लाखों बांग्लादेशियों को तो  झेलना ही पड़ा,  भारतीयों को भी झेलना पड़ा । बांग्लादेश का जन्म हुआ लेकिन वह भीतर से अशांत ही रहा । हिंसा और खूनखराबे का आलम वहाँ भी रहा । अशांत और भरोसे हीन वातावरण में लोगों का जीवन कितनी  अनिश्चितताओं से भरा होता है इसका अनुमान हम लगा सकते हैं क्योंकि हमारा अनुभव जो पंजाब में रहा , जम्मू-कश्मीर में रहा तामिलनाडू में रहा ,उत्तर-पूर्व में रहा  ,वह वैसा ही रहा  है जैसा बांग्लादेश का रहा है ।

         हम हिंसा के किसी भी रूप का समर्थन नहीं कर सकते , किसी भी सूरत में कत्लेआम के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते । तमिलवंशियों और श्रीलंकावासियों के बीच की खूनी जंग को हमने अपनी संवेदना पर महसूस किया है ।जम्मू में मारे गए लोगों , श्रीलांकाई तमिलों के प्रति जो भावनात्मक लगाव हम महसूस करते हैं , सिंहलियों के प्रति भी हमारे मन में वही रागात्मक लगाव है । दोनों ही तरफ के लोगों ने जो भुगता है , हमारे लिए  तकलीफदायक रहा है  ।      खूनखराबा तो नेपाल में भी हुआ  । राजशाही का विनाश और  राजनीतिक अस्थिरता के बीच नेपाल आज भी शांति और निदान तलाश रहा है |  इसी अस्थिरता के बीच नेपाल के कवि सार्क लेखकों के बीच आते रहे  हैं ।       राजनीतिक अस्थिरता, विकासशील अर्थव्यवस्था ,आर्थिक असमानता, भौगोलिक और सांस्कृतिक विस्थापन , भूख ,बीमारी ,बेरोजगारी ,इंसान को प्रभावित करती है  और रचना की पृषठभूमि भी तैयार करती है  । सार्क देशों के कवियों की कविताओं में इन स्थितियों की छाया देखी  -सुनी  जा सकती  है ।      विमल नीभा नेपाल के सुप्रसिद्ध कवि हैं, काठमांडू में रहते हैं । उनकी कविता  " अंधेरा "  ( नेपाली  से अंग्रेजी में अनूदित इस कविता को हिन्दी में अनुवाद किया गया है ) में इंसान के इस दर्द को पढ़ा जा सकता  है । अंधेरा मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासद स्थिति है । अंधेरे में कुछ भी हो सकता है। बेजान मूर्तियों से आप टकरा सकते हैं ,सड़क पर पड़े किसी पत्थर से ठोकर खा सकते हैं  ,खुले    मैनहोल के संकरे वृत के भीतर गिरकर फंस सकते हैं । इस उपद्वीप को आर्थिक  राजनीतिक और विकासमूलक  स्थितियां इन्हीं पत्थरों , मूर्तियों , और मैनहोलों की तरह हैं ।विमल नीमा अपने ही देश की स्थितियों की बिम्बात्मक अभिव्यक्ति  के माध्यम से इस पूरे उपमहाद्वीप  की मानवीय स्थितियों  और त्रासदियों  का आकलन कर जाते हैं।  अंधेरा महान  कविताओं की     , पंक्ति में खड़ी नही है लेकिन अपनी साधारण अभिव्यंजना में एक बड़ी कविता लगती है । लोकतांत्रिक बयार वाले समय में  नेपाल राजशाही का बोझ उठाता रहा और उसके बाद राजनीतिक मंथन से उपजे अराजक हो जाने की हद तक पहुँच जाने की राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हुआ है । परस्पर निर्भरता वाले समय में राजनीतिक अस्थिरता गहरे तीव्रता के भूकंप जैसा है  जो मनुष्य के जीवन में विनाश , भूख और महामारी लाता है  । । यह वही अंधेरी सुरंग है जहाँ से लोग बिखर रहे हैं । बनीरा गिरी की कविता "जख्म "की आखिरी पंक्तियों में यह आवाज आती है कि 'सुनो , तुम्हारा बारूदखाना खाली हो जाएगा , मैं नहीं ।'  के पी रिजाल की कविता ' दीवार ' में दीवार के होने या दीवार के ढहाने के परिणामों के बीच अंतर्द्वन्द चल रहा है । अंतत कवि को विस्मय होता है कि यह देश मूर्तियाँ  चला रहीं हैं ।मुर्तियों की तरह बेजान व्यवस्थाएँ  इंसानियत को किस रसातल में  पहुँचा देंगीं

असहमति की ज़गह बरकरार रहनी चाहिए 

एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के प्रायोजन   में  संगीत के कार्यक्रम आयोजित करने वाली संस्था स्पिक- मैके ने दिल्ली में 17 नवंबर 2018 को कर्नाटक संगीत के संगीतज्ञ  टी एम कृष्णा के संगीत कार्यक्रम का आयोजन रखा था लेकिन अंतिम घड़ी में एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया  अपने प्रायोजन से मुकर गई जिसकी वजह से स्पिक-मैके को यह कार्यक्रम रद्द करना पड़ा |   टी एम कृष्णा के संगीत कार्यक्रम को अचानक रद्द करने का कारण बताया गया था ट्वीटर -हैण्डलरों  के ट्वीट को जो लगातार कृष्णा के  खिलाफ आग उगल रहे थे| कंसर्ट के रद्द होने के कारणों में सबसे अहम भूमिका रही हिंदुत्व ट्रोलरों की जिन्होनें कृष्णा के ख़िलाफ़ तरह-तरह के दोषारोपण किये जिनमें से एक शहरी नक्सल कहना भी है | इन ट्वीटरों की धमकी भरी भाषा से एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के अधिकारी अनुमानतः या तो डर गए या डरा दिए गए| नमूने के तौर पर एक ट्वीट देखा जा सकता है जिसमें  कृष्णा की छवि को धूमिल करने की कोशिश की गयी है | ट्वीट  दिलचस्प है, और भयानक भी  ,"क्या आप जानते हैं वह (कृष्णा) प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी से जबरदस्त घृणा करता है, हिन्दुओं, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय  स्वयं संघ  से असहमति जताता है| करदाताताओं का पैसा और एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के कर्मचारियों का समय उसके ऊपर क्यों बर्बाद होने दिया जाए | " इसी तरह के ट्वीट्स ट्रोल हैंडलरों ने चलाया और  एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के अधिकारी संभवतः  दबाव में आ गए | कृष्णा ने तब सार्वजनिक रूप से अपील की, "मुझे 17  नवंबर, 2018  (जिस दिन स्पिक-मैके ने कार्यक्रम रखा था ) को दिल्ली में  कहीं भी मंच दीजिये मैं आऊंगा और गाऊंगा | हम इस तरह की धमकियों से डर नहीं सकते हैं | "  रामचंद्र गुहा ने भाजपाइयों के इस दुष्कृत्य  की निंदा इन शब्दों में की,"एक बड़े संगीतकार को राष्ट्रीय राजधानी में अपनी कला के प्रदर्शन से रोकना और उसे  बाधित करना असहिष्णुता ही नहीं बल्कि बर्बरता है |"  ट्रोल हैंडलरों को जब पता चला की कृष्णा दिल्ली में गाने वाले हैं तो उन्होंने कृष्णा को गाली देना शुरू किया और मांग करना शुरू किया की कृष्णा के कॉन्सर्ट को रद्द किया जाए | ट्रोल-हैंडलर्स कृष्णा के संगीत के बारे में शायद ही कुछ जानते होंगे, उन्हें सिर्फ यह मालूम है कि कृष्णा हिंदुत्व और मोदी सरकार के आलोचक हैं | कृष्णा के पक्ष में आख़िर में दिल्ली की आप सरकार खड़ी  हुई |आप सरकार ने इस घटना को लोगों के सरकार के ख़िलाफ़ बोलने की आज़ादी पर कुठाराघात बताया और इसकी तुलना फांसीवाद से किया |  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मोदी सरकार जब से आयी है अभिव्यक्ति और बोलने की आज़ादी पर संकट लगातार मडराता रहा है | लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार भारतीय संविधान देता है लेकिन मोदी सरकार इस अधिकार को सिमित करने की लगातार कोशिश कर रही है | बिना सरकार के परोक्ष या अपरोक्ष समर्थन के ट्रोल -हैंडलर्स सरकार के खिलाफ बोलने वाले आलोचकों पर आकर्मण कर नहीं सकते | भय का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है | 

ख़ौफ़ पैदा करने वालों को याद रहे कि पक्की और चमकदार सड़कें, फ्लाईओवरों , मेट्रो, स्टेडियमों, हवाई अड्डों, प्रतिमाओं इत्यादि    जैसे निर्माण अगर विकास के विश्वसनीय मानदंड होते तो दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शिला दीक्षित दिल्ली के विधानसभा  चुनाव  में कभी भी नहीं हारतीं और न कांग्रेस पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा होता| शाइनिंग इंडिया भी विकास का मानदंड नहीं हो सकता है, यदि ऐसा होता तो अटल विहारी वाजपेयी जैसे व्यक्ति जो कमोबेस सबको स्वीकार्य थे, की सरकार कांग्रेस के हाथों 2004 में कभी नहीं पराजित होती | देश में फांसीवादी स्तिथियां पैदा करने से हिंदुस्तान में सत्ता में बने रहना किसी के लिए भी असंभव है | आम लोगों को क्या चाहिए, परिवार पालने के लिए एक ओट, पेट भरने के लिए दो जून का भोजन, ओट और भोजन जुटाने के लिए आठ घंटे का काम, बच्चों के लिए स्कूल और कॉलेज, बीमारी  का इलाज और इन सब के ऊपर बोलने की आज़ादी जो उनको  भारत का संविधान सुनिश्चित रूप से देता है| अगर कोई घर मांगे, नौकरी मांगे, जीने का अधिकार मांगे, बोलने का अधिकार मांगे और यह सब नहीं मिले तो विरोध प्रदर्शन करे, सरकार की आलोचना करे , सरकार और व्यवस्था से मत-भिन्नता प्रकट करे     और आप उसके पीछे ट्रोल हैंडलरों को लगा दें, तो कैसी स्तिथि बनेगी | और आप किस-किस के पीछे इन ट्रोल-हैंडलर्स को सक्रिय करेंगे | यह देश आज विरोध प्रदर्शनों से भरा पड़ा है | किसानों के ख़िलाफ़ ये ट्रोल हैंडलर्स सक्रीय होगें जो सोशल मीडिया जानते ही नहीं हैं और अगर जानते भी होगें तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता |  आम लोगों के बोलने  की आज़ादी का उदाहरण देखना है तो आप उत्तर भारत के गावों, कस्बों और छोटे शहरों की पान और चाय की दुकानों पर देख सकते हैं | भले ही खाना नहीं खाया हो, चाय की चुस्की लेते हुए लोग सारे संसार की राजनीति - मोदी से ट्रम्प तक- बतिया जाते हैं | घर और भोजन से भी अधिक ज़रूरी है बोलने की आज़ादी | इंसान जैसी भी स्तिथि में हो वह बोलना चाहता है और जब बोलने की आज़ादी पर कोई आघात करता है तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता है | बोलने की आज़ादी पर आघात का परिणाम था 1977 में दुर्गा की उपाधि से विभूषित इंदिरा गाँधी की करारी हार | कहते हैं नोटबंदी के दौरान लोगों का बड़े पैमाने पर रोज़गार छीन गया |   वादे जो 1914 के चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने किए थे मोदी सरकार ने आजतक पूरे  नहीं किए और अमित शाह ने उन वादों को चुनावी जुमला कह कर टाल  दिया| झूठ , जुमलों  और तमाम परेशानियों का विरोध तो होना ही है |  लेकिन एक बात तो तय है कि भारत की जनता अपने नागरिक अधिकारों पर किसी भी तरह के आघात को सहन नहीं कर सकती है, बोलने की आज़ादी पर विशेषकर | बोलने की आज़ादी आलोचना की आज़ादी है और जिसके अनेक प्रारूप हैं, कला, संगीत, नृत्य, लोक कला, साहित्य, संस्कृति इत्यादि | बोलने के  किसी भी आज़ादी के प्रारूप  पर आघात, परोक्ष या अपरोक्ष नियंत्रण या पाबंदी लोगों की सहन शक्ति का परिक्षण है | दिल्ली में कर्नाटक संगीत के संगीतकार टी एम कृष्णा का  कंसर्ट स्पिक मकै फाउंडेशन ने एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के प्रयोजन में आयोजित किया था | ऐन वक़्त यह कंसर्ट प्रायोजित करने से  एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया ने मना  कर दिया, नतीजतन      स्पिक मकै फाउंडेशन को यह कंसर्ट रद्द करना पड़ा | इस पर राजनितिक घमासान शुरू हुआ | कहा गया कि कंसर्ट रद्द करवाने के पीछे मोदी सरकार के हाथ हैं क्योंकि टी एम कृष्णा के विचार मार्क्सवादी हैं और उनका संगीत उसी विचारधरा की पोषक है | यह कहना निरर्थक नहीं होगा कि जो कला जनता का विशुद्ध मनोरंजन करे, उसका बौद्धिक विकास करे और उसकी चेतना को जागृत करे और उसमें परिवर्तन की आकांक्षा जगा दे वही सामाजिक और जन -कला है | उसी कला में आम आदमी अपनी आकांक्षाओं को पूरा होते हुए देखता है उसीमें उसके सपने साकार होते हैं उसी में अपनी लड़ाई लड़े जाते हुए देखता है, वही कला उसकी बोलने की आजादी की रक्षा करता है, उसे संबल देती है | ऐसी कला राजनीति से दूर नहीं हो सकती है, विचारों से दूर नहीं हो सकती है, ऐसा कलाकार विचारों से दूर नहीं हो सकता है | टी एम् कृष्णा अपनी संगीत कला के माध्यम से अपने एक्टिविज्म को छुपाते नहीं हैं |वे कहते हैं कि जैसे ही आप प्रश्न पूछने लगते हैं और प्रश्न पूछना जारी रखते हैं आपको संदेह से देखा जाने लगता है | वे कहते हैं कि कला का राजनीतिकरण होना चाहिए | ऐसा कह के कृष्णा बोलने की आज़ादी की ही पैरवी करते हैं |    एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के कंसर्ट के रद्द होने की वजह सोशल मीडिया पर कृष्णा के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार बताया गया है | कृष्णा की आज़ादी पर आघात पहुंचाया मोदी सरकार और भारतीय  जनता पार्टी  के ट्रोल-हैंडलरों ने दुष्प्रचार से , जो एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया  पर प्रयोजन वापस लेने के लिए दबाव बनाने में सफल रहे| कृष्णा की आज़ादी पर हुए हमले को दिल्ली की प्रबुद्ध जनता ने नापसंद किया और उनकी इस भावना को दिल्ली की आप पार्टी की सरकार ने कृष्णा के कंसर्ट को सरकारी आयोजन बना के सम्मान किया | यहाँ दर्ज़ करना समीचीन होगा कि  दिल्ली की आप सरकार द्वारा गार्डन ऑफ़ फाइव सेंसिस में  आयोजित कंसर्ट में मार तमाम  लोगों ने शिरकत किया|       

ट्रोल और ट्रोल-हैंडलर हिंदी भाषा के शब्द नहीं हैं लेकिन अब हिंदी में  काफ़ी प्रचलित हो गए हैं | जबसे मोदी सरकार केंद्र में आयी है और एक के बाद एक राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनी  हैं  आए  दिन इन शब्दों से वास्ता पड़ने लगा है | कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी समर्थित ट्रोल-हैंडलर्स काफ़ी आक्रामक हैं और इनकी आक्रामकता को संबल इस बात से मिलता है कि इनको प्रधान मंत्री मोदी फॉलो करते हैं | लीजिए एक और शब्द फॉलो इस कड़ी में जुड़ गया |  ये तीनों नए शब्द एक नए माध्यम के हैं जिसे हम सोशल मीडिया के नाम से जानने लगे हैं | इन ट्रोल-हैंडलरों की आक्रामकता की तुलना यूरोप के पापाराजी फोटो-पत्रकारों से कर सकते हैं जो जिसके पीछे पड़  जाएं, उसका जीना हराम कर दें | पापाराजी पीछे-पीछे, और उसका शिकार आगे-आगे | पापराजिओं के पीछा करने के कारण लोगों की जान भी चली जाती है | ट्रोल हैंडलर्स जानलेवा हमले  करते हैं | वे कोई वैचारिक हमला नहीं करते हैं, छिछोरापन करते हैं और अपने  आक्रामक   छिछोरेपन से एक ऐसी विचारशून्यता पैदा करते हैं कि आप सोच भी नहीं सकते कि आख़िर उस छिछोरेपन का मुक़ाबला कैसे करें | वे एक गुरिल्ला युद्ध छेड़ते हैं तकनीक के सहारे और विचारवान  लोगों को डराने की कोशिश करते हैं | डराना ही उनका मकसद है | एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया के अधिकारी डर गए क्योंकि वे सरकार के मुलाज़िम हैं और मुलाजिमों का काम है सरकार से डरना क्योंकि उन्हें लोगों, संविधान, नागरिक अधिकार, आज़ादी से कोई मतलब नहीं होता, मतलब होता है तो सरकार के हुक्म बजाना | मोदी सरकार की कोई एक उपलब्धि है तो वह है की इसने हुक्म बजा ने वाले अधिकारियों की फ़ौज़  साढ़े चार वर्षों में खड़ी कर दी है |    


ट्रोल की अभद्र टिप्पणियों और धमकाने वाले तेवर से कृष्णा सरीखे  कलाकारों, संगीतकारों और  साहित्यकारों भारत क्या दुनिया के किसी भी हिस्से में डराया-धमकाया नहीं जा सकता | भारत में प्रतिरोध की एक लम्बी परंपरा रही है | अन्याय, दमन, आक्रमण , हिंसा, पाखण्ड के ख़िलाफ़ भारतीय जनमानस हमेंशा उठ खड़ा हुआ है | कबीर सहित सारा संत साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है और यह साहित्य गांवों में बसने वाले भारतीयों की जान-भाषा में रचा-बसा है| अपनी बोली-बानी के साहित्य से ग्रामीण जीवन संचालित होता है और उनकी न्याय-व्यवस्था भी इन्हीं परंपराओं पर आधारित है| कला और साहित्य का कोई भी रूप कोई भी शैली प्रतिरोध और नकार पैदा करती है | शहरी लोग थोड़ी देर के लिए भयातुर हो भी जाएं ग्रामीण लोग एक पल के लिए भी भय नहीं खाते और हमेंशा न्याय के पक्ष में खड़े रहते हैं | उनके लंपटपन में भी एक अक्खड़पन रहता है और वही अक्खड़पन उनकी भीतरी ताकत है | डराने की जो नयी तरक़ीब  तकनीक के आधार पर भारतीय जनता पार्टी के ट्रॉलरों ने अख़्तियार किया है, उससे कलाकार-साहित्यकार कहाँ डरेंगे, बल्कि एक मामूली-सा आदमी भी नहीं डरेगा  | सरकार पोषित संस्थाएं डर जाएंगी क्योंकि इन संस्थाओं को गुलाम बनाने की कोशिश भाजपा की सरकार जब से आयी है केंद्र में तब से कर रही है | लेकिन दिल्ली की सरकार और दिल्ली की जनता इन ट्रोलरों से न डरी न डरती है | भाजपा के ट्रोलरों  के दबाव में एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया डर  गयी और टी एस कृष्णा के संगीत के कार्यक्रम को रद्द कर दिया लेकिन दिल्ली  की आप सरकार ने वह कार्यक्रम उसी दिन दिल्ली में कराया|   ये ट्रोलर कृष्णा के राजनितिक विचारों से सहमत नहीं हैं और इनके लिए असहमति कोई मायने नहीं रखता | कृष्णा मोदी सरकार की आलोचना करते हैं जो ट्रोलरों को बिलकुल सहनीय नहीं है | कृष्णा के संगीत में जो समावेशी संदेश है वह भी इन ट्रोलरों  को पसंद नहीं है| अगर सरकार, किसी की भी हो सही काम नहीं करती है, तो उसकी आलोचना तो होगी ही, होनी ही चाहिए | सरकार सोने और मौज करने के लिए नहीं होती है, काम करने के लिए होती है | मोदी सरकार के साढ़े चार वर्ष हो गए और हेर मोर्चे पर नाकामी का सामना कर रही है            |  हिंदी के महान कवि रघुवीर सहाय की एक कविता की एक मशहूर पंक्ति है 'पांच बरस बहुत बरस होते हैं | ' पांच बरस में जो सरकार नाकाम रहती है वह सालों  सत्ता में रह कर भी कुछ नहीं कर सकती है |  
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बुधवार, 21 नवंबर 2018







कविता करते हुए अनायास ही कई बार प्रेमचंद की याद आ जाती है | समझ में नहीं आता ऐसा क्यों होता है | लेकिन यह एक सुखद अनुभव होता है | प्रेमचंद को पढ़ना, उनको समझना, उनके समय की सामाजिक स्तिथियों को महसूस करना, उनके पात्रों की कल्पना करना और आज के तमाम गावों में उन पात्रों  को सजीव देखना  यही बतलाता है हमें कि हमें बहुत बदलना है और स्तिथियों में बदलाव लाना है | विकास के ढिढ़ोरचियों को प्रेमचंद की रचनाओं से बदलाव का पाठ पढ़ना होगा | कवियों और लेखकों की एक संस्था है लिखावट जो है तो अनौपचारिक लेकिन सैकड़ों औपचारिक कविता गोष्ठियों का आयोजन किया है | लिखावट का एक साहित्यिक कार्यक्रम है कैंपस में कविता अर्थात महाविद्यालयों में छात्रों के लिए कविता पाठ आयोजित करना |  दिल्ली के एक महाविद्यालय  
में इसी तरह के कार्यक्रम में मैंने छात्रों से कुछ सवाल किए | पहले मैंने पूछा कि क्या श्रोताओं में सिर्फ हिंदी के ही छात्र हैं या दूसरे विभागों के भी छात्र हैं | जवाब मिला कि संख्या हिंदी वालों की अधिक है लेकिन दूसरे विभागों के विद्यार्थी भी हैं | दूसरा प्रश्न था कि क्या आप लोग प्रेमचंद को जानते हैं | उत्तर मिला कि जानते हैं | अगला प्रश्न था कि आप लोग लमही को जानते हैं | थोड़ी देर की चुप्पी के बाद जवाब आया कि नहीं | मैंने बताया कि लमही प्रेमचंद का गांव है जहाँ रहकर उन्होंने महान रचनाएं रचीं | मेरा आखिरी प्रश्न था कि क्या आपलोग लमही की यात्रा करना चाहेंगे | कोई जवाब नहीं आया | सभागार में खलने वाली चुप्पी थी | मैं स्तब्ध था कि हिंदी के छात्रों में  लमही को लेकर कोई जिज्ञासा नहीं है | लेकिन उसी समय मुझे याद आया कि मैंने भी लमही की यात्रा वर्षों तक नहीं की थी | कई बार बनारस जाना हुआ था लेकिन बगल में बसे लमही गांव जाने की न जरूरत समझा न इच्छा हुई | फिर छात्रों को क्या दोष दूँ | वहीं मुझे 2015 की अपनी बनारस यात्रा की याद आयी | 

उस  बार की वाराणसी यात्रा यादगार रही। कई बार वाराणसी आना-जाना हुआ । हर बार सुनता रहा कि प्रेमचंद का गांव लमही वाराणसी से काफ़ी क़रीब है लेकिन उस गांव न जा पाने के अफ़सोस के साथ लौटता रहा हूं । टैक्सी ड्राइवर से पूछा लमही चलना है। हैरत तो नहीं होनी चाहिए थी यह जानकर कि उसे लमही के बारे में कुछ भी नहीं पता है और कि लमही क्यों प्रसिद्ध है लेकिन मैं  हैरान हुआ | वाराणसी और उसके आस-पास के लोगों को लमही आखिर क्यों नहीं मालूम होना चाहिए क्यों नहीं उन्हें मालूम नहीं होना  चाहिए कि हिंदी भाषा के महान कथाकार प्रेमचंद का वह गांव है जहाँ रहकर उन्होंने कालजयी उपन्यासों और कहानियों का लेखन किया जिन्हें पढ़कर हम बड़े हुए | दुःख इस बात का भी कि उनसे बेहतर मैं कहाँ हूं जो इतने सालों तक प्रेमचंद के गांव लमही जाने की फुर्सत नहीं मिली | दरअसल हमारी परवरिश ही ऐसी होती है कि परिवार में कोई बताता ही नहीं है कि लेखकों के गांव , उनकी विरासत की देखभाल में हमें दिलचस्पी लेनी चाहिए | स्कूल और कॉलेज के दिनों में भी इनके महत्व के बारे में कभी कोई बताता नहीं है | स्वाध्याय से साहित्य की ओर बढे तो प्रेमचंद को जाना | उनकी कहानियां और उपन्यास पढ़ा तो उनके महत्व को जाना | मुझे इतना मालूम था कि लमही वाराणसी के पास ही है | टैक्सी ड्राइवर को  मालूम नहीं था कि लमही  का रास्ता किधर से है । उसने मुझसे  आग्रह किया कि अपने किसी मित्र जिसे लमही का रास्ता पता हो से फ़ोन पर बात करा दीजिए । उसकी लमही के प्रति अनभिज्ञता  से इस बात का पता चला कि प्रेमचंद की जन्मभूमि और साहित्यिक कर्मभूमि भारतीय, उत्तर प्रदेश और वाराणसी के पर्यटन के नक्से पर अपनी जगह नहीं बना पाया है वरना क्या वज़ह है कि जो टैक्सी ड्राइवर सारनाथ, विश्वनाथ मंदिर , गंगा घाटों का पता सहजता से जानता है लमही से अनिभज्ञ है । उत्तर भारतीय समाज अपनी परंपराओं और साहित्यिक विरासतों से जिस तरह आज़ादी के बाद से दूरी बनाता गया है, अपने लेखकों और रचनाकारों से अनजान होते गया है लमही और प्रेमचंद के बारे में टैक्सी ड्राइवर की अज्ञानता से मन पर विषाद का कोई बोझ नहीं पड़ा । उन्हीं  दिनों उत्तर प्रदेश में विधान सभा के लिए चुनाव प्रचार जोरों पर था और हर दल के बड़े-बड़े नेता लोगों से वोट मांगने के लिए प्रचार भाषण कर  रहे थे लेकिन किसी भी दल के नेताओं के भाषणों में उत्तर प्रदेश के साहित्यिक अवदान का कहीं कोई जिक्र नहीं था । विकास और सपनों के सौदागरों को शायद यह नहीं पता कि साहित्यिक-सांस्कृतिक विहीन विकास रचनाशील-मानवीय समाज का निर्माण नहीं  कर सकता । प्रचार भाषणों या चुनावी घोषणा पत्रों में किसी राजनीतिक दल ने यह वादा  नहीं किया कि सरकार बनाने के बाद लमही को राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल बना देंगे । राजनेता वाराणसी के घाटों पर आरती करने जा रहे हैं लेकिन मात्र दस किलोमीटर दूर लमही की याद किसी को नहीं आती । राजनीति की साहित्यिक सांस्कृतिक दरिद्रता चुनाव के दिनों में और कचोटने लगती है। काश किसी राजनीतिक दल के घोषणा-पत्र में प्रेमचंद के जन्म-स्थान लमही के बारे में कोई योजना होती।  मैंने अपने प्राध्यापक कवि और वाराणसी-निवासी  मित्र संजय श्रीवास्तव से आग्रह किया कि टैक्सी ड्राइवर को लमही जाने का रास्ता बता दें । वाराणसी से लमही की दूरी दस किलोमीटर है। सड़क पक्की है लेकिन बेमरम्मत होने की दशा की वज़ह से काफ़ी ख़राब अवस्था में थी  । टैक्सी में  बैठे महसूस होता रहा कि किसी उबड़-खाबड़ कच्ची सड़क से जा रहे हैं । जबकि बिडम्बना यह है कि प्रेमचंद का स्मारक बनने के बाद लमही गावं की ज़मीन की कीमत आसमान छू रहा है और वाराणसी शहर लमही तक पहुंच गया है ।  
राजनीतिक रूप से यदि फायदेमंद न हो तो राजनेता किसी भी व्यक्ति को याद नहीं करते हैं भले ही वह व्यक्ति किसी भी विधा का विद्वान रहा हो और उसने भारतीय समाज के उत्थान में महती योगदान दिया हो | सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा लगायी गयी है क्योंकि सरदार का फिलवक्त असरदार राजनीतिक ज़रुरत एक राजनीतिक दल को है | किसी भी राजनीतिक पुरुष की तुलना में किसी साहित्यकार के अवदान को कम कर के नहीं आँका जा सकता है और बात अगर प्रेमचंद की हो रही हो तो यह शत प्रति  शत प्रासंगिक है | प्रेमचंद को याद करने की यहाँ कोई बड़ी वजह नहीं है सिवाय यह रेखांकित करने की कि प्रेमचंद का योगदान साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनितिक स्तरों पर  अतुलनीय है | भाषा के स्तर पर खड़ीबोली हिंदी को कहानी और उपन्यास के लिए नयी संवेदना से समृद्ध किया | उत्तर भारत के आज़ादी पूर्व के समाज में फैली हुई जाति -व्यवस्था , भूख आभाव गरीबी और विचार -विहीनता को हमारे लिए अपनी कहानियों और उपन्यासों में दर्ज़ किया | उनके साहित्य में कहानियां कहानियों जैसी नहीं है बल्कि उत्तर भारतीय समाज की तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना को  झकझोर कर रख देने वाला समाजशात्रीय  साहित्य है |  'कफन', 'गोदान', 'नमक का दरोगा', 'ईदगाह' सरीखे रचनाओं के माध्यम से  गांव में बसे  हिंदुस्तान की तस्वीर को प्रेमचंद ने  देश-दुनिया तक पहुंचाया| चुनाव के दौरान अनाप-शनाप के खर्चे और भ्रम फ़ैलाने वाली  बहसों के बीच किसी राजनीतिक दल को प्रेमचंद याद नहीं आते हैं |  मुंशी प्रेमचंद के गांव लमही को हम उत्तर भारतीय भूल जाएँ तो समझिए हमने अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत से दूरी बनाने का फैसला कर लिया है| बढ़िया  बात यह हुई है कि लमही में उनके स्मारक पर  उनकी  जयंती  महोत्सव आयोजित होने लगा है |  महोत्सव में  सभी तरह के लोग दिखते हैं और शायद उनके पात्रों सरीखे लोग भी |  पर जयंती के अलावा किसी दिन लमही आप पहुंचे तो वहां की दुर्व्यवस्था देख कर यही लगेगा कि मुंशी प्रेमचंद की जयंती पर रस्म अदायगी होती रही है| । लेकिन यह भी सच है कि प्रेमचंद के उपन्यास नमक का दरोगा, ईदगाह, सवा सेर गेंहू, कफन, निर्मला पर आधारित नाटक मंचन के दौर में हामिद, घीसू-माधो जैसे चेहरे लोगों के सामने आते रहते हैं । द्वार से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर चलने पर सामने आपको मुंशी जी का पैतृक आवास नजर आएगा, वहीं ठीक दूसरी ओर बीएचयू का मुुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसच सेंटर. पैतृक आवास जिनकी खिड़कियां, बारजे, छोटे छोटे कमरे आज उजली रंगत में चमक रहे हैं जिस घर में कभी प्रेमचंद ने अपनी कालजयी रचनाएं गढ़ीं, कभी न भूलने वाले किरदारों को जना, उसे न जाने कितने साल से म्यूजियम बनाने की तैयारी चल रही है| कई साल  पहले मुंशी जी की 125वीं जयंती पर उनके आवास को म्यूजियम बनाने का दावा किया गया था, लेकिन बीते अनेक वर्षों  में  दीवारों की मरम्मत कर उन पर पुताई ही हुई है| मुंशी जी के घर के ठीक सामने आलीशान मुंशी प्रेमचंद मेमोरियल रिसर्च सेंटर  है जिसका प्रशासन बनारस हिन्दू विशवविद्यालय के अधीन है लेकिन सेंटर और स्मारक के बीच कोई संबंध नहीं दिखता है | रिसर्च सेंटर अभी भी  अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर पा रहा है जबकि  केंद्र सरकार की पहल पर इस रिसर्च सेंटर की स्थापना इस उद्देश्य से की गई कि यहां मुंशी प्रेमचंद पर, उनके उपन्यास, कहानियों और किरदारों पर शोध हो सके| लोग यह भी बताते हैं कि पहले तो बने बनाए इस भवन के उद्घाटन को दो साल का इंतजार करना पड़ा| शोध क्या होता.साल 2005 से ही लमही को समृद्ध करने की सरकारी कोशिशें की जा रही हैं|  गांव में मुंशी प्रेमचंद नाम से सरोवर भी है जिस पर पहले अवैध कब्जा हो गया था|  जब गांव की सूरत बदलने की सुधी सरकारी तंत्र ने ली तब इस सरोवर को भी कब्जे से मुक्त कराया गया|  गांव के बुजुर्ग लोग कहते हैं  कि हमारे लिए भगवान के बाद कोई है तो वो प्रेमचंद. अगर वो ना होते तो शायद आज हमारा गांव भी गुमनाम होता|  आज यहां जो कुछ है उन्हीं का है|  जिस गांव की कलम से हिंदी उपन्यास जगत में नया इतिहास रचा गया, आज उस विरासत को संभालने वाला कोई नहीं हैं.| गांव में अब भी कफन दुधिया, बूढ़ी काकी और निर्मला जैसे किरदार हैं लेकिन अब उनके दर्द को लिखने वाला कोई नहीं.पैतृक आवास से ही सटे मुंशी प्रेमचंद स्मारक स्थल पर प्रेमचंद स्मारक न्यास लमही की एक छोटी से लाइब्रेरी है, जहां उनकी कहानियों की तिलिस्मी दुनिया बसती है. मुंशी जी के उपन्यासों, कहानियों की किताबों से सजी ये लाइब्रेरी सिर्फ लाइब्रेरी नहीं, बल्कि उनकी कहानियों का मर्म यहां बसता है| किताबों के अलावा यहां आपको ईदगाह का चिमटा भी मिलेगा जो हामिद ने अपनी दादी के लिए खरीदा था|  मुंशी प्रेमचंद का पसंदीदा खेल गिल्ली डंडा भी.| एक छोटे कमरे की लाइब्रेरी में उनकी होली की पिचकारी भी है और हुक्का भी| हामिद की कहानी से प्रेरित विज्ञापन भी अब बनने लगा है | टेलीविजन पर अक्सर एक विज्ञापन दिखाई देता है जिसमें एक गोदाम के भीतर सरिया रखा है और बगल में एक मां रोटियां सेंक रही है | रोटियों को फूलाने में मां की उंगलियां जलने लगाती हैं तो बगल में बैठा रोटी खा रहा  हामिद सरीखा उसका बच्चा उठता है और एक सरिया उठाकर उसे चिमटे का शक्ल देकर अपनी माँ  को देता है और मां  खुश होती है और उसी चिमटे से रोटी को पकड़ कर आग पर फुलाती है| प्रेमचंद ने हमें अनेक स्तरों पर प्रभावित किया है इस विज्ञापन से समझा जा सकता है | कई ऐसी रचनाएं भी आपको यहां मिलेंगी जो कभी पूरी न हो सकीं और वो भी जिन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया. 1909 में  उनकी लिखी 'सोजे वतन' की वो प्रति भी है जिसे अंग्रेजों ने जला दिया था| 'समर यात्रा' दिखेगा जिसे अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था| 'मंगलसूत्र' दिखेगा  जो अधूरी रह गई. प्रेमचंद की कहानियां, उपन्यास साहित्य के अनमोल धरोहर हैं| 


विस्मृति के ख़िलाफ़ एक लम्बा जंग लड़ने की ज़रूरत 

विस्मृति के ख़िलाफ़ एक लम्बा जंग लड़ने की ज़रूरत है, ख़ास के जब ऐसा जंग साहित्य में लड़ने की हो | हमारा उत्तर भारतीय समाज अपने साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को याद रखने की जोहमत बहुत कम उठता है | हमारे  समय के महँ कवि  कवि रघुवीर सहाय को अब उनके जन्मदिन पर भी लोग याद नहीं करते जबकि उनको मरे केवल अठ्ठाइस वर्ष ही हुए | उनके जैसे कवि को दिसंबर महीने में हर साल शहर शहर याद किया जाना चाहिए | रघवीर सहाय का जन्म नौ दिसंबर, १९३१  लखनऊ शहर में हुआ इसलिए वे लखनऊ के हैं, फिर दिल्ली आ गए और इसी दिल्ली में तीस दिसंबर, १९९० को उनका देहावसान हुआ | लखनऊ और दिल्ली शहर कम से कम उन्हें याद करें लेकिन नहीं, हम घनघोर रूप से  समकालीनता से घिर गए हैं और आत्मुग्धता से भी, ऐसे में अगर कोई किसी को याद करता है तो वह उसका बड़ा काम दिखने लगता है |    स्वर्गीय जगदीश चंद्र माथुर का  यह जन्मशती वर्ष है जो चुपचाप उनको याद किये बगैर निकालता चला जा रहा है | एक समाज के  रूप में यह भी हमारी साहित्यिक और  सांस्कृतिक दरिद्रता की निशानी है | अगर उनके  जीवन वृत्त पर एक नज़र हम डालें तो पाएंगे कि उनका जन्म १७ जुलाई, १९१७ के दिन उत्तर प्रदेश के खुरजके शाहजहांपुर में हुआ था, तो इस तरह से उनकी जन्मशती मनाने के सबसे पहला दायित्व उत्तर प्रदेश सरकार की है लेकिन वर्तमान सरकार को मंदिर , मूर्ति और प्रतिमाओं से फुर्सत कहाँ है| एक आदमकद मूर्ति के हकदार माथुर जी भी हैं, अगर उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक अवदान को गंभीरता से लिया जाए | १९४१ में आई सी एस की परीक्षा पास कर सिविल सेवा में आ चुके थे और अपने प्रशासनिक जीवन का अधिकांश हिस्सा बिहार में बिताया| १९४९ से १९५५ तक क़रीब छह साल बिहार के शिक्षा सचिव रहे, और नाम के शिक्षा सचिव नहीं रहे बल्कि बिहार के साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्थान के लिए कई साहित्यिक- सांस्कृतिक  संस्थाओं के जन्मदाता रहे, उनकी जन्मशती मनाने की कोशिश बिहार सरकार को भी करनी चाहिए थी | बिहार सरकार उत्तर प्रदेश की सरकार से थोड़ा हट के तो  है ही | क़ाबिलेगौर  बात यह है कि माथुरजी आकाशवाणी छह साल महानिदेशक भी रहे और कहते हैं कि ऑल इंडिया रेडियो को आकाशवाणी का नाम उन्होंने ने ही दिया था, उनकी जन्मशती मनाने की एक जिम्मेवारी  सरकार की भी है और कम से कम उनकी एक आदमकद प्रतिमा दिल्ली के आकाशवाणी परिसर में लगनी ही चाहिए लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि उनकी प्रतिमा लगाने या जन्मशती मनाने से सरकारों को कोई राजनितिक लाभ तो मिलाना नहीं है क्योंकि उत्तर भारतीय लोग अपने साहित्यकारों को चाहते ही कितना है | मुझे नहीं पता कि आकाशवाणी ने  उन्हें इस जन्मशती वर्ष में याद किया कि नहीं !    माथुर जी को इस साल शिद्दत से याद किया अनभै साँचा नाम की एक  अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ने पूरी नीयत और लगन से | 

अनभै साँचा दिल्ली से निकलने वाली साहित्यिक और सांस्कृतिक  पत्रिका है | इसके संपादक की कोशिश रहती है की इसका अंक बिना नागा तीन महीने पर निकल जाए लेकिन संसाधन की कमी अक्सर इसे अनियतकालीन पत्रिका बना देती है | इसके संपादक द्वारिका प्रसाद चारुमित्र  हैं जो दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक पद से अवकाशप्राप्त हैं | दिल्ली में रहते हैं और जिद्द पर अड़े रहते हैं कि पत्रिका निकालनी ही है |  इस काम में दिल्ली विश्वविद्यालय के कई युवा प्राध्यापक उनको सहयोग करते हैं जैसे कि विक्रम सिंह, बली सिंह, मनोज कुमार सिंह इत्यादि| ये लोग दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न महाविद्यालयों में प्राध्यापन का कार्य करते हैं  |  चारुमित्र ने अपने अनथक प्रयास और परिश्रम से कई संग्रहणीय अंक निकाले हैं  | शमशेर बहादुर सिंह  के जन्मशती वर्ष में उनपर केंद्रित अनभै साँचा का विशेषांक संग्रहणीय है | यह अक्टूबर-दिसंबर, 2011 का अंक  है | अनभै साँचा का जुलाई-दिसंबर, 2016 का अंक प्रख्यात आलोचक डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी पर केंद्रित है | ऐसे ही संग्रहणीय अंकों की कड़ी में चारुमित्र ने अनभै साँचा के जनवरी-जून, 2018 अंक को स्वर्गीय जगदीश चंद्र माथुर पर केंद्रित किया है | माथुर जी का यह जन्मशती वर्ष है लेकिन भाषा और साहित्य में उनके अवदान को याद करने की फूर्सत इस बृहत्तर हिंदी समाज को नहीं मिली | माथुर जी को याद करने का काम अकेले अभी तक अनभै साँचा ने किया है 168 पृष्ठों का उन पर केंद्रित अंक निकाल कर |

माथुर जी की ख्याति एक सफल नाटककार की रही है | वे बड़े नाटककार तो थे ही, एक बड़े रंगचिंतक और नात्यालोचक भी थे | ध्यान देने की बात यह भी है कि वे एक कुशल प्रसाशक और संस्था-निर्माणक भी थे | बिहार में शिक्षा-सचिव रहे और अपने कार्य-काल के दौरान वैशाली-महोत्सव, बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद्, प्राकृत जैन-शास्त्र, अहिंसा शोध संस्थान, काशीप्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, मिथिला-संस्कृत शोध संस्थान, अरबी- फ़ारसी  शोध संस्थान , नेतरहाट विद्यालय सरीखे संस्थानों का निर्माण करवाया | वैशाली महोत्सव का उन्होंने अपने एक लेख में विशेष रूप से जिक्र किया है |  वे लिखते है कि वैशाली प्रजातंत्र की न्याय व्यवस्था बहुत सिलसिलेवार और सुंदर थी | बौद्धों के सुप्रसिद्ध धर्मग्रंथ 'दीध निकाय ' के हवाले से वे बतलाते हैं कि वैशाली के प्रजातंत्री काज्जिगण बार-बार अपनी सभाएं करते हैं , सभाओं में मिलकर बहुमत से निर्णय लेते हैं; एक राय से काम, करते हैं, उठते-बैठते हैं ; वैशाली के नियमों और विधान के विरुद्ध काम नहीं करते; अपने बड़े-बूढ़ों का सम्मान करते, और उनकी बात पर कान देते हैं ;स्त्री और कन्याओं पर अत्याचार और ज़बरदस्ती नहीं करते ; जातीय मंदिरों की देख-रेख करते हैं और धर्माचार्यों के सुभीते का ध्यान रखते हैं | ये सातों सिद्धांत  सरकारों के लिए मार्ग-दर्शक हैं एक धर्म-निरपेक्ष सर्व-धर्म हिताय लोक-कल्याणकारी सरकार चलाने के लिए लेकिन तीनों सरकारें 'दीध निकाय ' के केवल जातीय मंदिरों की देख-रेख और  धर्माचार्यों के सुभीते का ध्यान ही रख रहे हैं | वैशाली की शक्ति के मूल-मंत्र थे ये सातों सिद्धांत  | कह सकते हैं की किसी भी लोकतंत्र की नींव इन्हीं  आधारित हैं | वे लिखते हैं कि इन आदर्शों की स्मृति को पुनर्जागरत करने और सामूहिक आमोद-प्रमोद के वातावरण को स्थापित करने के विचार से ही, सन १९४५ से प्रति वर्ष जनसाधारण का एक महोत्सव, वैशाली महोत्सव के नाम से वैशाली के खण्डहरों के पास ही मनाया जाता है |     वर्ष 1955 में आकाशवाणी के महानिदेशक बने तो आकाशवाणी को भारतीय संस्कृति के सच्चे वाहक का रूप दिया | कहते हैं आल इंडिया रेडियो को आकाशवाणी का नाम उन्हीं का दिया हुआ है | इस पत्रिका के संपादक के शब्दों में कहें तो कहना होगा, " अनभै साँचा का यह अंक जगदीश चंद्र माथुर जैसे महत्त्वपूर्ण सर्जक और संस्कृतकर्मी के उचित मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त करेगा | "

अनभै साँचा के इस अंक में जगदीश चंद्र माथुर पर अनेक ऐसे आलेख हैं जो उनके नाट्यकर्म पर समुचित प्रकाश डालते हैं | प्रसिद्ध रंग-निर्देशक देवेंद्र राज अंकुर के आलेख 'कोणार्क : आज़ादी के बाद का पहला रंगमंचीय नाटक ' में माथुर जी के नाटक कोणार्क के रोमांचक  प्रस्तुतियों का एक सरस इतिहास है | अपने समय के सच को अभिव्यक्त करने के लिए माथुर जी ने मध्यकालीन इतिहास से रूपक उठाया | देवेंद्र राज अंकुर अपने लेख में लिखते हैं, "शायद इसीलिए रचनाकार बार-बार इन स्त्रोतों की ओर लौटते हैं, क्योंकि यहां पहले से कथा का एक प्रचलित एवं  प्रचारित रूप उपस्थित है | अतः उसके लिए यह सुविधा हो जाती है कि वह उसमें से क्या नया खोज कर लाए कि वह उसे अपने समय की आहटों, पदचापों एवं प्रतिध्वनियों से तो जोड़ ही सके, साथ-साथ अपने शाश्वतपन के कारण  हर युग में उसकी सार्थकता बानी रहे | " शाश्वतपन की सार्थकता माथुर जी के 'कोणार्क ' में  देखी  जा सकती है | देवेंद्र राज अंकुर आगे लिखते हैं, " मेरे विचार में नाटक में संवादों का साहित्यिक होना या ना होना उतना मायने नहीं रखता, जितनी यह अपेक्षा या संभावना कि वे अपने भीतर में कितने नए बिम्ब और कितने नए अर्थ व्यंजित कर रहे हैं | इस लिहाज से कोणार्क के संवाद सफल नाटकीय संवाद हैं | " अंकुर जी के शब्दों में हिंदी रंगमंच में एक नयी शैली की खोज और पूरी तरह से भारतीय यथार्थवाद की प्रस्तुतिपरक अवधारणाओं एवं संभावनाओं के प्रतीक रूप में 'कोणार्क ' का महत्त्व सदैव अक्षुण्ण रहेगा | 
रंग आलोचक प्रताप सहगल जगदीश चंद्र माथुर  को आज़ादी के बाद हिंदी नाटक एवं रंगमंच के अग्रदूत मानते हैं | जगदीश चंद्र माथुर हिंदी नाटक और रंगमंच के क्षेत्र में उस समय प्रवेश करते हैं, जब हिंदी रंगमंच एकदम निष्क्रिय था | उनकी इसी पहल के कारण माना जा सकता है कि 'आधुनिक रंगमंच के जनक भारतेन्दु के बाद फिर एक नयी शुरुआत करने वाले जगदीश चंद्र माथुर ही थे | ' नाटक लिखते हुए वे दृश्य विधान और रंगमंच के स्वरुप आदि की परिकल्पना भी करते चलते थे | डॉ विक्रम सिंह मानते हैं कि जगदीश चंद्र माथुर ने नवीन  नाट्य-चेतना तथा सृजनात्मक रंग-दृष्टि से हिंदी नाट्य साहित्य को समृद्ध बनाने में योगदान दिया है |    इस अंक में बहुत कुछ पठनीय है | विख्यात  कवि स्वर्गीय  शमशेर बहादुर सिंह की स्वर्गीय जगदीश  चंद माथुर पर लिखी एक कविता है | माथुर जी पर लिखा अमृत लाल नागर का लिखा एक लेख है | अमृत लाल नगर लिखते है कि कोणार्क एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था तभी से उसकी धूम मच गयी थी |